'पूरी तरह यही मेरे कहने का मतलब नहीं था,' रस्कोलनिकोव ने सीधे ढंग से और विनम्रता के साथ कहना शुरू किया। 'मैं फिर भी मानता हूँ कि मेरी बात को आपने लगभग पूरी तरह सही-सही बयान किया है, बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि शायद उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है। फर्क बस एक है। मैं इस पर जोर नहीं देता कि असाधारण लोगों के लिए हमेशा उनके, जैसा कि आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों के, खिलाफ काम करना लाजमी नहीं होता। दरअसल, मुझे तो इसमें भी शक है कि 'असाधारण' आदमी को इस बात का अधिकार होता है कि वह अपनी अंतरात्मा में इस बात का निश्चय कर सके कि वह कुछ बाधाओं को... पार करके आगे जा सकता है, और वह भी उस हालात में जब ऐसा करना उसके विचारों को व्यवहार का रूप देने के लिए जरूरी हो। (शायद कभी-कभी यही पूरी मानवता के हित में हो।) आपका कहना है कि मेरे लेख में यह बात स्पष्ट ढंग से नहीं कही गई है; मैं अपनी बात, जहाँ तक मेरे लिए मुमकिन है, साफ-साफ कहने को तैयार हूँ। मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दर्जन, एक सौ या उससे भी ज्यादा लोगों की जान की कुरबानी दिए बिना केप्लर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछें तो उसका कर्तव्य होता कि वह पूरी मानवता तक अपनी खोजों की जानकारी पहुँचाने के लिए... उन एक दर्जन या एक सौ आदमियों का सफाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करता चले और रोज बाजार में जा कर चीजें चुराए। फिर मुझे याद है, मैंने अपने लेख में यह भी दावा किया था कि सभी... मेरा मतलब है कि सुदूर अतीत से ले कर अभी तक कानून बनानेवाले और जनता के नेता, जैसे लाइकर्गस, सोलन, मुहम्मद, नेपोलियन, वगैरह-वगैरह सारे के सारे एक तरह से अपराधी थे, सिर्फ इस बात के सबब कि उन्होंने एक नया कानून बना कर उस पुराने कानून का उल्लंघन किया जो उनके पुरखों से उन्हें मिला था और जिसे आम लोग अटल मानते थे। अरे, ये लोग तो खून-खराबे से भी नहीं झिझके क्योंकि उस खून-खराबे से, जिसमें अकसर पुराने कानून को बचाने के लिए बहादुरी से लड़नेवाले मासूमों का खून बहाया जाता था, उन्हें अपने लक्ष्य पाने में मदद मिलती थी। जी हाँ, कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करनेवाले इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज्यादातर नेता भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इससे मैंने यह नतीजा निकाला है कि सभी महापुरुषों को, बड़े लोगों को, और उन लोगों को भी जो आम लोगों से थोड़े भिन्न होते हैं, उन्हें कमोबेश अपराधी ही बनना पड़ता है। नहीं तो उनके लिए घिसी-घिसाई लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाए और वे कभी घिसी-घिसाई लीक पर चलते रहना बरदाश्त नहीं कर सकते। ...मैं तो बस अपने इस मुख्य विचार में विश्वास रखता हूँ कि प्रकृति का एक नियम लोगों को आमतौर पर दो खानों में बाँट देता है : एक तो निम्नतर (यानी साधारण), मतलब यह कि वह माल जो सिर्फ अपनी ही किस्म का माल बार-बार पैदा करते रहने के लिए होता है, और दूसरे वे लोग जिनमें कोई नई बात कहने की प्रतिभा होती है। ...आम तौर पर, पहली किस्म में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से ही दकियानूस और कानून को माननेवाले होते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसंद करते हैं। उन्हें मेरी राय में आज्ञाकारी ही होना चाहिए। क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती। दूसरे किस्म के लोग कानून की सीमाओं को तोड़ते हैं; अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से वे या तो चीजों को नष्ट करते हैं या उनका झुकाव चीजों को नष्ट करने की ओर होता है। जाहिर है इन लोगों के अपराध दूसरी ही तरह के होते हैं और किसी दूसरी बात से तुलना करके ही उन्हें अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर तो यही होता है कि वे बहुत ही भिन्न-भिन्न संदर्भों में जो कुछ मौजूद है, उसे कुछ बेहतर की खातिर नष्ट करने की माँग करते हैं। लेकिन इस तरह का एक आदमी अगर अपने विचारों की खातिर किसी लाश को रौंदने या खून की नदी से भी पार उतरने पर मजबूर हो जाए तो वह, मेरा दावा है कि अपनी अंतरात्मा में खून की इस नदी से पार उतरने को उचित ठहराने के लिए भी कोई कारण ढूँढ़ निकालेगा। ...लेकिन कुछ ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है : आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं। वे ऐसे लोगों को (कमोबेश) या तो मौत की सजा देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं, और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी के फर्ज को पूरा करते हैं, जो ठीक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर आम लोग ही (कमोबेश) इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ खड़ी करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पहली किस्म के लोगों का हमेशा केवल वर्तमान पर ही अधिकार रहता है और दूसरी किस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। (अपराध और दंड से)
Friday, 17 January 2014
फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की
'पूरी तरह यही मेरे कहने का मतलब नहीं था,' रस्कोलनिकोव ने सीधे ढंग से और विनम्रता के साथ कहना शुरू किया। 'मैं फिर भी मानता हूँ कि मेरी बात को आपने लगभग पूरी तरह सही-सही बयान किया है, बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि शायद उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है। फर्क बस एक है। मैं इस पर जोर नहीं देता कि असाधारण लोगों के लिए हमेशा उनके, जैसा कि आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों के, खिलाफ काम करना लाजमी नहीं होता। दरअसल, मुझे तो इसमें भी शक है कि 'असाधारण' आदमी को इस बात का अधिकार होता है कि वह अपनी अंतरात्मा में इस बात का निश्चय कर सके कि वह कुछ बाधाओं को... पार करके आगे जा सकता है, और वह भी उस हालात में जब ऐसा करना उसके विचारों को व्यवहार का रूप देने के लिए जरूरी हो। (शायद कभी-कभी यही पूरी मानवता के हित में हो।) आपका कहना है कि मेरे लेख में यह बात स्पष्ट ढंग से नहीं कही गई है; मैं अपनी बात, जहाँ तक मेरे लिए मुमकिन है, साफ-साफ कहने को तैयार हूँ। मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दर्जन, एक सौ या उससे भी ज्यादा लोगों की जान की कुरबानी दिए बिना केप्लर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछें तो उसका कर्तव्य होता कि वह पूरी मानवता तक अपनी खोजों की जानकारी पहुँचाने के लिए... उन एक दर्जन या एक सौ आदमियों का सफाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करता चले और रोज बाजार में जा कर चीजें चुराए। फिर मुझे याद है, मैंने अपने लेख में यह भी दावा किया था कि सभी... मेरा मतलब है कि सुदूर अतीत से ले कर अभी तक कानून बनानेवाले और जनता के नेता, जैसे लाइकर्गस, सोलन, मुहम्मद, नेपोलियन, वगैरह-वगैरह सारे के सारे एक तरह से अपराधी थे, सिर्फ इस बात के सबब कि उन्होंने एक नया कानून बना कर उस पुराने कानून का उल्लंघन किया जो उनके पुरखों से उन्हें मिला था और जिसे आम लोग अटल मानते थे। अरे, ये लोग तो खून-खराबे से भी नहीं झिझके क्योंकि उस खून-खराबे से, जिसमें अकसर पुराने कानून को बचाने के लिए बहादुरी से लड़नेवाले मासूमों का खून बहाया जाता था, उन्हें अपने लक्ष्य पाने में मदद मिलती थी। जी हाँ, कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करनेवाले इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज्यादातर नेता भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इससे मैंने यह नतीजा निकाला है कि सभी महापुरुषों को, बड़े लोगों को, और उन लोगों को भी जो आम लोगों से थोड़े भिन्न होते हैं, उन्हें कमोबेश अपराधी ही बनना पड़ता है। नहीं तो उनके लिए घिसी-घिसाई लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाए और वे कभी घिसी-घिसाई लीक पर चलते रहना बरदाश्त नहीं कर सकते। ...मैं तो बस अपने इस मुख्य विचार में विश्वास रखता हूँ कि प्रकृति का एक नियम लोगों को आमतौर पर दो खानों में बाँट देता है : एक तो निम्नतर (यानी साधारण), मतलब यह कि वह माल जो सिर्फ अपनी ही किस्म का माल बार-बार पैदा करते रहने के लिए होता है, और दूसरे वे लोग जिनमें कोई नई बात कहने की प्रतिभा होती है। ...आम तौर पर, पहली किस्म में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से ही दकियानूस और कानून को माननेवाले होते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसंद करते हैं। उन्हें मेरी राय में आज्ञाकारी ही होना चाहिए। क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती। दूसरे किस्म के लोग कानून की सीमाओं को तोड़ते हैं; अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से वे या तो चीजों को नष्ट करते हैं या उनका झुकाव चीजों को नष्ट करने की ओर होता है। जाहिर है इन लोगों के अपराध दूसरी ही तरह के होते हैं और किसी दूसरी बात से तुलना करके ही उन्हें अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर तो यही होता है कि वे बहुत ही भिन्न-भिन्न संदर्भों में जो कुछ मौजूद है, उसे कुछ बेहतर की खातिर नष्ट करने की माँग करते हैं। लेकिन इस तरह का एक आदमी अगर अपने विचारों की खातिर किसी लाश को रौंदने या खून की नदी से भी पार उतरने पर मजबूर हो जाए तो वह, मेरा दावा है कि अपनी अंतरात्मा में खून की इस नदी से पार उतरने को उचित ठहराने के लिए भी कोई कारण ढूँढ़ निकालेगा। ...लेकिन कुछ ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है : आम लोग इस अधिकार को शायद कभी मानेंगे ही नहीं। वे ऐसे लोगों को (कमोबेश) या तो मौत की सजा देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं, और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी के फर्ज को पूरा करते हैं, जो ठीक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर आम लोग ही (कमोबेश) इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ खड़ी करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पहली किस्म के लोगों का हमेशा केवल वर्तमान पर ही अधिकार रहता है और दूसरी किस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। (अपराध और दंड से)
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