Monday, 8 July 2013

'मैं सफ़ाई कर्मचारी बनना चाहता हूं' - मिख़ाइल इओसिफाविच वेल्लेर


मिखाइल वेल्लेर का जन्म १९४८ में एक फौजी अफसर के परिवार में हुआ। उनका बचपन साइबेरिया और सुदूर-पर्व की फौजी छावनियों में गुज़रा। उन्होंने १९७२ में लेनिनग्राद राजकीय विश्विद्यालय के भाषा-संकाय से एम.ए. किया। और उसके बाद, जैसा कि खुद उनका कहना है, उन्होंने पूरे देश में यायावरी की। ताइगा में वन काटे। उत्तरी ध्रुव के उस पार के क्षेत्र में टूंड्रा के इलाके में शिकारी रहे। अल्ताय पर्वतमाला के क्षेत्र में चरवाहा रहे। फिर पत्रकार रहे, अध्यापक रहे... और इस तरह मिखाइल वेल्लेर ने कुल मिलाकर करीब ३० पेशे बदले।
पहली बार मिखाइल वेल्लेर की कविताएँ १९६५ में बेलारूस में एक प्रादेशिक समाचार पत्र में प्रकाशित हुईं। उनका पहला कथा-संग्रह 'खचू बीत्च द्वोरनिकम' (मैं सफ़ाई कर्मचारी बनना चाहता हूँ) १९८३ में एस्तोनिया में प्रकाशित हुआ, जिसने अपनी भाषा की सहजता और कहानियों के विषयों की आकस्मिकता के कारण आलोचकों और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद १९८८ में उनका कथा-संग्रह 'रजबिवाचेल सेर्देत्स' (दिल तोड़ने वाला छैला) औक १९८९ में 'तेख़नालोगिया रस्सकाज़ा' (कहानी की तक्नौलौजी) नामक संग्रह प्रकाशित हुए। फिर १९९१ में प्रकाशित 'मेजर ज़्व्यागिन का रोमांच' उस वर्ष की बेस्टसेलर किताब रही।
इसके बाद १९९३ में छपी 'नेव्स्की मार्ग की दंतकथाएँ' नामक मिख़ाइल वेल्लेर की किताब को आलोचकों ने सबसे मनोरंजक पुस्तक माना। उपन्यासिका 'नोझिक सेर्योझी दवलातवा' (सेर्योझा दवलातफ का चाकू) पर साहित्यिक दुनिया में कलह और हंगामा हुआ। 'पीज़ा का दौड़ाक' राष्ट्रपति पूतिन के सत्ता में आने से पहले की देश की स्थिति और लोकतंत्र की पराजय के बारे में है। 'आखिरी महान मौका' पिछले वर्षों की राजनीति के बारे में उनकी हिट किताब रही है। मिखाइल वेल्लेर रूस की साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपते हैं।

यूरी मिखायलाविच पलिकोफ़
कथाकार, पत्रकार, नाटककार और कवि यूरी पलिकोफ़ का जन्म १९५४ में मास्को में हुआ। १९७६ में उन्होंने मास्को प्रदेश अध्यापन संस्थान से एम.ए. किया और फिर वहीं से पीएच.डी. की। इसके बाद वे एक स्कूल में अध्यापन करने लगे। बाद में 'मास्कोव्स्की लितरातर' नामक साहित्यिक पत्र में संपादक रहे। अब सन २००१ से यूरी पलिकोफ 'लितरातूरनया गज्येता' (लिटरेरी गजट) नामक एक बड़े साप्ताहिक के संपादक हैं।
यूरी पलिकोफ़ की रचनाओं का पहला प्रकाशन १९७४ में 'मास्कोव्स्की कमसामोलित्स' समाचार पत्र में हुआ। तब से वे इस पत्र में लगातार लिखते रहे हैं। १९८० में पलिकोफ़ की पहली किताब प्रकाशित हुई जो एक कविता-संग्रह था और जिसका शीर्षक था - 'ब्रेम्या प्रिबीत्या' (आने का समय)। लेकिन यूरी पलिकोफ़ कथाकार के रूप में चर्चित हुए। १९८५ में 'यूनस्त' (कैशौर्य) पत्रिका में 'क्षेत्रीय स्तर की आपात्तकालीन स्थिति' नामक लंबी कहानी छपने के बाद रूस में उनकी चर्चा होने लगी। 'यूनस्त' और 'मस्कवा' नामक साहित्यिक पत्रिकोओं में इनकी रचनाएँ लगातार प्रकाशित होती हैं।
इनकी प्रसिद्ध गद्य रचनाएँ हैं- 'आदेश से पहले सौ दिन', 'अपाफिगेय' (सर्वोच्च समारोह), 'कोस्त्या गुमनकोफ़ का पैरिस', 'देमगरादोक' (लोकतांत्रिक नगर), 'गिरे हुओं का आसमान', 'मैंने भागने की सोची' और 'अफ्रोदिता का बायाँ स्तन' आदि। यूरी पलिकोफ़ के लेखों के संग्रहों के नाम हैं- 'झूठ के साम्राज्य से झूठ के लोकराज्य तक' और 'पोर्नोक्रेसी'। इनकी रचनाओं का अनुवाद विश्व की तमाम भाषाओं में हुआ है। इनकी रचनाओं के आधार पर अनेक नाटकों का मंचन और फिल्मों का निर्माण हो चुका है।
यूरी पलिकोफ़ अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कोष के अध्यक्ष हैं। वे रूसी पेन सेंटर के सदस्य हैं और दस्तोयव्स्की कोष की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी हैं। १९९० से २००१ तक वे रूसी लेखक संघ के संचालन मंडल के सदस्य रहे। वे स्वतंत्र लेखक संघ के संस्थापक सदस्य हैं। यूरी पलिकोफ रूस के राष्ट्रपति द्वारा संचालित संस्कृति कला परिषद और नागरिक समाज व मानवाधिकार संस्थानों के विकास में सहयोग देने वाली परिषद के सदस्य हैं। उन्हें अनेक साहित्यिक पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

रवील रईसाविच बुख़ाराएव
रूसी कवि, कथाकार, पत्रकार, अनुवादक, नाटककार तथा रूसी और तातारी कवियों के अनेक कविता-संकलनों के संपादक रवील बुख़ाराएव का जन्म १९५१ में रूस के कज़ान नगर में हुआ। १९७४ में कज़ान विश्वविद्यालय की मैकेनिकल-मैथमैटिक्स फैकल्टी से एम.ए. करने के बाद रवील बुख़राएव ने १९७७ में मास्को राजकीय विश्वविद्यालय की साइबरनेटिक्स फैकल्टी में पीएच.डी. की।
रवील १९९० से इंग्लैंड में रहते हैं और बी.बी.सी. के रूसी विभाग में प्रोड्यूसर हैं। इन्होंने १९६९ में लिखना आरंभ किया। 'डाल पर लटका सेब' इनकी पहली किताब थी जो १९७७ में कज़ान में प्रकाशित हुई। भारत-यात्रा के बारे में इनका एक उपन्यास 'यह राह कहाँ को जाती है, जानता है खुदा' १९९६ में बुकर पुरस्कार की दौड़ में शामिल रहा। १९९९ में फिर यही उपन्यास 'सेवेरनाया पलमीरा' पुरस्कार की अंतिम शार्ट-लिस्ट में शामिल रहा।
रवील बुख़ाराएव के अब तक १२ कविता-संग्रह और दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी पाँच काव्य-नाटिकाओं का थियेटर में मंचन हो चुका है। वे अनेक डाक्यूमेंट्री टेलिफ़िल्मों के निर्देशक हैं। आज के रूस की अर्थव्यवस्था, राजनीति और इतिहास के बारे में उनकी अनेक पुस्तकें हैं। अंग्रेज़ी में भी वे इतिहास संबंधी अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। रवील बुख़ाराएव तातार कवियों की कविताओं के अनुवादक हैं और अंग्रेज़ी में उनकी एक एनथोलौजी प्रस्तुत कर चुके हैं। वे खुद भी रूसी, तातारी, अंग्रेज़ी और हंगारी भाषाओं में कविता लिखते हैं। 'मंत्रमुग्ध राजधानी' (१९९४), 'प्याले के लिए प्रार्थना' (२००३) और 'सफ़ेद मीनार' (२००६) उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं। रूसी साहित्यिक पत्रिकाओं के वे नियमित रचनाकार हैं।
रवील बुख़ाराएव हंगरी पेन-क्लब और अमरीकी पेन-क्लब के सदस्य हैं और भारत की अखिल-विश्व कला और संस्कृति अकादमी के मानद सदस्य हैं।

लीदिया निकालायेव्ना गियोर्येवा
कवि, निबंधकार, संस्कृतिविद् लीदिया ग्रिगोर्येवा का जन्म उक्राइना में हुआ। १९६९ में लीदिया ने कज़ान राजकीय विश्वविद्यालय के इतिहास और भाषा संकाय से एम.ए. की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे पत्रकार रहीं, स्कूल में अध्यापिका रहीं और रेडियो की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा में साहित्यिक कार्यकमों की रचयिता और प्रस्तोता रहीं।
लीदिया ग्रिगोर्येवा की पहली कविता-पुस्तिका थी- 'प्रीमेती व्येका' (शताब्दी के चिन्ह), जो १९७८ में प्रकाशित हुई। तब से अब तक इनके रूस में और विदेशों में दस कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें काव्य-उपन्यासिका 'मिलने-जुलने वाले' (१९८८) के अलावा 'प्रेम का अकाल' (१९९२), रूसी, जापानी और अंग्रेज़ी भाषाओं में कविताओं का चयन (१९९५), 'पागल माली' (१९९९), 'बगीचे की देखभाल' (२००१) और 'लोग गरीब नहीं हैं (२००२) आदि उल्लेखनीय हैं।
लीदिया गिगोर्येवा का कविता संग्रह 'पवित्र संत' सन २००७ में बूनिन पुरस्कार के लिए शार्ट-लिस्ट में शामिल रहा। लीदिया ग्रिगोर्येवा ने 'लंदन में स्वेतायेवा', 'लंदन में गुमिल्योफ', 'लंदन में स्क्रयाबिन' 'वेरा पाव्लव्ना के सपने' 'लंदन गाँव' आदि डाक्यूमेंट्री फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखी हैं।
लीदिया गिगोर्येवा एक चर्चित अनुवादिका भी हैं और इन्होंने अनेक सोवियत भाषाओं के कवियों की कविताओं का रूसी में अनुवाद किया है। वे अनेक अंतर्राष्ट्रीय लेखक सम्मेलनों और गोष्ठियों में तथा विश्व कविता सम्मेलनों में भाग ले चुकी हैं। इनकी कविताएँ जापानी, चीनी, अंग्रेज़ी, हंगारी, स्लोवाकियाई, चेक, फ्रांसिसी, जर्मन, अरबी और अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। इन्होंने फोटो-कविता के नाम से कविता में एक नई परियोजना शुरू की है, जिसकी प्रस्तुति रूस में और अन्य देशों में सफलतापूर्वक संपन्न हुई। लीदिया ग्रिगोर्येवा अंतर्राष्ट्रीय पेन क्लब की सदस्य हैं।

विचिस्लाव ग्लेबाविच कुप्रियानाफ
कवि, कथाकार और साहित्यिक अनुवादक विचिस्लाव कुप्रियानफ़ का जन्म १९३९ में नवासिबीर्स्क नगर में हुआ। १९५८ से १९६० तक वे लेनिनग्राद के उच्च नौसेना कॉलेज में हथियार इंजीनियरिंग की शिक्षा लेते रहे। फिर १९६७ में उन्होंने मास्को विदेशी भाषा संस्थान के अनुवाद संकाय से एम.ए. किया। लंबे समय तक वे खुदोझेस्तविन्नया लितरातूरा' (ललित साहित्य) प्रकाशन गृह के लिए अनुवाद और संपादन का कार्य करते रहे। फिर सोवियत लेखक संघ में कार्यरत रहे। इसके अलावा राष्ट्रीय किशोर पुस्तकालय द्वारा आयोजित 'लाल परचम' साहित्य-सभा के संयोजक रहे।
विचिस्लाव कुप्रियानफ ने छात्र जीवन से ही अनुवाद करना शुरू कर दिया था। सबसे पहले उन्होंने रेनर मारिया रिल्के की कविताओं का मूल जर्मन से रूसी भाषा में अनुवाद किया। इसके अलावा सीधे जर्मन, अंग्रेज़ी, फ्रांसिसी और स्पानी भाषाओं से 'ललित साहित्य' प्रकाशन गृह के लिए उन्होंने दर्जनों कवियों की ढेरों पुस्तकों के अनुवाद किए। अरमेनियाई, लातवियाई, लिथुआनियाई तथा एस्तानियाई लेखकों की रचनाओं का भी रूसी में अनुवाद किया।
१९६१ में विचिस्लाव कुप्रियानफ़ की कविताएँ पहली बार प्रकाशित हुईं। १९७० से वे गद्य भी लिखने लगे। १९८१ में उनका पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था- 'सीधे-सीधे'। आलोचकों ने बड़े जोश-खरोश से इस किताब का स्वागत किया। जल्दी ही सभी यूरोपीय भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद छपने लगे। हिंदी की पत्रिकाओं में सबसे पहले १९८४-८५ में अनिल जनविजय ने और फिर १९९० के आसपास वरयाम सिंह ने कुप्रियानफ़ की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित कराएँ। श्रीलंका में इनकी कविताओं की एक पुस्तक तमिल भाषा में प्रकाशित हो चुकी है। अब तक तीस से ज़्यादा भाषाओं में विचिस्लाव कुप्रियानफ़ की कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। कुप्रियानफ़ को रूसी आलोचक रूस में छंद रहित नई कविता का प्रवर्तक मानते हैं।
अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में बेहद चर्चित रहने वाले कुप्रियानफ़ के अन्य कविता-संग्रह हैं- २००२ में प्रकाशित 'दाइचे दागवारित्च' (पूरी बात को कहने दीजिए) और २००३ में प्रकाशित 'लूचशिए व्रेमिना' (बेहतर समय)। विचिस्लाव कुप्रियानफ़ रूस में कविता-महोत्सवों के आयोजक के रूप में भी जाने जाते हैं।

सर्गेय इवानोविच चुप्रीनिन
साहित्यविद, आलोचक, टीकाकार और उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के लेखकों की रचनाओं के संकलनकर्ता और संस्कृति के वाहक सेर्गेय चुप्रीनिन का जन्म १९४७ में अर्खान्गेल्स्क प्रदेश के वेल्स्क नगर में हुआ। १९७१ में रस्तोफ विश्वविद्यालय के भाषा संकाय से एम.ए. करने के बाद इन्होंने सोवियत विज्ञान अकादमी के विश्व साहित्य संस्थान से १९७६ में पीएच.डी. की और फिर १९९३ में भाषाशास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। १९९९ से सेर्गेय चुप्रीनिन प्रोफेसर हैं।
दिसंबर १९९३ से चुप्रीनिन 'ज़्नामया' (परचम) नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं। इसके साथ-साथ ने गोर्की साहित्य संस्थान में तत्याना बेक के साथ मिलकर सन २००५ तक नए कवियों के लिए कविता के सेमिनार आयोजित करते रहे। १९६९ से सर्गेय चुप्रीनिन के आलोचनात्मक लेख केंद्रीय पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। अलेक्सांदर कुप्रीन, निकालाय उस्पेन्स्की, प्योत्र बबरीकिन, व्लास दराशेविच और निकालाय गुमिल्योफ जैसे लेखकों की रचनावलियों के टीकाकार और संकलनकर्ता के रूप में भी सेर्गेय चुप्रीनिन ने काफी नाम कमाया है।
'सुनो साथियो, वारिसो!... रूसी सोवियत जनकविता' (१९८७), 'रूसी लेखकों की रचनाओं में बीसवीं शताब्दी के शुरू का मास्को' (१९८८), '१९५३ से १९५६ के बीच सोवियत रूसी साहित्य की रचनाएँ' (१९८९) भी इनकी उल्लेखनीय पुस्तकें हैं। इनकी अन्य पुस्तकें हैं- 'आलोचना तो आलोचना है' (१९८८), 'नया रूस और साहित्य की दुनिया' (२००३) और 'आज का रूसी साहित्य- एक मार्गदर्शिका' (२००७)। सेर्गेय चुप्रीनिन की रचनाएँ अंग्रेज़ी, बल्गारी, डच, चीनी, जर्मन, पोलिश, फ्रांसिसी और चेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। सेर्गेय चुप्रीनिन रूसी पेन सेंटर के सदस्य हैं और बहुत से पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। इसके अलावा वे स्वयं भी कई पुरस्कारों के संयोजक और उनके निर्णायक मंडलों में शामिल हैं।

सेर्गेय वसिल्येविच लुक्यानेन्का
फैंटेसी कथा लेखक सेर्गेय लुक्यानेन्का का जन्म १९६८ में हुआ। उन्होंने अल्मा-अता मेडिकल इंस्टीट्यूट में डॉक्टरी की पढ़ाई की और फिर मानसिक रोग चिकित्सा का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे अल्मा-अता से प्रकाशित होने वाली फैंटेसी पत्रिका 'लोक' के सहायक संपादक रहे। सेर्गेय लुक्यानेन्का की पहली फैंटेसी कथा 'नरुशेनिए' (अतिक्रमण) १९८७ में अल्मा-अता की 'ज़ार्या' (प्रभात) पत्रिका में प्रकाशित हुई। पहली पुस्तक 'आतम्नी सोन' (एटमी सपना) १९९२ में प्रकाशित हुई।
१९९३ से सेर्गेय लुक्यानेन्का ने लेखन को अपना मुख्य पेशा बना लिया। सेर्गेय लुक्यानेन्का के अनुसार उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- 'एटमी सपना', 'पतझर के आगंतुक', 'ठंडे तट' और 'स्पेक्ट्रम' (विविधता)। 'नचनोय दज़ोर' (रात के प्रहरी)- सेर्गेय लुक्यानेन्का का बेहद चर्चित और लोकप्रिय उपन्यास रहा। फिर इन्होंने 'दिन के प्रहरी' उपन्यास में उसी विषय को आगे बढ़ाया। लुक्यानेन्का की रचनाओं पर रूस में बहुत से सीरियल बने हैं। लेखन की अपनी शैली को सेर्गेय लुक्यानेन्का 'क्रूर कार्रवाइयों की फैंटेसी' या 'रास्ते की फैंटेसी' कहते हैं।
सेर्गेय लुक्यानेन्का की रचनाएँ विश्व की २० से अधिक भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। इनकी पच्चीस लाख किताबें प्रतिवर्ष बिकती हैं। इनकी रचनाओं का अनुवाद सबसे पहले भारत में किया गया था। तब १९९१ में 'स्पुतानिक कवेस्ट' पत्रिका ने इनकी कहानी 'वन में छिपा नीच दुष्मन' प्रकाशित की थी। सेर्गेय लुक्यानेन्का को बहुत से साहित्यिक पुरस्कार मिल चुके हैं।

अलेक्सान्द्र अब्रामोविच कबकोव
अलेक्सान्द्र कबकोव रूसी लेखक और पत्रकार हैं। उनका जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान १९४३ में नोवोसिबीर्स्क में हुआ, जहाँ सरकार ने उनकी माँ को युद्ध से बचाकर प्रसूति के लिए भेज दिया था। कबाकोव ने उक्राइना के द्नेप्रोपेत्रोव्स्क विश्वविद्यालय की मैकेनिकल-मैथमैटिक्स फ़ैकल्टी से एम.एससी. किया। उसके बाद वे इंजीनियर रहे और फिर पत्रकारिता करने लगे।
उन्होंने समाचार पत्र 'गुदोक' (भोंपू), साप्ताहिक पत्र 'मास्को न्यूज़' और पत्रिका 'नए गवाह' में काम किया। आजकल वे 'कोमेरसान्त' (व्यवसायी) नामक प्रकाशन गृह में काम करते हैं। अब तक वे समीक्षक, विशेष संवाददाता और सहायक संवाददाता के पद पर रह चुके हैं।
अलेक्सान्द्र कबकोव १९७५ से लिख रहे हैं लेकिन १९८९ में वे अपने एंटीयूटोपियाई उपन्यास 'अनागत' (नेवोज़्व्रशेनेत्स) से चर्चा में आए। इनकी प्रमुख रचनाओं में 'अनागत', 'किस्सागो', 'असली आदमी की मास्को और अन्य अकल्पनीय जगहों की यात्रा', 'अंतिम नायक', 'बहुरूपिया', 'एक्स्ट्रापोलेटर की यात्रा' (वैज्ञानिक पैगंबर की यात्रा), 'पलायन', 'सब ठीक कर दिया जाएगा' तथा 'मास्को की कथाएँ' आदि शामिल हैं।
'अनागत' उपन्यास का सभी यूरोपीय भाषाओं और जापानी व चीनी भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन हो चुका है। यह उपन्यास अमरीका में भी प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा 'चोट पर चोट' उपन्यास जर्मनी में तथा 'किस्सागो' उपन्यास जापान में प्रकाशित हुए हैं। अलेक्सान्द्र कबकोव के उपन्यासों के आधार पर 'अनागत' और 'दस वर्ष की सज़ा' के नाम से फ़िल्मों का निर्माण हो चुका है। इन्हें २००६ में रूस का राष्ट्रीय स्तर का 'बोलशाया क्नीगा' (बड़ी किताब) नामक प्रतिष्ठित पुरस्कार और अन्य कई साहित्यिक पुरस्कार मिल चुके हैं।

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