Monday 8 July 2013

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा-2


ओमा शर्मा

एक खास कामयाबी


उन बरसों में, मेरी जाती जिन्दगी का सबसे मौजूँ वाकया एक मेहमान की मौजूदगी थी जो बड़ा मेहरबान होकर पसर गया था एक ऐसा मेहमान जिसकी मैंने कतई उम्मीद नहीं की थी: कामयाबी यह जाहिर बात है कि अपनी किताबों की कामयाबी का जिक्र करना मुझे अच्छा नहीं लगता है. उनके चलताउ जिक्र से भी, जिसे दम्भ या शेखी माना जा सकता है, मैं अमूमन कन्नी काट लेता मगर मेरे पास इसकी एक खास वजह है और, अपनी जिन्दगी की कहानी बतलाते वक्त, यह मजबूरी भी है कि मैं इसे नजरअन्दाज न करूँ क्योंकि, नौ बरस पहले हिटलर के आगमन से, यह कामायाबी भी तारीख में दफन हो गयी है मेरी सैकडों, हजारों और यहाँ तक कि लाखों किताबें, जर्मनी के जिन अनगिनत घरों और किताब की दुकानों में महफूज रहती थीं, आज एक भी नहीं मिलती किसी के पास गर हो भी तो वह बडे एहतियात से उसे छुपाकर रखता है पब्लिक लाइब्रेरियों में वे तथाकथित विष पेटी में कैद रहती हैं ताकि, वे चन्द लोग जिन्हें हुकूमत की खास इजाजत हो, वैज्ञानिक तरीके से ज्यादातर बदनाम करने के लिए उनका इस्तेमाल कर सकें मेरे वे पाठक और दोस्त जो मुझे लिखा करते थे, अरसे से किसी ने मेरे बद नाम को लिफाफे पर लिखने की जुर्रत नहीं की है और यही नहीं, फ्रांस, इटली और उन तमाम देशों में जो आज गुलाम हैं और जहाँ अनुवाद के जरिये मेरी किताबें खूब पढी ज़ाती थीं, वहाँ भी हिटलर के हुक्म ने इसी तरह उन पर पाबन्दी ठोक रखी है ग्रिलपार्जर के लफ्जों में कहूँ तो एक लेखक के तौर पर मैं जीते जी अपनी ही लाश की परछाईं बन गया हूँ पिछले चालीस बरसों से दुनिया में मेरे लेखन को दर्शाती हरेक या तकरीबन हरेक रचना इसी इकलौते मुक्के ने नष्ट कर दी है इसलिए अगर मैं अपनी कामयाबी का उल्लेख करता हूँ तो मेरा मतलब उससे नहीं है जो मेरी है, बल्कि उस चीज से है जो कभी मेरी हुआ करती थी जैसे मेरा मकान, मेरा घर, मेरी सलामती, मेरी आजादी, मेरा बेफिक्र बर्ताव. दूसरे बेशुमार मासूमों समेत मैं जिस गर्त में जाकर गिरा उसका आख्यान इसलिए जरूरी है ताकि पता चले कि इस कामयाबी की हद कितनी उँची थी साथ ही पता चले कि इतिहास के इस बेनजीर वाकये, यानी पूरी साहित्यिक पीढी क़ी एकमुश्त तबाही के क्या परिणाम हुए.
यह कामयाबी किसी अलसुबह मेरे घर नहीं आ धमकी थी यह बहुत गाहे-गाहे, सोचते-विचारते आयी मगर वफादारी से लगातार तब तक साथ रही जब तक कि हिटलर ने अपने फरमानों की छडी से इसे मुझसे खदेड नहीं ड़ाला साल दर साल इसकी गन्ध बढती रही.जेरेमिहा के बाद मास्टर बिल्डर्स की पहली कडी ‘तीन महारथी’7 (थ्री मास्टर्स) की त्रयी ने मेरा रास्ता सरपट कर दिया. अभिव्यक्तिवादी, क्रियावादी (एक्टिविस्ट) और प्रयोगवादियों8 के दिन लद गये. संयम और जतन से लोगों तक जाने का रास्ता फिर से प्रशस्त हो गया. अर्मोका और अनजान औरत का खत जैसी मेरी कहानियों को ऐसी शौहरत मिली जो आम तौर पर पूरे-पूरे उपन्यासों को ही मिल पाती है उनके नाटय रूपान्तर हुए सार्वजनिक पाठ किये गये उन पर फिल्में बनीं एक छोटी किताब स्कूल में लगा ली गयी थोडे ही समय में इंसल संग्रहालय में उनकी बिक्री 2,50,000 पहुँच गयी थोडे ही बरसों में मैंने वह मकाम बना लिया जो मेरे जैसी मानसिकता के लेखक के लिए सबसे कीमती कामयाबी होती है : एक वर्ग, भरोसेमन्द लोगों के एक गुट का निर्माण जो मेरी हर नयी किताब आने का इंतजार करता, हर नयी किताब खरीदता जिसे मुझ पर यकीन था और जिस यकीन को नाउम्मीद करने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी वक्त के साथ यह बड़ा और ज्यादा बड़ा होता गया मेरी हरेक किताब जिस दिन छपकर आती, अखबारों में छपे एक भी इश्तिहार से पहले, बीस हजार प्रतियाँ तो जर्मनी में उसी रोज बिक जातीं कभी तो जानबूझकर भी मैंने कामयाबी से नजरें चुराने की कोशिश की, मगर किसी हैरतन जिद की तरह यह मेरे पीछे पडी रही जैसे अपने निजी सुख के लिए मैंने “फाउश की जीवनी लिखी.
मैंने जब इसे प्रकाशक को भेजा तो उसने लिखा कि पहले संस्करण की वह दस हजार प्रतियाँ छापेगा मैंने फौरन उससे गुजारिश की कि इतनी ज्यादा न छापे. मैंने उसे समझाया कि फाउश की शख्सियत बेरहम थी, किताब में औरतों से सम्बन्धी एक भी वाकया नहीं था और गालिबन बहुत ज्यादा पाठकों को जँच भी नहीं पायेगी इसलिए बेहतर हो शुरू में पाँच हजार ही छापें. साल भर के अन्दर-अन्दर जर्मनी में पचास हजार प्रतियाँ बिक गयीं. उसी जर्मनी में जहाँ आज मेरी लिखी एक भी लाइन पढने की मनाही है अपनी लगभग बीमार खुद-बदगुमानी के चलते मेरे साथ ऐसा ही कुछ वोलपोन के संस्करण के वक्त हुआ. इसे मैंने छन्दों में लिखने की सोची थी. “मार्शलीज में नौ दिन के अन्दर मैंने इसके विभिन्न अध्यायों की मोटी रूपरेखा खींच ली थी. गद्य में ड्रैसडेन के कोर्ट थियेटर का मैं एहसानमन्द था क्योंकि मेरा पहला नाटक थरसाइटीज उन्होंने ही मंचित किया था मेरी हाली योजनाओं पर जब उनसे बात चली तो मैंने उन्हें वही गद्य रूप भेज दिया, इस बात की माफी माँगते हुए कि यह इस रचना का पहला ही खाका है जो अन्ततः छन्दों की शक्ल लेगा लेकिन थियेटर वालों ने तुरन्त मुझे तार किया कि खुदा के वास्ते मैं उसकी एक भी चीज इधर-उधर नहीं करूँ और यह बात भी सही है कि नाटक के उसी संस्करण-प्रारूप को दुनिया भर में मंचित किया जा चुका है. उन दिनों मैंने जो कुछ किया, कामयाबी और जर्मन पाठकों की बढती तादाद ने मुझसे खूब वफादारी निभायी.
एक जीवनीकार और निबन्ध लेखक होने के नाते हमेशा मेरी इच्छा होती है कि अपने वक्त पर किताबों या शख्सियतों के पडने वाले प्रभाव (या उसकी गैर मौजूदगी) के कारणों की पडताल करूँ. मनन के पलों में अपने आपसे मैं यह सवाल किये बिना नहीं रह सका कि मेरी किताबों में ऐसी क्या खूबियाँ थीं जिनकी वजह से उन्हें इतनी मेरी जानिब बिला उम्मीद कामयाबी मिली मेरी निगाह में इसका लब्बोलुआब, मेरी वह निजी खराब आदत है कि मैं एक बेसब्र और तुनकमिजाज पाठक हूँ. किसी उपन्यास, जीवनी या बौद्धिक विमर्श में खटकने वाली कोई भी चीज हर डन्ठल, टीका-बिन्दी, मलिन-सा भी अतिरेक, हरेक झिलमिल और ढुलमुल बात मुझे चिढा ड़ालती है. मेरी नजर से गुजरने वाली नब्बे फीसदी किताबें फालतू की तफसीलों, बेबात की बातों और अनावश्यक चिरकुट चरित्रों से मुटियायी होती हैं, इसीलिए अपना सम्मोहन और धार खो बैठती हैं जाने-माने खास क्लैसिक्स में भी कई रूखे और ढुल-ढुल उद्धरण मुझे खटकते हैं कई दफा मैंने प्रकाशकों को, विश्व साहित्य होमर से लेकर बाल्जाक और दोस्तोव्स्की से लेकर “मैजिक माउन्टेन”11 तक की अपनी दिलेर शृंखला पेश की है जिसमें हरेक कृति की फालतू तफसीलों की कसकर छँटनी कर दी जाये. वक्त के पैमाने पर जिन रचनाओं की अमरता असंदिग्ध है, वर्तमान के लिहाज से फिर एक नया जीवन और अर्थ ले उठेंगी.
दूसरों की रचनाएँ पढते वक्त हर फालतू और आढे-टेढे ब्यौरों से नापसन्दी की आदत, मेरे अपने लेखन में भी उतरनी थी. इसने मुझे एक खास एहतियात बरतने का प्रशिक्षण दिया आमतौर पर मैं बडी सहजता और प्रवाह से लिख लेता हूँ किसी किताब के पहले ड्राफ्ट में अपने साथ अपनी कल्पना को मैं खुला छोड देता हूँ. कलम पर कोई रोक नहीं लगाता हूँ इसी तरह, किसी जीवनी के लिए, शुरू में मैं हर किस्म की उपलब्ध दस्तावेजी विगत का इस्तेमाल करता हूं “मैरी एंटोइनेट” की तैयारी के समय मैंने उसके एक-एक खाते की जांच की ताकि उसके निजी खर्च का पता लगे. मैंने तत्कालीन अखबारों और चौपन्नों को छान ड़ाला, कानूनी दस्तावेजों का एक-एक हरफ चट कर गया मगर प्रकाशित पुस्तक में उसकी एक भी पंक्ति नहीं है क्योंकि इस पहले प्रारूप का जब सब कुछ हो जाता है, तब तो उस किताब का मेरा असल काम शुरू होता है. लिखने और संक्षिप्त करने का और यह काम है ऐसा कि मैं इसे, गहनता से, एक प्रारूप से दूसरे प्रारूप तक किए बगैर नहीं रह सकता हूं. यह सन्तुलन बनाए रखने के लिए पोत पर रखी उस बजरी-रोडी को हवा में उछालने जैसी जिद है जो अन्दरूनी ढाँचे को हमेशा कसती, साफ करती जाती है और जहाँ ज्यादातर लोग (लेखक), जितना वे जानते हैं उसी तक अपने को नहीं सम्भाल पाते हैं. हर घुमावदार पेंच के प्रति जुनून से, वे अपने से ज्यादा दिखाने-बतलाने की कोशिश करते हैं जबकि मेरी हमेशा कोशिश होती है कि, जितना सतह पर दिखता है, उससे ज्यादा जानूं.
काट-छांट और नाटकीकरण की यह प्रक्रिया एक दफा, दो दफा और फिर तीसरी दफा, प्रूफ शीटों पर दोहरायी जाती है. अन्त होते तक तो यह किसी वाक्य या एक शब्द की ऐसी आनन्दमय खोज-सी हो उठती है जिसकी अनुपस्थिति दंश कम किये बगैर ही, रफ्तार बढा दे. काट-छांट करने का यह काम मुझे वाकई सबसे ज्यादा आनन्द देता है. मुझे याद है कि एक बार जब मैं काम करके उठा तो मुझे चहकता देख पत्नी ने टोका कि आज मैंने जरूर कुछ बहुत बढिया लिखा होगा. ''बिल्कुल, मैंने एक और पूरे के पूरे पैरे को उड़ा ड़ाला, जिससे कहीं ज्यादा प्रवाह हासिल कर लिया'' मैंने शान से जवाब दिया इसलिए मेरी किताबों की पठनीयता को कभी सराहा जाता है तो इस खूबी का, किसी देसी मिजाज या अन्दरूनी आवेग से कोई वास्ता नहीं होता है बल्कि हर फिजूल किन्तु-परन्तु को लगातार हटाने का सिलसिलेवार तरीका है. मेरे पास यदि अपनी कोई कला है जिसे मैं जानता हूं तो वह मेरी छोडने की काबलियत है क्योंकि एक हजार पृष्ठ की पांडुलिपि में आठ सौ पृष्ठ यदि कूडेदान की राह पकड लें तो मुझे कोई गम नहीं, बशर्ते छँटाई किये उन दो सौ पृष्ठों में उसका अर्क बच जाये अभिव्यक्ति की गिनी चुनी शैलियों में खुद को सीमित करने का सख्त अनुशासन और हमेशा एकदम जरूरी बात ही कहने की जिद, कुछ हद तक ऐसा कुछ है मेरी किताबों के प्रभाव का राज ! हमेशा महाद्वीपों और परा-राष्ट्रीयता के अर्थ में सोचने वाले मेरे जैसे लेखक को यह जानकर बहुत खुशी हुई कि विदेशी प्रकाशक फ्रैंच, बुल्गारियाई, अरमानियाई, पुर्तगाली, अर्जेंटिनियाई, नोर्वोवाले, लतवियाई, फिनलैंड और चीनी मेरी किताबें प्रकाशित करना चाहते हैं. जल्द ही, इतने सारे अनुवादों को सम्भालने के लिए मुझे एक बडी अलमारी खरीदनी पडी . एक रोज जिनेवा के लीग ऑफ नेशंस के 'कोआपरेशन इंटलैक्च्यूल के आंकडों में मैंने पढा कि तब मैं दुनिया का सबसे अनूदित लेखक था (मगर अपनी फितरत के मुताबिक उस रिपोर्ट की शुद्धता पर मुझे तो संदेह हुआ). एक रोज लेनिनग्राड में मेरे रूसी प्रकाशक का खत आया मेरी सभी रचनाओं के सम्पूर्ण संस्करण प्रकाशित करने की उसने इच्छा जतलाई थी और पूछा था कि मैक्सिम गोर्की उसकी भूमिका लिखें तो क्या मुझे माफिक आयेगा क्या मुझे माफिक आयेगा! स्कूल में एक बच्चे की तरह मैंने गोर्की की कहानियाँ पढी थीं. डेस्क के भीतर छिपाकर बरसों मैंने उन्हें चाहा और सराहा था. मेरी कोई चीज पढने की बात तो दूर, मैंने तो कभी भरम भी नहीं पाला था कि उन्होंने मेरा नाम भी सुना होगा और यह तो यकीनन नहीं कि ऐसे उस्ताद को मेरी रचनाएँ इतनी महत्वपूर्ण लगेंगी कि वे उनकी भूमिका लिखें. ऐसे ही एक बार एक अमरीकी प्रकाशक साल्जबर्ग वाले घर में किसी का सिफारिशी खत लेकर आये गोकि ऐसे सिफारिशी खत की जरूरत थी और प्रस्ताव रखा कि वे मेरी सभी रचनाओं के अधिकार चाहते हैं, भविष्य में नियमित प्रकाशित करने के लिए ये वायकिंग प्रैस के बैंजामिन ह्यूब्श थे जो तब से ही सबसे भरोसेमन्द दोस्त और सलाहकार बने हुए हैं. हिटलर के कीलदार जूतों तले जब सब कुछ नष्ट हो गया तो अभिव्यक्ति के मेरे आखिरी घर को उन्होंने ही बचाकर रखा है क्योंकि जर्मनी और यूरोपवाला जो मेरा अपना पुराना घर था, वह तो मैं खो ही चुका हूं
इस तरह की ऊपरी कामयाबी उस आदमी को बरगला सकती थी जिसका यकीन, अभी तक, उसकी अपनी काबलियत और रचनाओं की गुणवत्ता से ज्यादा अपनी साफदिली में था प्रचार अपने आप में चाहे किसी प्रकार का हो आदमी के कुदरती सन्तुलन के खिसकने का द्योतक होता है सामान्य हालात में किसी आदमी का जो नाम होता है वह ऐसे ही होता है जैसे सिगरेट की किसी ब्रांड का पहचान का फकत जरिया, एक ऐसी थोथी, लगभग महत्वहीन चीज जो असलियत से केवल मोटा-मोटी जुडी हो, जैसे खालिस अहम कामयाबी के साथ, जिसे कहें नाम फूलने लगता है जिस आदमी का यह होता है, उससे छिटककर यह अपने आप में एक सत्ता बन जाता है. एक शक्ति, एक स्वतन्त्र चीज, एक कारोबारी वस्तु जैसे, कोई पूँजीगत सम्पत्ति मनोवैज्ञानिक तौर से देखें तो एक बार फिर, एक तल्ख प्रतिक्रिया के साथ, यह ऐसी ताकत बन जाता है जो उसी आदमी पर असर दिखाने लगती है, हावी होने लगती है और उसे बदलने लगती है जिसका कि वह नाम है खुश, आत्मविश्वासी लोग अवचेतन में, उस असर से जाने जाते हैं जो वे पैदा करते हैं नाम को तो छोडिए, कोई तमगा, कोई ओहदा या कोई अलंकार जब जाना जाने लगता है तो वह अपने में ज्यादा आश्वस्त करने लगता है, आत्मविश्वास को बल्ल्लियों चढा देता है और लोगों को इस कफस में फुसला देता है कि अपने समाज, राज्य और जमाने में, खास तवज्जो उनका देय है. अनजाने ही, वे अपने में हवा भर लेते हैं ताकि अपनी शख्सियत को वे अपने बाहरी हासिल दिलवा सकें कोई गर स्वभाव से ही खुद-बदगुमा हो, जो ऐसी मुश्किल हालत में खुद को यथासम्भव अपरिवर्तित बनाये रखने में लगा हो, उसे तो हर तरह की बाहरी कामयाबी फालतू का बोझ ज्यादा लगती है.
इससे मैं यह भी नहीं कहना चाहता हूं कि अपनी कामयाबी पर मैं खुश नहीं था.... नहीं, मैं बहुत खुश था मगर उसी हद तक जितना इसका ताल्लुक मेरे लिखे, मेरी किताबों से था और जिसके साथ मेरे नाम की परछाईं भर जुडी थी. एक बार जर्मनी में, मैं एक किताब की दुकान में था अनपहचाना देखता हूं कि जिमनेशियम का एक नन्हा-सा विद्यार्थी वहाँ दाखिल हुआ और मेरी 'टाइड ऑफ फॉरच्यून'12 को माँगकर जेब खर्च के मामूली पैसों से खरीदने लगा यह देख मैं पिघल गया. मेरे अहम को यह देखकर बडी राहत मिली जब पासपोर्ट पर मेरा नाम देखकर वह शयनयान कंडक्टर बडे अदब से पेश आने लगा, या फिर जब उस इतालवी कस्टम ऑफीसर ने बडप्पन में मेरे बैग की तलाशी जाने दी क्योंकि उसने कभी मेरी कोई किताब पढ रखी थी फकत मात्रात्मक रूप से भी लेखकी का बड़ा दिलचस्प पहलू है. एक दफा जब मैं “लीपसिग आया तो उसी रोज मेरी नयी किताब बाहर भेजी जा रही थी. मुझे यह देखकर बड़ा रोमांच हुआ कि अनजाने ही, तीन-चार महीने में लिखे तीन सौ पृष्ठों की मार्फत, हम कितने मानवीय श्रम को जगा देते हैं. कुछ कामगर किताबों को बडे-बडे ड़िब्बों में पैक कर रहे थे, दूसरे उन्हें उन गाडियों पर हाँफते हुए लाद रहे थे जो उन्हें पोतगाडी तक पहुँचा रही थी जहाँ से वे दुनिया के कोने-कोने में चली जाने वाली थीं. दर्जनों लडक़ियाँ जिल्दसाजी के यहाँ मुडे हुए कागज समेटतीं कंपोजीटर, मुद्रक, पोतबाबू, सेल्समैन, सुबह से लेकर रात तक पसीना बहाते एक-दूसरे के साथ र्इंटों की तरह चिनी इन किताबों के बीच की जगह को कोई अच्छा खासा गलियारा समझ बैठे. मैंने इनके आर्थिक पहलू को भी कभी नहीं धिक्कारा. शुरू के बरसों में जीवनयापन की तो दूर, मैं सोचने तक की हिम्मत नहीं कर पाता था कि मैं किताबों से कोई धन कमा सकूँगा और अब अचानक ही उनसे ढेर सारा और दिन-ब-दिन ज्यादा धन आने लगा पहले किसने सोचा था ऐसा भी वक्त आयेगा जो माली चिन्ताओं से मुझे हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त कर देगा. इसी की वजह से मैं अपनी जवानी के शौक पांडुलिपियों के संग्रहण को खुली छूट दे सका, और कुछ बेहद खूबसूरत, एकदम मूल्यवान भव्य अवशेष मेरी निगरानी की मुलामियत का अंग बन गये. उन अपेक्षाकृत अल्पकालिक रचनाओं (जो मैंने लिखी थीं) की एवज मैं समय की सरहद चीरती पांडुलिपियाँ ले सका जैसे मोजार्ट बाख, बीथोविन, गेटे और बाल्जाक की पांडुलिपियाँ. इसलिए मेरे लिए यह कहना हास्यास्पद होगा कि लोगों के बीच मिली, अनपेक्षित सफलता ने मुझे उदासीन, या अन्दर से विमुख कर दिया.
मगर मैं पूरी ईमानदारी से कह रहा हूं कि अपनी कामयाबी का मैंने उसी हद तक लुत्फ उठाया. जहाँ तक इसका ताल्लुक मेरी किताबों और लेखक के बतौर मेरे नाम से था. इसकी डोर पकडक़र, उत्सुकता वश जब कोई मेरे व्यक्ति में दिलचस्पी लेने लगता है तो मैं आजिज आ जाता हूं. लडक़पन से ही शिद्दत से मेरी फितरत रही है, और मुझे लगता है, कि फोटोग्राफिक प्रचार के कारण किसी इंसान की निजी आजादी के श्रेष्ठ हिस्से का अधिकांश भाग अवरूद्ध और विकृत हो जाता है. दूसरे, जिस चीज की शुरूआत मैंने शौक की तरह की थी अब एक पेशे की तरह सवार होने लगी. कभी तो धन्धे-सी भी. हर ड़ाक में खतों, न्यौतों, गुजारिशों और ततीशों का अंबार लगा होता, जिनके जवाब देने होते. कभी महीने भर की अनुपस्थिति से लौटता तो उस गट्ठर को समेटने में और उसके बाद धन्धा शुरू करने में ही दो या तीन दिन खप जाते. अनजाने ही और अपनी किताबों के बिकने के कारण मुझे लगने लगा कि मैं एक ऐसे धन्धे में हूं जो व्यवस्था, स्पष्टता, समयनिष्ठा और निपुणता की माँग करता है, यदि उसे कायदे से सम्भालना है तो ये सब बडे सम्मानजनक गुण हैं मगर अफसोस कि ये मेरी फितरत से मेल नहीं खाते हैं बल्कि ये मेरे नादान सीधे-सादे मनन-चिन्तन और कल्पना भ्रमण में रोड़ा अटकाने का संजीदा खतरा बन जाते हैं इसलिए भाषण देने के लिए मुझे जितना ज्यादा बुलाया जाता, जन-जलसों में जितना ज्यादा शरीक होना पडता उतना ही मैं अपने तईं सिमटता जाता. अपने नाम की एवज सबके सामने खुद हाजिर होने की कोफ्त से मैं कभी पार नहीं पा सका आज भी किसी आम सभा, थियेटर या कन्सर्ट में, मेरी दिली तमन्ना पीछे की किसी नामालूम सीट पर बैठने की होती है. किसी मंच के बीचोबीच या ऐसी ही दूसरी खतरनाक जगह पर अपने चेहरे को दिखाने से ज्यादा असहनीय चीज मुझे दूसरी कोई नहीं लगती है. जिन्दगी की हर कतरन में अज्ञातनामी मेरी जरूरत है. जब मैं छोटा था उन दिनों भी, पिछली पीढी क़े वे लेखक-कलाकार मुझे कभी नहीं जमे जो जन-जीवन में पहचान बनाने के लिए क्या-क्या ताम-झाम करते रहते थे...मखमली कोट लहरदार जुल्फें, भोंहों के ऊपर बिखरी लटें (जैसा मेरे आदरणीय मित्र आर्थर स्निट्जलर और हरमान बार करते थे). नुमाइशी कटी दाढी या फिर चरम अन्दाजी लिबास. मुझे यकीन है कि जब किसी आदमी की शारीरिक दिखावट बहुत जानी-पहचानी हो जाती है तो, अनजाने ही, वह अपने अहम का, वर्फेल की एक किताब के नाम के बतौर,मिररमैन बनने को लपलपाता रहता है. हर जगह वही खास अन्दाज ओढने लगता है यह बाहरी फेरबदल अमूमन उसकी भीतरी काया की गर्मजोशी, आजादी और अलमस्ती को छीजने लगती है इसलिए आज यदि मुझे सब कुछ शून्य से शुरू करना पडे तो अपनी साहित्यिक सफलता और निजी गुमनामी से, जिसे कहूं, मुझे दोहरा मजा आयेगा. मैं अपनी रचनाएँ किसी दूसरे, छद्म, आविष्कृत नाम से छपवाऊँगा क्योंकि जिन्दगी यदि दिलकश है और हैरतों से भरी पडी है, तो दोहरी जिन्दगी की तो क्या बात होगी!
इटली के सबसे महत्वपूर्ण शख्स मुसोलिनी से यदि मैं कभी नहीं मिला तो इसकी वजह राजनैतिक उच्चाधिकारियों से मिलने की मेरी अनिच्छा है. अपनी छोटी-सी पितृभूमि, ऑस्ट्रिया में भी जहाँ ऐसा न करना उपलब्धि सरीखा होता था, किसी प्रमुख राजनीतिज्ञ से मैं कभी नहीं मिला न जीपल से न डोलफुस14 से और न श्यूशनिग15 से किसी राजनेता को प्रेषित मेरी पहली अर्जी को जिस सहजता से मंजूरी दे दी गयी उसके लिए निजी तौर पर मुसोलिनी को धन्यवाद देना मेरा फर्ज बनता था हमारे आपसी मित्रों ने मुझे बता रखा था कि इटली में मुसोलिनी मेरे सबसे अव्वल और कद्रदान पाठकों में आते हैं.
यह कुछ यूँ हुआ एक रोज पेरिस के एक दोस्त से मुझे खास खत मिला जिसमें लिखा था कि एक इतालवी महिला किसी खास सिलसिले में साल्जबर्ग में मुझसे मिलना चाहती है इसलिए मैं उससे फौरन मिल लूँ. अगले रोज वह मेरे पास आयी उसकी व्यथा वाकई विदारक थी. गरीब परिवार से आया उसका पति बहुत काबिल डॉक्टर था जिसे समाजवादी नेता मैटिओटी16 जिसकी फासिस्टों ने जघन्य हत्या कर दी थी, ने पढाया-लिखाया था. वह आखिरी मौका था जब किसी इकलौते गुनाह के खिलाफ पहले से ही थकी-माँदी विश्व चेतना भडभड़ाकर खडी हो गयी थी. सारा यूरोप रोष से भर उठा था. वह वफादार दोस्त उन छह लोगों में एक था जिसने मृतक के ताबूत को खुलेआम रोम की सडक़ों से ले जाने की हिम्मत की थी. उसके फौरन बाद उसका बहिष्कार हो गया धमकियाँ मिलने लगीं इसलिए वह नजरबन्द हो गया मगर मैटिओटी के परिवार के नसीब ने उसे चैन नहीं लेने दिया. अपने हितकारक की याद में इसलिए वह उसके बच्चों को चोरी-छिपे इटली से बाहर भेज देना चाहता था ऐसा करने की जुगत में वह भेदियों के हाथ पड ग़या और गिरतार कर लिया गया मैटिओटी की कोई भी याद चूँकि इटली के लिए बडी शर्मदायक थी इसलिए मुकदमा उसके बहुत ज्यादा खिलाफ नहीं जा सकता था मगर सरकारी वकील ने चालबाजी से उसे दूसरे जुर्म में फँसा दिया जिसका ताल्लुक मुसोलिनी की हत्या करने की साजिश से था इसलिए उस नौजवान डॉक्टर जिसे मोर्चे पर की गयी सेवा के कारण सर्वोच्च युद्ध-तमगों से नवाजा गया था को उम्र कैद सुना दी गयी थी.
वह जवान महिला जाहिरा तौर पर काफी परेशान थी. इस सजा का क्या किया जाये क्योंकि उसका पति इस सजा को झेलने लायक नहीं था. वह चाह यह रही थी कि यूरोप के बडे लेखक एकजुट होकर कोई विशाल मोर्चा निकालें. इसी सिलसिलें में उसे मेरी मदद चाहिए थी. मैंने तुरन्त उसे किसी तरह की मोर्चेबाजी न करने की हिदायत दी. मैं जानता था कि युद्ध के दिनों के बाद से ही यह सब खोमचेबाजी कितनी तार-तार हो गयी है. मैंने उसे याद दिलाया कि किसी देश का राष्ट्रीय गर्व ही इस बात की छूट नहीं देगा कि उसके न्यायतन्त्र को बाहर वाले दुरूस्त करें और यह याद दिलाया कि अमरीका में सैक्को और वैनजैटी17 को लेकर यूरोप ने जो मोर्चे निकाले, उनसे फायदा कम, नुकसान ही ज्यादा हुआ था. मैंने शिद्दत से उससे गुजारिश की कि ऐसा-वैसा वह कुछ भी न करे इससे वह अपने पति की हालत और ज्यादा खराब कर बैठेगी क्योंकि बाहर वाले उस पर दबाव ड़ालने लगे तो मुसोलिनी अगर चाहे तब भी उसके पति की सजा न कभी कम करेगा, न कर पायेगा. मैं चूँकि सचमुच दहल गया था इसलिए उसे जुबान दी कि मुझसे जो बन पडेग़ा, करूँगा और हुआ ये कि अगले हफ्ते ही मुझे इटली जाना था जहाँ रोब-रूतबे वाले मेरे कई दोस्त-अहबाब थे शायद निजी तौर पर वे उसके लिए कुछ कर पायें.
पहले रोज ही मैंने कोशिश की मगर मैंने देखा कि लोगों की रूह को खौफ ने किस कदर कुतर ड़ाला था. मैंने बमुश्किल नाम लिया नहीं कि उनके चेहरे का रंग उतर जाता सॉरी, इसमें मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता, सवाल ही नहीं उठता है ,एक के बाद एक, सबसे मुझे यही जवाब मिलता. मैं बड़ा शर्मसार होकर लौटा.क्या वह परेशान औरत शक नहीं करेगी कि यही था हर मुमकिन कर सकने का मेरा वादा? और मैंने किया भी कुछ नहीं था बस, एक गुंजाइश थी : सीधे-सीधे उस आदमी को खत लिखना जिसके हाथों फैसले की डोर थी यानी खुद मुसोलिनी को और मैंने वही किया मैंने एक सीधा सपाट खत लिखा. मैंने लिखा कि मैं उसकी शान में कसीदे नहीं कसना चाहता हूं और यह भी बतला दूँ कि न तो मैं उस आदमी को जानता हूं और न उसके जुर्म की संगीनियत को हाँ, उसकी पत्नी को मैंने जरूर देखा है, जो बेशक, बेगुनाह थी. उसके पति को यदि दस बरस जेल में काटने पडे तो उम्रकैद का पुर-असर उसे भी भुगतना पडेग़ा. सजा की निन्दा करने का मेरा कतई इरादा नहीं है, बस यही इल्तिजा है कि उस औरत की जिन्दगी बच जायेगी अगर उसके पति को सजा के बतौर किसी कारावासी-द्वीप के बजाय ऐसी जगह रख दिया जाये जहाँ औरत और बच्चे, सजायाफ्ता के साथ रहें, न कि किसी सुधारालय में.
मैंने खत लिया, महामहिम बैनिटो मुसोलिनी का पता लिखा और साल्जबर्ग के आम ड़ाकखाने में ड़ाल आया. चार दिन बाद, वियना स्थित इतालवी प्रतिनिधि ने मुझे लिखा कि महामहिम मुझे धन्यवाद देना चाहते हैं और यह बतलाना चाहते हैं कि उन्होंने मेरी अर्जी मंजूर कर ली है और सजा को भी घटाने का हुक्म दे दिया है. उसी समय इटली से इस बात की पुष्टि करता हुआ टेलिग्राम भी आ गया कलम की एकमुश्त घसीट से मुसोलिनी ने निजी तौर पर मेरी अर्जी मंजूर कर दी थी और अति तो यूँ हुई कि उसके बहुत जल्द, कैदी को पूरी माफी भी दे दी गयी. जिन्दगी में दूसरे किसी खत ने मुझे इससे ज्यादा आनन्द और संतोष कभी नहीं दिया है. मैं यदि अपनी किसी साहित्यिक कामयाबी के बारे में सोचता हूं तो इस वाकये को मैं खास आभार से याद करता हूं.(hindisamay.com से साभार)

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