Monday 8 July 2013

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा (5-अंतिम)


ओमा शर्मा

फ्रायड का साथ और वे स्याह दिन 

माहौल कितना ही गमगीन हो, किसी बडे शख्स से उदात्त नैतिक फलक पर बात करने से दिल को सुकून मिलता है और मन मजबूत हो सकता है. युद्ध से पहले, सिगमंड फ्रायड के साथ बिताये उन यादगार दोस्ताना घंटों ने मुझे यह खुशनसीबी मुहैया करवा दी. हिटलर के वियना में खट रहे उस तिरासी वर्षीय अपाहिज का खयाल कई महीने से मेरे दिमाग में चकरघिन्नी कर रहा था आखिर में राजकुमारी मारिया बोनापार्ट (उसकी सबसे वफादार शार्गिद) इस मनुष्य-श्रेष्ठ को, दमित वियना से निकाल लंदन ले जाने में कामयाब हो गयी1. उस दिन को मैं अपनी जिन्दगी के खुशी के दिनों में शुमार करता हूं जिस रोज मैंने अखबार में पढा कि वे आ गये हैं. मौत के मुँह से लौटे अपने इस परम आदरणीय मित्र को मैं तो कब का खोया हुआ मान बैठा था.
जिस शख्स ने इन्सान की रूह के बारे में हमारे ज्ञान को, दौर में किसी और की बनिस्बत ज्यादा वृहत्तर और गहरा किया, उस महान और सादगी भरे शख्स, सिगमंड फ्रायड के साथ मेरा वियना के उन दिनों से उठना-बैठना था जब उसकी अभी पैमाइश ही की जा रही थी एक अक्खड और दुरूह बौद्धिक इक्लखुरे के रूप में तब उनका विरोध होता था. तमाम सत्यों की सीमाओं से पूरा चैतन्य होते हुए भी वे सत्य के मुरीद थे (एक बार उन्होंने मुझसे कहा ''परम सत्य तक पहुँचना परम शून्य तापक्रम हासिल करने की तरह ही असम्भव है''). सहजवृत्ति के भीतर-बाहर अभी तक के अछूते और निषिद्ध क्षेत्रों में (वही जिन पर दौर ने पावन प्रतिबन्ध लगा रखा था) साहसिक ढंग से हाथ ड़ालने की अपनी निर्विकार आदत के कारण उन्होंने विश्वविद्यालय और उसके अकादमिक आकाओं को अपने से अलग-थलग कर लिया था. आशावादी, उदारवादी दुनिया को अनजाने ही यह लगने लगा कि इस हठीले आदमी का सुभाषित मनोविज्ञान तो सहजवृत्ति को 'तर्क' और 'तरक्की' के मार्फत आहिस्ता-आहिस्ता दबाने-ढकने की उनकी अवधारणा को ही फिजूल करके रख देगा. सहजवृत्ति में जो चीजें खटकती हैं, उन्हें नजरअन्दाज करने के उनके तरीके को वह हर हालत में उभारने-उजागर करने की अपनी तरकीब से चुनौती दे रहा था मगर सिर्फ विश्वविद्यालय या पुरातनपंथी तंत्रिका-विशेषज्ञों (न्यूरोलोजिस्ट्स) का ही गुट नहीं था जो कबाब की हड्डी बने इस ''आउटसाइडर'' का विरोध कर रहा था, बल्कि गये जमाने की सोच, ''मर्यादा'' और पूरी दुनिया ने ही उनके खिलाफ मोर्चा खड़ा कर रखा था. पूरे दौर को ही डर था कि वह उन्हें बेपर्दा कर देगा. डॉक्टरी बहिष्कार के कारण धीरे-धीरे उनका कारोबार2 घटने लगा. मगर उनकी अवधारणाएँ और साहसपूर्ण सिध्दान्त चूँकि वैज्ञानिक तरीके से अखंडनीय थे तो सपनों के बारे में बनाये उनके सिध्दान्त को, वियना के चलन के मुताबिक, उन्होंने व्यंग्योक्ति या सस्ती नुक्क्ड ठिठोली के सहारे रफा-दफा करने की कोशिश की. इस तन्हा शख्स के घर चन्द वफादार लोगों के एक गुट की हफ्ते में एक बार बैठक होती थी. उन्हीं शामों के विमर्श में मनोविश्लेषण का एक नया विज्ञान आकार लेता था फ्रायड के शुरूआती आधारभूत श्रम से धीमे-धीमे निकलने वाले बौध्दिक आन्दोलन के निहितार्थों को समझने से बहुत पहले मैं इस बेमिसाल शख्स की नैतिक ताकत और मेहनत का लोहा मान चुका था. उनमें मुझे किसी नौजवान की कल्पनाओं में बसा विज्ञान का ऐसा चितेरा नजर आता था जिसे बिना सच्चे सबूत के कुछ भी बोलना गवारा नहीं था. मगर अपनी अवधारणा की प्रामाणिकता के बारे में एक बार यदि वह आश्वस्त हो जाये तो फिर पूरी दुनिया के विरोध को ठेंगा दिखा दे. एक ऐसा इन्सान जिसकी निजी तौर पर एकदम मामूली जरूरतें थीं मगर अपने रचे सिद्धान्तों के एक-एक कतरे के लिए अपनी जान पर खेल जाये, उनके अन्तरनिहित सत्य से ताउम्र बन्धा रहे बौद्धिक रूप में उनसे ज्यादा निर्भीक इन्सान अकल्पनीय था जो वह सोचते हमेशा उसी को कहने की हिम्मत करते थे, चाहे पता हो कि उनकी सीधी सपाट बात किसी को खराब लगेगी या अखरेगी. औपचारिक रियायतों में भी उन्हें कभी पगडंडियों की तलाश नहीं होती. मुझे पक्का यकीन है कि अपने विचारों को फ्रायड थोडी सावधानी से परोसने को राजी हो जाते जैसे ''लैंगिकता'' (सेक्सुअलटी) की जगह ''कामुकता'' (इरोटिसिज्म), ''कामलिप्सा'' (लिबीडो) की जगह ''श्रृंगार'' (इरोज) का इस्तेमाल करते और हमेशा अपने निष्कर्षों से चिपके रहने की जिद के बजाय उनकी तरफ इशारा-भर करते, तो उनकी अस्सी फीसदी उपपत्तियों को किसी भी अकादमिक संस्था के समक्ष बेहिचक पेश करना सम्भव हो जाता मगर सिद्धान्त और सत्य की बात आते ही वह जिद पकड लेते विरोध जितना ज्यादा, उनका हौसला उतना ही बुलन्द. मैं अगर नैतिक साहस के एक प्रतीक को खोजने चलूँ ऐसा सांसारिक नायकत्व जो केवल अकेले ही सम्भव है तो मेरे सामने टकटकी लगी थिर, कजरारी आँखोंवाले फ्रायड का ही सुन्दर, पौरूषपूर्ण निष्कपट चेहरा नजर आता है.अपनी जन्मभूमि, जिसे पूरी दुनिया में उन्होंने हमेशा के लिए मशहूर करवा दिया था, से पलायन कर लंदन आते समय वे काफी बूढे हो चले थे काफी बीमार भी थे लेकिन थके-माँदे या ढुलमुल हर्गिज नहीं.
मैंने मन ही मन सोचा था कि वियना में झेली तमाम पीड़ा-प्रताडना ने उन्हें निराशा और कडवाहट से भर दिया होगा. मगर वे मुझे पहले से भी कहीं ज्यादा खुश और खुले-खुले नजर आये वे मुझे लंदन के सीमाने पर बने अपने घर के बगीचे में ले गये और चमकती हँसी बिखेरकर बोले ''क्या मेरे पास इससे बढिया घर कभी था?'' उन्होंने मुझे मिस्र की अपनी वे प्रिय मूर्तियाँ3 दिखायीं जो मारिया बोनापार्ट की बदौलत छुडवायी गयी थीं. ''यह भी तो घर है'' उनकी मेज पर बंडल बँधे कागजों की एक पांडुलिपि रखी थी जिसे तिरासी बरस की उम्र में, अपनी जानी-पहचानी साफ वर्तुल लिखावट में वे हर रोज लिखते थे. आला दिनों के अपने जेहन की तरह ही लकालक और चुस्त बीमारी4, उम्र और कैद को धता बताता उनका मनोबल इन सब चीजों पर इक्कीस पडता था. बरसों की जद्दोजहद से भोंथरी हुई उनकी रहमदिली पहली बार उनके वजूद से खुलकर रिसने लगी थी. उम्र ने उन्हें और नरम दिल कर दिया था इम्तहानों की आँच झेल-झेलकर वे और ज्यादा सहनशील हो गये थे. किसी जमाने में वे मितभाषी थे मगर अब वे अपने जाने-पहचाने अन्दाज में बतियाते अपने बाजू को वे मेरे कन्धे पर टिका देते चश्मे के भीतर से ही उनकी नजरों की चमक और प्रखर हो उठती. गुजरे बरसों के दौरान फ्रायड के साथ हुई गुफ्तगू मुझे हमेशा सुकूनदेह लगती रही थी. उनसे सीखने में भी क्या खूब मजा आता था यह निर्मल विराट आदमी आपके कहे एक-एक शब्द को गले उतारता उनके साथ आप मन का कुछ भी बाँट लो, कुछ भी कह दो, वे न चौंकते न हडबड़ाते दूसरे लोग बेहतर ढंग से चीजों को समझ सकें, महसूस कर सकें, यही उनकी जिन्दगी की चाहत बन गयी थी मगर उस स्याह बरस (जो उनकी जिन्दगी का आखिरी5 था हुई बातचीत की नायाबी का मैं खास तौर से एहसानमन्द था उनके कमरे में घुसते ही लगता जैसे दुनिया का सारा पागलपन तिरोहित हो गया हो हर घोर-दारूण चीज छिन्न-भिन्न होने लगती परेशानी खुद-ब-खुद छँटने लगती बची रहती तो बस मुद्दे की बात किसी वास्तव के महात्मा से यह मेरा पहला साबका था वे अपने से भी बडे हो गये थे दुख या मृत्यु उनके लिए निजी अनुभव की चीज नहीं बल्कि निरीक्षण और चिन्तन का निजतम माध्यम बन गयी थी उनके जीवन की तरह उनकी मृत्यु भी कोई कम बड़ा नैतिक हासिल नहीं थी वे पहले ही उस बीमारी से बुरी तरह पीडित थे जिसने जल्द ही उन्हें हमसे छीन लिया उन्हें देखने से ही लगता था कि मुँह में लगे कृत्रिम तालू से उन्हें बोलने में कितना कष्ट होता है. उनके बोले हर लफ्ज पर हम शर्मसार से हो उठते क्योंकि इससे उन्हें थकान होती थी. मगर वे किसी को खाली नहीं जाने देते अपनी फौलादी रूह के गर्व से, दोस्तों के बीच वे इस बात की मिसाल थे कि शारीरिक कष्टों के मुकाबले उनकी संकल्प शक्ति कहीं ज्यादा ताकतवर थी. दर्द से उनका मुँह विकृत हो जाता. आखिरी दिनों तक वे अपनी डेस्क पर बैठकर लिखते रहे. दर्द ने जब रात की उनकी नींद हराम कर दी वह खूब गहरी नींद जो अस्सी बरस तक उनकी ताकत का प्रमुख जरिया थी, तब भी नींद की गोलियाँ या नशीली दवाएँ लेना उन्हें गवारा नहीं हुआ. पल भर के लिए भी अपने दिमाग की प्रांजलता को वे ऐसे उपचारों से शिथिल नहीं होने देना चाहते थे. चौकन्ना रहने पर दर्द होता है तो हो. कुछ न सोचने की बजाये दर्द बर्दाश्त करते हुए सोचना मन्जूर. मन के आखिरी कतरे तक जांबाज उनका संघर्ष बड़ा विकराल था जो दिनोंदिन और भव्य होता जा रहा था. उनके चेहरे पर मौत की परछांई हर रोज गहराती जा रही थी. गाल पोपले हो गये थे कनपटियाँ पिचक आयी थीं मुँह टेढा पड ग़या होंठों से बोल निकलने में तकलीफ होती बस आँखों की पुतलियाँ ही थीं जिनके सामने मौत बेबस थी और यही वह अविजेय स्तम्भ था जहाँ से वह सिद्ध दिमाग दुनिया पर नजर फेरता था. उनसे हुई अपनी किसी आखिरी मुलाकात में मैं सल्वाडोर ड़ाली6 को अपने साथ ले गया जो मेरे खयाल से युवा पीढी क़ा सबसे प्रतिभासम्पन्न चित्रकार हैं. फ्रायड का बहुत मुरीद मैं जब फ्रायड से बोल-बतिया रहा था तो वह उनका रेखांकन करता रहा. उस रेखांकन को फ्रायड को दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि बडी अलोकदर्शिता से उसने चित्र में मृत्यु भी दिखा दी थी.
हमारे वक्त के इस कुशाग्र मस्तिष्क की पुख्ता संकल्प-शक्ति का विनाश के विरूद्ध संघर्ष और ज्यादा क्रूर होता गया. जब उन्हें अच्छी तरह एहसास हो गया (स्पष्टता उनकी सोच का सबसे बड़ा गुण थी) कि अब वे न लिख पायेंगे और न कुछ दूसरा काम कर सकेंगे तो, एक रोमन योद्धा की तरह दर्द से निजात के लिए उन्होंने डॉक्टर को इजाजत दे दी7. एक गौरवपूर्ण जीवन का यह एक गौरवपूर्ण पटाक्षेप था. उस खूनी वक्त में हो रहे जन-संहारों के बीच भी यह एक यादगार मौत थी. हम दोस्तों ने उनका ताबूत जब इंग्लैंड की मिट्टी को सौंपा तो हम जानते थे कि अपने वतन के मुताबिक जो हमसे हो सकता था, हमने किया है.
हिटलर की दुनिया के संत्रास और युद्ध को लेकर उन दिनों अकसर मेरी फ्रायड से बातें होतीं. एक मानवतावादी के तौर पर पाशविकता के प्रस्फोट ने उन्हें गहरे दहलाया था मगर एक विचारक के तौर पर वे कतई हैरान नहीं थे, बताने लगे कि उन्हें हमेशा निराशावादी कहकर फटकारा जाता रहा क्योंकि सहजवृत्ति के ऊपर संस्कृति के आधिपत्य का उन्होंने खंडन किया था. मगर उनके इस विचार की बडे ख़ौफनाक ढंग से पुष्टि हो गयी थी कि आदमी के भीतर की बर्बर और मूलतः विनाशकारी वृत्तियों को उखाडक़र नहीं फेंका जा सकता है और ऐसा भी नहीं था कि अपने को सही साबित करने में उन्हें कोई संतोष मिलता था. कम-से-कम लोगों की आम चिन्ताओं के मद्देनजर, आने वाली सदियाँ शायद उन वृत्तियों पर काबू पाने का कोई फार्मूला निकाल लें मगर रोजमर्रा के जीवन और आदमी के भीतर यही सहजवृत्तियाँ पैठी रही हैं, हो सकता है उनकी कोई उपयोगी भूमिका भी हो. यहूदी समस्या और उसकी हाली दुर्दशा से उन दिनों वे और भी परेशान रहते थे मगर उनके विज्ञान के पास इसका कोई फार्मूला नही था. उनके सुलझे दिमाग को इसका कोई समाधान नहीं दिखता था. कुछ दिनों पहले ही मोजेस8 पर लिखी उनकी किताब छपी थी जिसमें उन्होंने उसे एक गैर¬यहूदी मिस्रवासी की तरह पेश किया था. इस कारण धार्मिक यहूदियों और राष्ट्रवादी विचार रखने वाले लोगों में उनकी वैज्ञानिक उपादेयता के प्रति शंकाएँ और भडक़ उठी थीं. यहूदियत के सबसे दारूण वक्त के दौरान ही वह किताब छपवाने पर उन्हें अफसोस होने लगा था. ''उनकी हर चीज छीनी जा रही है तो मुझे भी उनका सबसे आला आदमी लेना पड़ा''. उनकी इस बात से मेरा पूरा इत्तफाक था कि उस मोड पर हर एक यहूदी की सम्वेदना सात गुनी बढ ग़यी थी क्योंकि दुनिया में हो रही तबाही का हर तरफ से असली शिकार तो वही थे. विनाश से पहले ही मारे-मारे फिर रहे उन लोगों को खबर थी कि अनिष्ट चाहे कुछ भी हो, सबसे पहले गाज उन्हीं पर गिरेगी (और वह भी सात गुनी ताकत से). नफरत की सनक से सना एक आदमी खासकर उन्हीं का मान-मर्दन करना चाहता है, उन्हें उजाडक़र दुनिया से नेस्तनाबूद कर देना चाहता है. हर सप्ताह और महीने, शरणार्थियों की तादाद बढने लगी. उनका हर जत्था पिछले की तुलना में और ज्यादा दरिद्र और भयाकुल होता. जिन लोगों ने आनन-फानन में ही जर्मनी और ऑस्ट्रिया को छोड दिया था, वे तो फिर भी अपने साथ कुछ लत्ते-कपडे और घर-बार का माल-सामान ले आये थे, कुछ लोग रोकड़ा भी बचा लाये थे मगर जिन लोगों ने जर्मनी पर जितनी ज्यादा देर भरोसा किया, खुद को अपनी प्यारी जन्मभूमि से छिटकने में जितनी ज्यादा अनमन की, उसे उतनी ही ज्यादा सख्त सजा भुगतनी पडी. यहूदियों को पहले उनके काम-काज से बेदखल किया गया. थिएटर, सिनेमाघर और संग्रहालयों के दरवाजे उनके लिए बन्द हो गये. उनके पढे-लिखे लोगों की लाइब्रेरियाँ हराम हो गयीं वे फिर भी रूके रह गये थे तो केवल अपनी वफादारी, सुस्ती, बुजदिली या शान के कारण परदेश में भिखारियों की तरह अपने को बेइज्जत कराने से अच्छा उन्हें यही लगा कि अपनी ही धरती पर बेइज्जत हों. वे नौकर-चाकर नहीं रख सकते थे. उनके घरों से रेडियो-टेलिविजन छीन लिये गये और बाद में घरों को ही छीन लिया गया. उन्हें डेविड का स्टार9 पहने रहना होता ताकि उन्हें अलग से पहचाना जा सके, कोढियों की तरह उनसे बचा जा सके, उनकी खिल्ली उड़ायी जा सके, उन्हें दुत्कारा-फटकारा जा सके. उनका हर हक छीन लिया गया. हर तरह की मानसिक और शारीरिक क्रूरता उन पर बडे चुहुल परपीडन से आजमाई जाती. ''भिखारी की गठरी और जेल से कोई बच न पायेगा''.यह पुरानी रूसी कहावत अचानक ही हर यहूदी का क्रूर सत्य बन गयी जो कोई वहाम् से नहीं गया, उसे यातना शिविर में झोंक दिया गया, जिसका जर्मन अनुशासन ऊँची से ऊँची नाकवाले की भी कमर तोड ड़ालता. उसके बाद सब तरफ से लुटे-पिटों को बिना कुछ सोचे सीमा के बाहर खदेड दिया जाता उनकी कमर पर लदी होती एक अटैची और जेब में होते दस क्राउन वे दूतावासों पर गुहार करते मगर हमेशा खाली हाथ लौटते क्योंकि रग-रग तक लुटे-पिटे नवागंतुकों, भिखारियों को कौन देश घास ड़ालता? लंदन की एक ट्रेवल ब्यूरो में दिखे एक नजारे को मैं कभी नहीं भूल पाता. वहाँ शरणार्थियों का ताँता लगा था तकरीबन सारे यहूदी हरेक को जाने की पडी थी, जगह चाहे कोई हो सहारा के टुंड्रा प्रदेश से लेकर धु्रवीय शीत प्रदेश, कुछ भी चलेगा बस दूसरा प्रदेश हो, वे कहीं भी जाने को तैयार क्योंकि कामचलाऊ वीजा की म्याद खत्म हो जाने के बाद उन्हें अपने बीवी-बच्चों को लेकर कहीं तो जाना था जहाँ दूसरी जुबान बोली जाती थी उन लोगों के बीच जो उन्हें जानते तक नही और जो उन्हें अपनाने को राजी नहीं वहाँ मुझे वियना से आया एक समय खूब समृद्ध रहा उद्योगपति मिला. कभी वह हमारा एक समझदार कला संग्रहक हुआ करता था. वह इतना बूढा, भदैला और मरियल लग रहा था कि पहले तो मैं उसे पहचान ही नहीं पाया. निस्तेज हाथों से वह मेज से सटा पड़ा था. मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रहा है तो उसने कहा ''पता नहीं इन दिनों हमारी मर्जी को पूछता कौन है जहाँ जगह मिल जायेगी, चले जायेंगे. कोई बता रहा था कि यहाँ से मुझे शायद हैटी10 या सेन डोमिनगो का वीजा मिल जाये'' एक पल को तो मेरा दिल बैठ गया अपने पोतों-परपोतों को साथ लिये एक निचुड़ा-मुचड़ा बुढऊ दिल थामकर किसी ऐसे देश जाने की उम्मीद कर रहा है जिसे कल तक वह नक्शे में नहीं ढूँढ सकता था और वह भी किसी अजनबी की तरह बेमकसद भटकने और भीख माँगने के लिए. उसके बगलगीर ने बडी ज़िज्ञासु हताशा में पूछा कि शंघाई कैसे जाया जाये क्योंकि उसे खबर लगी थी कि शरणार्थियों के लिये चीन के दरवाजे अभी भी खुले थे. अभी तक रहे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, बैंकर्स, कारोबारी, जमींदार, संगीतकार वहाँ सभी का जमघट था. अपने अस्तित्व के दयनीय घूरे को जल-थल में कहीं भी घसीटने को तत्पर मगर जाना बाहर है, यूरोप के बाहर बड़ा दारूण जमघट था मगर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही थी कि ये पचासेक पीडित तो पीछे आ रहे पचास-सौ लाख लोगों के हुजूम की चोंच भर हैं जो आगे चलने के लिए पीछे कहीं तंबू ताने पडे होंगे. वे बेशुमार लोग जिन्हें पहले लूटा गया, फिर युद्ध ने रौंदा वे जो आस लगाये थे कि धर्मार्थ संस्थाएँ कुछ मदद कर देंगी, अधिकारिक परमिट मिल जायेंगे और गुजारा करने का जुगाड बैठ जायेगा. हिटलरी जंगली आग से बचने के लिए लोगों का हुजूम बदहवास भागे जा रहा था. हर यूरोपिय सरहद के रेलवे स्टेशन खचाखच हो गये, जेलें भर गयीं. यह निष्कासित जाति वही थी जो किसी राष्ट्रीयता से वंचित थी मगर एक ऐसी जाति जिसने दो हजार वर्ष, दर-बदर की भटकन रोकने से ज्यादा और कुछ नही माँगा ताकि वह इस धरती पर अमन-चैन से बसर कर सके.
बीसवीं सदी की इस यहूदी त्रासदी की सबसे त्रासद बात यह थी कि इसके भुक्तभोगी जानते थे कि इसकी कोई तुक नहीं है और वे बेकसूर हैं. मध्यकाल में उनके दादों-परदादों को कम से कम यह खबर तो थी कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है. उनकी आस्था के लिए, उनके कानून के लिए उनके पास अपनी आत्मा का वह ताबीज यानी उन्हें अपने भगवान में वह अटूट आस्था तो थी जिसे आज की पीढी कब का गँवा चुकी है. वे इस गर्वित तृष्णा में मर-जी रहे थे कि भगवान ने उन्हें खास नियति और खास मकसद के लिए चुना है बाइबल का वायदा ही उनके लिए कानून की कमान थी. चिता पर चढते वक्त भी वे अपने पवित्र ग्रंथ को सीने से लगाकर जपते रहते अपनी अन्दरूनी आग के बरक्स बाहर की खूनी लपटें उन्हें कम चुभती थीं जमीं दर जमीं दुरदुराए उन लोगों का अभी एक ठिकाना तो महफूज था ही भगवान का ठिकाना जहाँ से कोई दुनियावी ताकत, कोई राजा-बादशाह, कोई अदालत उन्हें बेदखल नहीं कर सकती थी. जब तक उनके बीच धर्म की डोर बँधी थी, वे एक बिरादरी के थे और यही उनकी ताकत थी. जब वे अलग-थलग हो गये और निष्कासित कर दिये गये तब वे अपनी गलती का प्रायश्चित करने लगे कि अपने धर्म और रीति-रिवाजों के चलते क्यों वे एक-दूसरे से अलग हो गये. मगर बीसवीं सदी के यहूदी तो अरसे से ही एक-दूसरे के साथ नहीं रह रहे थे, उनकी कोई आस्था साझी नहीं थी. किसी शान की बजाये यहूदी धर्म उन्हें एक बोझ अधिक लगता था. न ही वे उसके किसी मिशन से बाखबर थे. अपने पवित्र धर्मग्रंथ की शिक्षाओं से वे कोसों दूर रहते अपने आसपास के लोगों के साथ खूब मिल-जुलकर उन्हीं की तरह बसर करना उनका मकसद था ताकि उत्पीडन से निजात मिल सके इसलिए एक समुदाय के सरोकार दूसरे के पल्ले नहीं पडते थे. दूसरों की जिन्दगी में वैसे ही घुलमिलकर अब वे यहूदी कम, फ्रांसीसी, जर्मन, अंग्रेज और रूसी ज्यादा हो गये थे. वो तो अब कहीं जाकर जब गली के गन्द की तरह समेटकर उनका ढेर लगा दिया गया बर्लिन के महलों के बैंकर्स और सिनेगॉग में घंटी बजाने वाले पंडे, पैरिस में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर और रूमानिया के टैक्सी चालक, शवयात्रा संचालक के सहायक और नोबेल पुरस्कार विजेता, कन्सर्ट गायक और भाडे क़े मातमी, लेखक और मद्य-आसवक , अमीर और गरीब, बडे और छोटे, धार्मिक और उदारवादी, हडपखोर और ज्ञानी, इकलखुरे और मिलनसार, अस्कीनाजिम और सीफार्डिम, कायदेसर और बेकायदेसर के अलावा बपतिस्मा किये और नीम¬यहूदी लोगों का ऐसा गड्डमड्ड झुंड भी था जो बरसों से ही इसके अभिशाप से बचता आया था तब जाकर सैकडों बरस बाद यहूदियों को अपनी एक बिराददी के रूप में रहने का मजबूरन खयाल आया मगर यह बदनसीबी केवल और हमेशा उन्हीं के मत्थे क्यों? इस वाहियात उत्पीडन का कोई कारण, अर्थ या उद्देश्य? उन्हें दूसरा वतन मुहैया कराये बगैर ही जलावतन किया जा रहा था. उन्हें एक जगह से बेदखल तो किया जा रहा था मगर यह नहीं बतलाया जा रहा था कि वे कबूल कहाँ होंगे? उन्हें दोषी तो ठहराया जा रहा था मगर उन्हें प्रायश्चित करने की छूट नहीं दी जा रही थी. इसलिए पलायन के अपने रास्ते में वे एक-दूसरे को टीस भरी नजरों से देखते, मानो कह रहे हों : मैं ही क्यों? तुम ही क्यों? आपस में हम एक-दूसरे को जानते नहीं, हमारी जुबान अलग, सोच अलग, हमारे बीच कुछ भी तो एक-सा नहीं फिर हम ही क्यों इस नियति को भुगत रहे हैं? जवाब मगर किसी के पास नहीं होता इस दौर को सबसे होशियारी से समझने वाले फ्रायड भी भौचक थे जिनसे उन दिनों मेरी खूब बातें होती थीं, निरर्थक से वे भी क्या अर्थ निकालते और कौन जाने कि यह यहूदीवाद के रहस्यमय ढंग से बचे रहने के पीछे जोब 12 की भगवान के आगे की गयी उस शाश्वत रूदाली की पुनरावृत्ति ही हो ताकि उसे दुनिया में कोई बिसरा न दे. (hindisamay.com से साभार)

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