Sunday, 12 January 2014

सुबह का सपना

जयप्रकाश त्रिपाठी

सोमवार की सुबह सो रही थी वह
 अभी गहरी नींद में
पढ़ रहा था मैं उसके चुटकीभर चेहरे पर
पौधौं-पत्तियों, तितलियों, फूलों और खिलौनो की बातें,
देखते-देखते कितनी जल्दी से
 हो गई तीन साल पांच महीने की, तो भी
अथाह ज्ञान से लदे फदे आ ही रहे होंगे
इसके भी स्कूलों वाले दिन,
किताबों और कहानियों और कविताओं और वेरा-वेरा बोलते
बड़े-बड़े सपनों वाली रातें।
और बाहर घने अंधेरे में अपनी अपनी खोह से
घूरतीं लाल लाल भेड़िया आंखें उन सबकी
जिन्हें,  अजनबी बना दिया है समय ने,
बाकी सब कुछ दिख जाता है समय से पहले,
सिर्फ बेटियों में बेटियां
नजर नहीं आतीं हैं!

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