Monday, 8 July 2013

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा-3


ओमा शर्मा

खास मेहमानों की गिरफ्त और पचास की उम्र : स्टीफन स्वाइग


उन बरसों कई मनोवांछित और मशहूर मेहमान हमारे घर पधारे मगर तनहाई के लम्हों में कुछ ऐसी अजीम शख्सियतों का जादुई दायरा मेरे आस-पास घिरने लगा जिन्हें जुटाने में मैं धीमे-धीमे कामयाब हुआ था यानी पांडुलिपि संग्रहण (जिसके बारे में मैं पहले भी बता चुका हूं) की मार्फत दुनिया के बडे-बडे उस्ताद अपनी लिखावट के सहारे मेरी अमानत बन गए थे. पन्द्रह बरस की उम्र में शौकिया शुरू की गयी चीज समयांतर में, ज्यादा अनुभव, बेहतर संसाधन और दिनों-दिन बढते आवेग के कारण, महज संचय से बढक़र एक जीवन्त ढाँचे में तब्दील हो गयी थी बल्कि कहना होगा कि वह अपने आप में एक कलाकृति बन गयी थी. किसी भी नौसिखिए की तरह, पहले-पहल तो मैं केवल मशहूर नामों के ही पीछे भागता था मगर बाद में मनोवैज्ञानिक जिज्ञासा के तहत सिर्फ पांडुलिपियों मूल कृतियाँ या उनके हिस्से में ही मेरी दिलचस्पी रह गयी जो उस अजीज उस्ताद के सृजनात्मक तौर-तरीके की भी मुझे झलक देती जाती अनगिनत, अव्याख्येय पहेलियों से भरी इस दुनिया में, सृजन का रहस्य अभी भी सबसे गहरा और सबसे ज्यादा रहस्यमय बना हुआ है यहाँ कुदरत किसी कन-सुनई की छूट नहीं देती है और न अपने उस आखिरे टोटके की किसी को कभी खबर लगने देगी कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, कि एक नन्हा फूल कैसे खिलता है, एक कविता कैसे रची जाती है, इंसान कैसे बनता हैइस सब पर वह बडी बेरहमी और सख्ती से पर्दा ड़ाले रहती है(कोई कवि या संगीतकार भी जो उस काव्यकृति को रचता है, प्रेरणा के उन लम्हों को नहीं बता-समझा सकता है एक बार उसकी रचना ने पूरा आकार लिया नहीं कि वह कलाकार उसके सृजन के स्रोतों, उनके पनपने या होते जाने को, नहीं पहचान पाता है वह इस बात को कभी या अमूमन कभी नहीं समझा सकता है कि उस उदात्त अवस्था में, अलग-अलग शब्द मिलकर कैसे कविता बन जाते हैं, स्वर धुन बन जाते हैं और जो सदियों तक फिजां में गुनगुनाते हैं. सृजन की इस दुर्बोध्य प्रक्रिया की थोडी-बहुत भनक यदि मिल सकती है तो उन हस्तलिखित कागजों पर ही, विशेषकर उनसे जो छपने को नहीं दिये जाने हैं. जिनमें सुधारों की काटपीट की गयी हो. ऐसा कामचलाउ प्रारूप जो भक्ति में, आहिस्ता-आहिस्ता वाजिब आकार ग्रहण कर लेगा. महान कवियों के ऐसे पन्नों को इकट्ठा करना, उनके संघर्ष की गवाही देती प्रूफ-शीटें मेरे ऑटोग्राफ संग्रहण का दूसरा और ज्यादा ज्ञानवर्धक दौर था नीलामियों में उनके लिए हाथ-पाँव मारने में मुझे बड़ा सुख मिलता. गंध लगने पर दूर-दराज की कोटरों तक उनका पीछा करना एक तरह का विज्ञान हो गया था. पांडुलिपि संचयन के सिवाय ऑटोग्रास के बारे में अभी तक लिखी किताबें मेरे दूसरे संचयन का हिस्सा बन गयीं अभी तक लिखी इन किताबों की चार हजार से उपर की तादाद का एक भी सानी नहीं था क्योंकि विक्रेता लोग भी अपने इस खास शौक को इतना दुलार और वक्त नहीं दे पाते थे. साहित्य अथवा जिन्दगी के दूसरे किसी क्षेत्रा के बारे में तो मैं यह कहने की हिम्मत नहीं कर पाऊँ मगर कह सकता हूं कि पांडुलिपि संचयन के इन तीस-चालीस बरसों में, इस क्षेत्रा का मैं विशेषज्ञ बन गया था मुझे हर महत्वपूर्ण हस्तलेख का पता होता कि वह कहाँ होगा, किसका रहा होगा और उसके मालिक तक कैसे पहुँचा होगा मतलब एक सच्चा पारखी जो नजर पडते ही असलियत भाँप ले और अपने आकलन में अधिकांश पेशेवरों से ज्यादा तजुर्बेकार था.
रता-रता मेरे संग्रहक की चाहत और भी आगे बढी विश्व साहित्य और संगीत की पांडुलिपियों (जो हजारों किस्म के रचनात्मक तरीकों का प्रतिबिम्ब होती हैं) की गैलरी अपने पास रखने भर से मैं संतुष्ट नहीं था संग्रह में इजाफा करने भर के लिए अब मैं नहीं मचलता था पिछले दस बरसों में अपने संग्रह में मैंने बडे क़ायदे से नक्काशी की जैसे, पहले मैं किसी कवि या संगीतकार की पांडुलिपि के उन पन्नों को लेकर संतोष कर लेता था जो उसके सृजनात्मक पल को उघाडते थे मगर धीरे-धीरे, अब मेरी कोशिश होती कि उसके हरेक सबसे सुखद, सृजनात्मक सर्वोत्कृष्ट उपलब्धिपूर्ण, पल की बानगी ले सकूँ इसलिए अब मुझे किसी कवि की किसी कविता की पांडुलिपि की तलाश नहीं वरन उसकी सबसे सुन्दर कविता और हो सके तो ऐसी कविता जिसमें भीतर की प्रेरणा ने अमरता की राह का पहला दुनियावी कदम भरा था चिर-स्मरणियों से मेरी बडी हौसलामंद उम्मीद होती मुझे उनकी उसी घसीट का कतरा चाहिए था जिसने उन्हें चिर-स्मरणीय बनाया था.
नतीजतन, संग्रह लगातार उमडता बिगडता रहा अपने तय किये मकसद पर कोई वरक पूरा नहीं उतरता तो मैं उसे हटा देता बेचकर या अदला-बदली करके, और उसकी एवज, किसी ज्यादा जरूरी, ज्यादा प्रवृत्तिमूलक, और अगर इस शब्द के उपयोग की छूट हो तो, ज्यादा शाश्वतता भरे वरक को ले आता और हैरानी की बात यह कि ज्यादातर मैं कामयाब हो ही जाता क्योंकि मेरे अलावा कुछ ही लोग थे जो कला की सबसे अहम कृतियों को इतने तजुर्बे, तन्मयता और इतनी जानकारी से संगृहीत करते थे जो चीज शुरू में एक पोर्टफोलियो जितनी थी, होते-होते पूरा बक्सा बन गयी सर्जनात्मक मानव जगत की उन सबसे स्थायी निशानियों या उसके हिस्सों को, इकट्ठे साथ रखने से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए, मैटल और एसबेस्टस का कवच पहना दिया गया था किसी बंजारे से भटकते अपने वजूद को झेलते जाने के कारण मेरे पास बहुत पहले बिसरा दिये गये उस संग्रह की अब सूची नहीं है इसलिए मैं बेतरतीबी से ही उन कुछेक चीजों का हवाला दे रहा हूं जिससे पता चले कि शाश्वतता के पल में दुनियावी मेधा कैसे आकार लेती है.
लेनार्डो 1 की कामकाजी किताब के कुछ पन्ने थे बिम्ब-प्रतिबिम्ब बनाते कुछ चलताउ नोट्स! चार पन्नों पर बिखरे वे बमुश्किल पढने में आते थे रिवोली मैं अपने सैनिकों को हुक्म देता नैपोलियन था प्रूफ के पन्नों पर काट-छांट करता बाल्जाक का पूरा उपन्यास थाहजारों-हजार करेक्शंस का अखाड़ा बना हरेक पेज अनिर्वचनीय सफाई से उसके अतुल संघर्ष की मिसाल देता जाता था (सौभाग्य से, एक अमरीकी विश्वविद्यालय के लिए उसकी फोटो प्रति बचा ली गयी थी) नीत्से की 'बर्थ ऑफ ट्रैजडी'2 अपने पहले अज्ञात प्रारूप में थी जो, प्रकाशन के अरसा पहले उसने अपनी प्रियतमा कोसिमा वैगनर को लिखी थी बाख की एक कथा गायकी थी ग्लूक की लिखी एक धुन थी एक धुन हांडल की लिखी थी जिसकी संगीत पांडुलिपियाँ सबसे विरल हैं कोशिश हमेशा सबसे बेजोड क़ो हासिल करने की होती और अमूमन, वह मिल भी जाती. ब्रहम्स की 'साइग्यूनरलीडर' पिन की 'बारकारोल' , श्यूबर्ट की अमर कृति 'संगीत के समीप' थी और तो और हेडन की 'काइजर चौकडी' की अमर धुन 'खुदा मिल गया' भी थी. कुछ मामलों में तो सृजन के अद्वितीय अभिरूप को मैं सम्पूर्ण जीवन विस्तार देने में भी सफल हो गया जैसे, मोजार्ट का बारह बरस की उम्र में लिखा सिर्फ कच्चा कागज ही मेरे पास नहीं था बल्कि गायन कला की निशानी के बतौर अमर्त्य उसका 'नीलपुष्प' भी था. फिगारो के 'नान पी आन्द्री' के नृत्य-संगीत को बांधती विवरणिका थी और खुद 'फिगारो' के हिस्से की तर्ज थी. अलावा इसके, गिरजाघर के नाम बडे दिलकश, अशोभनीय खत थे (अखंडित और अभी तक अप्रकाशित) और अन्त में, मृत्यु से ठीक पहले उसके द्वारा 'टाइटस' के लिए लिखी एक धुन थी. गेटे की जिन्दगी का जलवा भी कुछ ऐसा ही हरा-भरा था. पहली झलकी नौ साल के छोकरे द्वारा लेटिन से किए अनुवाद की थी तो आखिरी उसके बयासीवें बरस में, मृत्यु से एकदम पहले लिखी कविता की थी इनके बीच उसके चमचमाते सृजन की बलिष्ठ कृतियाँ थीं 'फाउस्ट' का दोहरा पन्ना था. प्राकृतिक विज्ञान की एक पांडुलिपि उसके फैले-पसरे कैरियर की विभिन्न अवस्थाओं के दरम्यान लिखी कई कविताएँ और चित्रकारियाँ थीं. इन पन्द्रह झलकियों में गेटे के पूरे जीवन का जायजा मिल जाता गेटे की सामग्री के मामले में, मेरे प्रकाशक प्रोफेसर किपनबर्ग की मुझसे होड रहती. इस प्रकार स्विटजरलैंड के एक सबसे बडे रईस ने, जिसके पास बीथोविन का बेमिसाल खजाना था, एक बार मेरे खिलाफ बोली लगाई और मुझसे नीलामी मार ली मगर इस शुरूआती पुस्तिका, 'चुम्बन' नामक गाने और एग्मांट संगीत के हिस्सों के अलावा, मैं उसकी जिन्दगी के एक बेहद त्रासद पल को दृश्य रूप में पेश करने में सफल हो गया और वह भी ऐसी परिपूर्णता से जो किसी संग्रहालय के लिए नामुमकिन थी. खुशकिस्मती से मैं उसके कमरे के फर्नीचर के बचे हुए टुकडे हथियाने में कामयाब हो गया. उसकी मृत्यु के बाद वह नीलाम कर दिया गया था और प्रिवी कौंसिलर ब्रयूनिंग ने खरीद लिया था उस बडी ड़ेस्क की दराजों में सबसे ऊपर उसकी दो महबूबाओं काउंटैस जिलीटा गुइकार्डी और काउंटैस ऐरडयूडी की तस्वीरें पोशीदा थीं. उसके बिस्तरे के नजदीक, आखिरी दिनों तक साथ रहने वाली तिजोरी थी, एक हल्की डेस्क थी जिसके ऊपर, बिस्तर में पडे-पडे ही, उसने अपनी आखिरी कविताएँ और खत लिखे थे. मृत्यु शय्या पर कटे बालों की एक सफेद लट थी. उसके अंतिम संस्कार का निमंत्रण पत्र, कँपकँपाते हाथों से लिखी धोबी को दिये जाने वाले कपडों की सूची थी, नीलामी के लिए रखी उसकी चीजों की फेहरिस्त और अपने कंगाल हुए बावर्ची के लिए चन्दे के लिए बनाई दोस्तों की सूची थी और गोकि इस बात की मुझे नजीर दी जा रही हो कि एक सच्चे संग्रहक को इत्तफाक हमेशा खुशकिस्मती बख्शता है,. उसके मृत्यु-कक्ष से ये सब चीजें खरीदने के बहुत जल्द बाद ही मुझे उसकी मृत्युशय्या के तीन रेखांकन और हाथ लग गये. तत्कालीन खबरों के मुताबिक, श्यूबर्ट के दोस्त, युवा चित्राकार जोसेफ टेल्टशर ने 27 नवंबर को, मृत्युशय्या पर संघर्ष करते बीथोविन का रेखांकन बनाने की कोशिश की थी मगर प्रिवी कौंसिलर ब्रयूनिंग ने इसे तौहीन समझते हुए उसे कमरे से बाहर निकलवा दिया. सौ बरस तक ये रेखांकन गायब रहे ब्रूयन की एक फुटकर नीलामी में इस नामालूम चित्रकार की दर्जन भर स्कैच बुक औने-पौने दाम बिकी थीं.यह रेखांकन उन्हीं में था मौका भी मौके की तलाश में रहता है. एक रोज एक डीलर ने मुझे फोन करके पूछा कि क्या बीथोविन की मृत्युशय्या के रेखाचित्रों में मेरी दिलचस्पी है. मैंने उससे कह दिया कि वह तो पहले से ही मेरे पास है मगर बाद में पता चला कि वह तो उसके दान्हयूशर द्वारा बनाए मशहूर मूल शिलाचित्र की बात कर रहा था. इस तरह उस अंतिम यादगार और सच्ची के अमर्त्य क्षण को याद करने के सारे गोचर सबूत मैंने इकट्ठे कर लिये.
कहने की जरूरत नहीं कि खुद को मैंने इन चीजों का कभी मालिक नहीं, हाली हिफाजती ही समझा इन चीजों पर पट्टा जमाने की नीयत की बनिस्वत उनमें कुछ जोड-ज़ुड़ाव करने, संग्रह को किसी कलापूर्ण प्रस्तुति में तब्दील करने का मुझे बड़ा लालच रहा है मैं जानता था कि इस संग्रह की मार्फत मैंने एक ऐसी चीज बना ड़ाली थी जिसमें एक कृति के रूप में, मेरे अपने लेखन से ज्यादा काबिले-कूवत थी कई प्रस्तावों के बावजूद, उनका कैटलॉग बनाने से मैं हिचकता रहा था क्योंकि अभी तो इसका ढांचा ही बन रहा था उसमें कई नाम और सबसे चाहत भरे स्मृतिशेष नदारद थे. मैंने सोच रखा था कि इस बेजोड ख़जाने को मैं ऐसी किसी संस्था को सौपूँगा जो मेरी खास शर्त पूरी करे: खजाने की बढोतरी में दर कुछ रकम उसी भावना से लगाए जो मुझे चहकाती थी, मतलब, एक जड-स्थिर चीज के बजाय यह एक ऐसी जैविक इकाई बन जाये जो सँवरते-सँवरते, मेरी अपनी जिन्दगी के सौ-पचास बरस बाद ज्यादा मुकम्मल खूबसूरती अख्तियार कर ले.
मगर हमारी इम्तहान-परस्त पीढी क़ो तो खुद से परे कुछ सोचने की मनाही थी जब हिटलर के दिनों ने कब्जा जमाया और मैंने अपना घर छोड़ा तो संचयन की ख्वाहिश और, किसी भी शाश्वत चीज को संभालने की निश्चिंतता, खेत हो गयी कुछ दिन तो कुछेक चीजें मैंने तिजोरियों और दोस्तों की हिफाजत में रखीं मगर फिर, गेटे के मशवरे को याद करते हुए कि संग्रह-संग्रहालयों और शास्त्रागारों को यदि लगातार हवा-पानी न दिया जाये तो वे सूख जाते हैं. मैंने उस संग्रह को अलविदा कर दिया जिसे मैं और नहीं पाल-पोस सकता था अलविदा में, इसका एक हिस्सा तो मैंने वियना की नेशनल लाइब्रेरी को दे दिया. मुख्यतः ऐसी चीजें जो अपने समकालीनों से मुझे तोहफे के तौर पर मिली थीं एक हिस्सा बेच दिया. बाकी बचे के साथ क्या हुआ या क्या हो रहा है, उससे मेरा मन अब दुखी नहीं होता है. रचे जा चुके की बनिस्वत मुझे रचने की प्रक्रिया में हमेशा सुख मिलता है इसलिए मैं उन चीजों का गिला नहीं करता जो कभी मेरी हुआ करती थीं हर कला और खजाने का अदावती हुआ वक्त जिस तरह हमें खदेड-पछाड रहा है, ऐसे में गर कोई कला हमें सीखनी हो तो वह उस सबसे बिछुडने की होगी जो कभी हमारी शान, हमारा प्यार हुआ करती थी.
तो इस तरह काम-काज, सैर-सपाटे, पढने-लिखते, संग्रह करते और जिन्दगी का आनन्द लेते हुए साल गुजरते रहे. नवम्बर 1931 की एक सुबह जब मैं उठा तो पता चला मैं पचास बरस का हो गया हूं. दूधिया बालों वाले साल्जबर्ग के उस भलमनजात ड़ाकिये के लिए यह दिन बड़ा मनहूस रहा क्योंकि खतों और टेलिग्रामों के अच्छे खासे जखीरे को लेकर बुढउ को दुर्गम सीढियाँ घिसटनी पडीं उसकी वजह यह थी कि जर्मनी में किसी लेखक के पचासवें जन्मदिन को अखबारों में व्यापक तौर पर मनाने का रिवाज था. उन्हें खोलने-पढने से पहले मैं पल भर रूककर सोचने लगा कि इस दिन की मेरे लिए क्या अहमियत है. पचासवाँ साल एक निर्णायक मोड होता है. मुडक़र देखने लगो तो घबराहट होती है कि कितना सफर तो पूरा हो गया मन में सवाल भी उठा कि क्या अभी और कुछ बकाया है मैं अपनी जिन्दगी का अवलोकन करने लगा. अपने घर से जैसे मैं आल्प्स पर्वत शृंखला और घाटी के ढलान को निहारता था, वैसे ही उन पचास बरसों को निहारने लगा. मैंने कबूल किया कि जिन्दगी का एहसानमन्द न होना बेइमानी होगी आखिर इसने मेरी उम्मीदों या जो मैं अपनी काबलियत समझता था, उससे ज्यादा और बेइन्तहां ज्यादा इनायत मुझे बख्शी थी साहित्य के माध्यम से मैं अपने को विकसित, अपने वजूद का जो इजहार करना चाहता था उसने, लडक़पन में भरे मेरे किसी भी सपने से कहीं ज्यादा पाँव पसार लिए थे मेरे जन्मदिन पर इंसल-वर्लेग ने, सभी भाषाओं में प्रकाशित मेरी किताबों की सूची छापी थी जो खुद एक किताब जितनी थी कोई भाषा तो वहाँ गैर-हाजिर नहीं थी न बुलगारियाई या फिन्नीज, न पुर्तगाली या अरमेनियाई, न चीनी या मराठी मेरी किताबें ब्रेल में, शॉर्टहैन्ड में और जानी-अनजानी हर शक्लो-सूरत और रंग में थीं मेरे विचार और शब्द बेशुमार लोगों तक जा पहुँचे थे. खुदी के चौखटे से खींचकर मैंने अनन्त में अपना अस्तित्व फैला दिया था अपने दौर की बेहतरीन शख्सियतों से मेरी जाती दोस्ती हो गयी थी. मैंने एक से एक मुकम्मल प्रस्तुति का लुत्फ उठाया था. इस धरती के सबसे खूबसूरत नजारे, इसके लाजवाब शहर और बला की पेंटिंग्स को देखने का मैंने आनन्द लूटा था. मैंने अपनी आजादी बरकरार रखी थी. किसी नौकरी-पेशे पर मैं निर्भर था नहीं, अपने काम में मुझे मजा आता था और तो और दूसरों को भी इससे आनन्द मिलता था अब किसकी नजर लग सकती है? वो रहीं मेरी किताबें : क्या वे नष्ट कर दी जाएंगी? (उस घडी मैंने निर्व्याज ऐसा सोचा) मेरे पास घर था : क्या मुझे इससे बेदखल कर दिया जायेगा? मेरे दोस्त थे : क्या कभी मैं उनसे हाथ धो बैठूँगा ? बिना मृत्यु या बीमारी के डर के मैं सोचने लगा. दूर-दूर तक इसका ख्याल किये बगैर कि अभी मुझे क्या कुछ झेलना बकाया था. किसी बेघर शरणार्थी की तरह मुझे फिर से कोने-कोने, सात-समुन्दर, दर-बदर भटकना पडेग़ा, मेरा पीछा किया जायेगा. मेरी किताबें जला दी जाएंगी, प्रतिबंधित हो जायेंगी, जर्मनी में मेरे नाम को किसी खूनी की तरह पुकारा जायेगा और मेरे सामने मेज पर पडे ख़तों और टेलिग्रामों को भेजने वाले मेरे दोस्तों का, खुदा-ना-खास्ता मिलने पर, रंग उतर जायेगा तीस या चालीस बरस की मेहनत-लगन यूँ झपक दी जायेगी कि उसका नामोनिशां नहीं बचेगा ऊपर से पुख्ता और सलामत दिखती जिस जिन्दगी का मैं अवलोकन कर रहा था, उसका ढाँचा भरभरा जायेगा और अपनी जिन्दगी की शाम में जहाँ पहले से ही शक्ति- ह्रास हो गया है और रूह बैचेन है ,मुझे फिर से सब कुछ शुरू करने की मजबूरी उठानी पडेग़ी .सही बात है, इस दिन भी कोई ऐसी फिजूल, वाहियात बातें सोचता है! मेरे सुकून का सबब था मैं अपने काम और इसीलिए जिन्दगी, से प्यार करता था दीन-दुनिया की चिन्ताओं से मैं बरी था. मैं आगे यदि एक लाइन भी न लिखूँ तब भी मेरी किताबें मेरा गुजारा कर देतीं लग रहा था जिन्दगी में हासिल करने को कुछ बचा ही न हो लग रहा था किस्मत नकेल दी गई है सुरक्षा का कवच, जो मैंने पहले कभी अपने माता-पिता के जमाने में देखा था और युद्ध के दरम्यान जो गायब हो गया था, उसे अपने बलबूते मैंने फिर हासिल कर लिया था और कोई तमन्ना क्या होगी.
मगर क्या अजीब बात कि इसी बात से मुझे मन ही मन घबराहट होने लगी कि इस घडी मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है भीतर से किसी ने पूछा नहीं, मैंने खुद नहीं कि क्या वाकई यह ठीक रहेगा कि जिन्दगी यूँ ही चलती रहे .शान्ति से, करीने से, फलते-फूलते, इत्मीनान से बिना किसी दबाव या इम्तहान के ? जिन्दगी की ये पुर-सलामती और सुख-सुविधाएँ क्या मेरे असल वजूद के बेमेल नहीं थीं? सोचते-विचारते मैं घर में टहलने लगा गये बरसों में यह कितना सुन्दर हो गया था, ठीक वैसा, जैसा मैं चाहता था मगर क्या मुझे हमेशा इसमें रहना पडेग़ा? हमेशा उसी डेस्क पर बैठकर किताबें लिखते हुए. एक किताब के बाद फिर दूसरी किताब, रायल्टी के बाद और ज्यादा रायल्टी लेते हुए अन्ततः एक ऐसा इज्जतदार शरीफ जो सलीके से अपने नाम और काम के लिए जीता है, वक्त के पेचोखम, तमाम खतरों और खटकों से जुदा-जुदा? क्या यह हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा, मेरे साठा होने तक, मेरे सत्तर पार करने तक या जब तक भी गाडी चलती है? मेरे अन्तस की आवाज कहती रही कि क्या अच्छा हो अगर जिन्दगी में कुछ ऐसा हो जाये जो मुझे ज्यादा बैचेन, ज्यादा उत्सुक और जवाँ बना दे .जो मुझे नये से नये, और गालिबन ज्यादा खतरनाक, मुकाबले के लिए ललकारे? हर कलाकार में एक अजीबोगरीब दोकड़ा बसता है : जिन्दगी यदि उसे ताबड-तोड ख़सोटती है तो वह शान्ति के लिए बिलबिलाता है मगर शान्ति मिली नहीं कि वह उन्हीं पुराने हिचकोलों को तरसने लगता है इसलिए इस पचासवें जन्मदिन पर मेरे दिल में बस यही कुटिल इच्छा मरोडे मार रही थी कि काश कुछ ऐसा हो जाये जो एक बार फिर इन गारंटियों और सुख-सुविधाओं को चीरकर मुझसे परे कर दे ताकि मेरा न सिर्फ काम करते रहना अनिवार्य हो जाये बल्कि मैं कुछ नया भी शुरू कर सकूँ . क्या यह बढती उम्र, थका-माँदा या आलसी होते जाने का डर था? या यह कोई रहस्यमयी अंदेशा था जो मेरी रूह की खातिर मुझसे दुश्वार जिन्दगी की तमन्ना करवा रहा था? मैं नहीं जानता.
मैं नहीं जानता क्योंकि बेखुदी के झुटपुटे के इस अजीब लम्हे में कोई बनी-सुघडी तमन्ना तो आकार ले नहीं रही थी. मेरी सोची-समझी इच्छा से जुडी-रमी तो यकीनन नहीं. किसी गुरेजां ख्याल की कौंध से ज्यादा यह कुछ नहीं था शायद ख्याल भी मेरा अपना नहीं था मगर जिस गहराई से इसने दस्तक दी, उसकी मुझे कुछ हवा नहीं थी. शायद इसके गर्भ में वह अज्ञात, अबोध्य शक्ति रही हो जिसने मेरी जिन्दगी में इतनी ज्यादा इनायतें बख्शीं कि मैं कभी सोच भी नहीं सकता था और लो, बडी हुकुम-बरदारी से, मेरी जिन्दगी की नब्ज को नेस्तानाबूद करने का इसने काम भी शुरू कर दिया ताकि मैं इसके घूरे से एक बिल्कुल अलग, मुश्किल और ज्यादा दुश्वार जिन्दगी की नयी इमारत खडी क़रने में लग जाऊँ.
(hindisamay.com से साभार)

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