Monday 8 July 2013

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा-4


ओमा शर्मा

रिचर्ड स्ट्रॉस और 'खामोश औरत' का किस्सा

जर्मनी में अपने लेखकीय अस्तित्व के संपूर्ण विध्वंस के नसीब को थामस मान, हाइनरिख मान, वर्फेल, फ्रायड, आइंस्टीन जैसे उत्कृष्ट समकालीनों के साथ शेयर करने की छूट को मैंने असम्मान के बजाय अपना सम्मान अधिक समझा इन जैसे दूसरे कइयों के अवदान को मैं अपने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझता हूं किसी तरह का शहादताना संकेत देना मेरे गले नहीं उतरता है. इसलिए इन सबके साथ खुद को मैं बडे बेमन से शामिल कर रहा हूं लेकिन क्या अजीब संयोग कि नेशनल सोशलिस्टों और एडोल्फ हिटलर तक को जाती तौर पर शर्मसार स्थिति में ड़ालना मेरे हिस्से ही बदा था बर्शेटेसगार्डन कस्बे के ऊँचे लोगों के बीच लंबी-तगडी और गरमागरम बहसों का छीका, साहित्यिक बहसों में बार-बार मेरे सिर पर ही फूटना था नतीजतन, आधुनिक काल के सबसे ताकतवर शख्स एडोल्फ हिटलर को नाखुश करने का मुझे फुरफुरा संतोष है जिसे मैं जिंदगी की दूसरी खुशगवार चीजों के साथ दर्ज कर सकता हूं.
नयी हुकूमत के बहुत शुरूआती दिनों में, बडे अनजाने ही मेरी वजह से बवाल-सा मच गया मेरी कहानी 'द बर्निंग सीक्रेट' पर उसी नाम की फिल्म बनी थी जिसे पूरे जर्मनी में दिखाया जा रहा था किसी ने उस पर रत्तीभर एतराज नहीं जताया मगर राइशटेग की आग के अगले रोज (नेशनल) सोशलिस्टों ने खामखां ही उसकी जिम्मेवारी कम्युनिस्टों के मत्थे मढने की कोशिश की थी, देखने में आया कि थिएटर में लगे इस्तिहार के नीचे लोग एक दूसरे को धकमपेल कर रहे हैं, नैन मटका रहे हैं, खिलखिला रहे हैं जीस्टेपो को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी कि इस नाम में क्या चीज हास्यप्रद है क्योंकि शाम तक तो पुलिस वालों का जमघट हो गया था फिल्म के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी गई और अगले रोज तो सभी अखबारों, विज्ञापनों और पोस्टरों से मेरी कहानी का शीर्षक 'द बर्निंग सीक्रेट' नामोनिशां छोडे बगैर गायब हो गया. उनके लिए बहुत आसान था कि चिढाने वाले किसी भी लफ्ज पर पाबंदी लगा दें या, उन किताबों को ही जला-फाड दें जिनके लेखक उन्हें नापसंद हों मगर एक खास मामले में वे मुझ अकेले का नुकसान नहीं कर पाये साथ-साथ उस आदमी को भी नुकसान उठाना पड़ा जिसकी दुनिया के सामने अपनी प्रतिष्ठा की खातिर, उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत थी यह थे जर्मन राष्ट्र के सबसे बडे ज़ीवित संगीतकार रिचर्ड स्ट्रॉस जिनकी संगत में मैंने तभी एक ओपेरा पूरा किया था.
रिचर्ड स्ट्रॉस के साथ यह मेरी पहली जुगलबंदी थी 'इलेक्ट्रा - 2 ' और 'रोजेनकैवेलियर' के जमाने से ही ह्यूगो फान हाफमंसथाल ने उनके सभी ओपेरा पाठ लिखे थे निजी तौर पर कभी रिचर्ड स्ट्रॉस से मैं तो कभी मिला नहीं था हाफमंसथाल की मौत के बाद उन्होंने मेरे प्रकाशक को सूचित किया कि वे एक नयी प्रस्तुति शुरू करना चाहते हैं और तफतीश की कि क्या उनके लिए ओपेरा पाठ लिखने का मेरा मन है इस पेशकश के सम्मान की मुझे खूब खबर थी मैक्स रीगर द्वारा अपनी शुरूआती कविताओं को संगीतबद्ध किए जाने के जमाने से ही मैं संगीत और संगीतकारों के बीच उठता-बैठता आया था बुसौनी तोस्कानिनी, बू्रनो वाल्टर और अल्बन बर्ग के साथ मेरी करीबी दोस्ती थी हान्डल से लेकर बाख और बीथोविन से चलकर हमारे जमाने के ब्रहम्स तक के सिद्धहस्त संगीतकारों की शानदार परंपरा की वे आखिरी कडी थे. रिचर्ड स्ट्रॉस से बेहतर सृजनात्मक संगीतकार और कौन हो सकता था जिसके साथ मैं खुशी-खुशी काम करना चाहता. मैंने तुरंत हामी भर दी. पहली मुलाकात में ही मैंने बेन जोन्सन की 'द साइलेंट वोमेन' के थीम को ओपेरा का आधार बनाने का मशविरा दिया. जितनी फुर्ती और साफगोई से रिचर्ड स्ट्रॉस ने मेरे सुझावों पर दिल छिडक़ा, उसे देखकर मुझे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि उनके पास कला के प्रति ऐसी चौकन्नी निगाह और नाटयकला का ऐसा चौंकाने वाला ज्ञान होगा अभी उन्हें चीजों की फितरत समझाई ही जा रही थी कि नाटयांतरण के लिहाज से उन्होंने उसे ढालना-सँवारना और हैरतन ढंग से अपनी काबिलियत जिसके प्रति वे अलौकिक रूप से सचेत थे, की हदों से ताल-मेल बैठाना भी शुरू कर दिया. जिंदगी में मेरा बहुत सारे बडे क़लाकारों से वास्ता पड़ा है मगर ऐसा कोई नहीं था जिसे खबर हो कि अपने प्रति अमूर्त और अचूक वस्तुपरकता कैसे बनाए रखी जाए. हमारी मुलाकात के पहले घंटे में ही स्ट्रॉस ने खुलेआम कबूल किया कि सत्तर की उम्र में उनकी झोली में संगीत की वैसी प्रेरणाएं नहीं बची हैं जिनका कभी जलवा जवान था 'शेखचिल्ली होने तक' (टिल यूलेनस्पीगल) और 'मौत और रूपांतरण' (ट्रांसफिगरेशन) जैसी स्वरलहरियाँ (सिम्फनी) रचने में वे शायद ही कामयाब हो पाएँ क्योंकि विशुद्ध संगीत को चरम सृजनात्मक ताजगी चाहिए होती है लेकिन अल्फाज उन्हें अभी भी गुदगुदाते थे. ठोस शक्ल की कोई चीज, ऐसा पदार्थ जिस पर पाड बँध चुकी हो, उन्हें पूरे नाटयांतरण के लिए ललचाती थी क्योंकि हालात और अल्फाज से खुद-ब-खुद उन्हें संगीत के थीम सूझते थे. बाद के बरसों में इसीलिए वे अपना पूरा वक्त ओपेरा में ही लगा रहे थे. उन्होंने कहा कि वे मानते हैं कि कला-प्रस्तुति के रूप में ओपेरा के दिन लद गए हैं वैगनर तो ऐसा शिखर था कि उससे आगे कोई जा ही नहीं सकता अपनी चौडी बावेरियाई खीस के साथ वे बोले ''मगर मैंने समस्या सुलझाई, उसके आसपास एक घुमावदार रास्ता निकालकर'' जब हम मसौदे पर राजी हो गए तो उन्होंने मुझे छुटपुट हिदायतें दीं वे चाहते थे कि मैं बेखटक होकर लिखूँ क्योंकि विरदी ओपेरा पाठ के बाद किसी बनी-बनाई किताब ने उन्हें कभी नहीं गुदगुदाया उन्हें तो बस ऐसे काम में रस आता है जो काव्यात्मक ढंग से सँवारा गया हो. मैं यदि किसी जटिल प्रभाव की रचना मुहैया करा सकूँ तो भी उन्हें मुफीद रहेगा क्योंकि इससे उन्हें अलग मिजाज इस्तेमाल करने की गुंजाइश मिल जाएगी ''मैं मोजार्ट जैसी लंबी धुनें नहीं बनाता छोटे-छोटे कथानकों से आगे मैं जा ही नहीं सकता मगर मैं इनका इस्तेमाल जरूर कर सकता हूं .उनके भावानुवाद की मार्फत उनका पूरा अर्क निकाल सकता हूं और मैं नहीं समझता कि इसमें आज कोई मेरे मुकाबिल हो सकता है'' उनकी साफगोई से मैं एक बार फिर हक्का-बक्का रह गया क्योंकि यह बिल्कुल सही है कि स्ट्रॉस की शायद ही कोई धुन चंद तालों से लंबी होगी मिसाल के तौर पर 'रोजेनकैवेलियर' के संगीत को ही लो यही चन्द ताल मिलकर कैसे समृद्ध सुकून का दो-गाना बन जाते हैं
अपनी रचनाओं को वह बुढऊ उस्ताद जिसे निस्संदेह और निष्पक्षता से आँकते थे इस बाबत अगली मुलाकातों ने उनके प्रति मेरी इज्जत और पुख्ता कर दी साल्जबर्ग नाटय उत्सव में उनकी 'मिस्र की हैलेना'की निजी रिहर्सल के मौके पर मैं उनके साथ अकेला बैठा था दूसरा और कोई नहीं निबिड अँधेरी जगह स्ट्रॉस ध्यान से सुनते रहे फिर एकाएक बेसब्री में अपनी ऊँगलियों से उन्होंने कुर्सी के हत्थे पर कानफोडू शोर निकालना शुरू कर दिया फिर मुझसे फुसफुसाए ''खराब, एकदम खराब वह जगह सूनी पडी है''..... कुछ पल बाद फिर बोले ''इसे भी निकाल फेंका जाए, हे भगवान, वह तो एकदम खोखली है लंबी है, बहुत ज्यादा लंबी है'' फिर कुछ देर बाद..... ''तुम देखो, वो ठीक है . अपने ही संगीत का वह ऐसा वस्तुपरक और निरपेक्ष आंकलन करते जैसे उसे पहली दफा सुन रहे हों; गोकि उसके रचयिता से अनजान हों अपनी क्षमताओं के इस विस्मयकारी बोध ने उन्हें कभी दगा नहीं दिया अपनी हैसियत और अहमियत का उन्हें हमेशा मुकम्मल एहसास रहता खुद के बरक्स दूसरे कहाँ ठहरते हैं इससे उन्हें वास्ता नहीं था या था भी तो उतना ही जितना दूसरों को उनसे होगा बस, सृजन से ही उन्हें आनंद मिलता था
और स्ट्रॉस के काम करने का तरीका था भी काफी निराला कुछ भी महिमामंडन नहीं कलाकारों जैसा कोई फितूरी उल्लास नहीं अवसाद और निराशा के जो किस्से हमने बीथोविन और वैगनर के बारे में सुन रखे थे, ऐसा-वैसा भी कुछ नहीं स्ट्रॉस एकटक होकर काम करते हैं और धुन बनाते हैं जॉन सैबस्टियन बाख की तरह 5 अपनी कला के उन तमाम उदात्त शिल्पियों की तरह चुपचाप और सिलसिलेवार सुबह नौ बजे वह गए रोज के अधूरे काम को आगे बढाने बैठेंगे धुन के पहले मसौदे को हमेशा पेंसिल से लिखते हैं और पियानों के गीत को स्याही से यह सब बेनागा दोपहर बारह या एक बजे तक चलता है. दोपहर बाद वे पत्तों का जर्मन खेल 'स्कैट' खेलते हैं, धुन के दो-तीन पन्नों को अंतिम रूप देते हैं और शाम को ओपेरा संचालित करते हैं. तमकना क्या होता है, वे बेखबर हैं दिन हो या रात, उनका कलाकार मन चौकस चहकता रहता है उनका नौकर जब शाम की पोशाकें लेकर दरवाजे पर दस्तक देता है तब वे काम से उठ जाते हैं. कपडे पहने और थिएटर की तरफ गाडी रवाना और वहाँ उसी विश्वास और शांतभाव से संगीत संचालन करते हैं, जिससे दोपहरिया में वे 'स्कैट' के पत्ते खेलते हैं, अगली सुबह अंतःप्रेरणा फिर उनकी गोदी में आ बैठेगी. गेटे के शब्दों में कहूं तो स्ट्रॉस अपनी कल्पनाओं पर 'पकड' रखते हैं. उनके लिए कला का मतलब है जानना, सब कुछ जानना. ठिठोली में उन्होंने जतलाया भी ''कोई अगर सच्ची का संगीतकार बनना चाहता है तो उसमें साग-भाजी के नाम की फेहरिस्त तक को सुरों में साधने की कूवत होनी चाहिए''.
डराने के बजाय मुश्किलें उसकी रचनात्मक उस्तादी को और फुरफुराती हैं. मुझे याद करते हुए खुशी होती है कि किसी मुखडे क़े बारे में बताते हुए उनकी आँखें हुमस से कैसी चमक उठती थीं. ''मैंने गायिका को लोहे का चना चबाने को दे दिया है फोडने के लिए करने दो उसे जमीन-आसमान एक करने की मशक्कत'' ऐसे विरल क्षणों में उनकी आँखें चमक उठतीं तो लगता इस लाजवाब शख्स के भीतर एक अलौकिक एकांत है. उसकी समयनिष्ठा, सिलसिलेवार तरीका, उसकी प्रतिष्ठा, उसका हुनर और काम के दौरान उसकी बेफिक्र भंगिमा को देख पहले-पहल किसी को बदगुमानी हो जाए. वैसे ही जैसे उसके गोल-मटोल मामूली चेहरे के बच्चों से गाल, नैन-नक्स की बेहद मामूली गोलाई और शर्माती सिकुडती भवें पहले-पहल किसी को मोह लें लेकिन उनकी नीली, कान्तिमय इन्हीं चमकीली आँखों में कोई एक बार झाँक ले तो उस बुर्मुआजी मुखौटे के पीछे के किसी जादू का एहसास कर ले. किसी संगीतकार की मेरी देखी वे शायद सबसे भव्य-चैतन्य आँखें होंगी जो अलौकिक न सही पर कहीं न कहीं अलोकदर्शी हैं उस आदमी की आँखें जो अपने सृजन की पूरी अहमियत से वाकिफ हो.
इतनी प्रेरणाप्रद मुलाकात के बाद साल्जबर्ग लौटकर मैंने तुरन्त काम शुरू कर दिया. मेरे लिखे छंदों को उनके विचारों की सम्मति मिल पाएगी, इस बारे में मैं स्वयं उत्सुक था इसलिए दो हफ्ते के अंदर ही मैंने उन्हें पहला भाग भेज दिया 'द मीस्टर सिंगर' को उद्धृत करते हुए उन्होंने फौरन लिखा, ''पहली ॠचा कामयाब हुई''. दूसरे भाग के बारे में उनकी राय और भी तबीयत भरी थी गीत के बोलों ''ओ मेरे दुलारे बच्चे, मिल गया जो तू मुझे'' पर उनके आनंद और उत्साह ने काम करने में मेरे तईं बेशुमार खुशी भर दी. स्ट्रॉस ने मेरे ओपेरा पाठ की एक लाइन भी नहीं बदली बस उसके पूरक के लिहाज से तीन-चार लाइनें और जोडने को कहीं इस तरह हमारे दरमियाँ बडे ज़िगरी ताल्लुक कायम हो गए वे हमारे घर आए और मैं उनसे मिलने गारमिश जाता जहाँ अपनी लंबी पतली उंगलियों से, स्कैच के सहारे, पिआनो पर वे आहिस्ता-आहिस्ता मेरे लिए पूरी ओपेरा धुन बजाते बिना किसी शर्त या बंदिश के हमने यह मान-स्वीकार लिया था कि इस ओपेरा के बाद मैं दूसरे ओपेरा की तैयारी में जुट जाऊँ जिसकी योजना उन्होंने पहले ही मंजूर कर दी थी.
1933 की जनवरी में जब हिटलर ने सत्ता संभाली तो हमारे ओपेरा ''खामोश औरत'' की धुन पूरी हो चुकी थी. उसका पहला भाग लगभग मंचित हो चुका था. चंद हफ्ते बाद जर्मनी के थिएटरों को सख्त आदेश जारी किया गया कि वे किसी गैर आर्य की कोई रचना मंचित नहीं करें कोई यहूदी उसमें शामिल-भर हो, तब भी नहीं. यह व्यापक पाबंदी मुर्दों तक पहुँच गयी. हर तरफ संगीत-प्रेमियों को बेइज्जत करते हुए मेंडलसॉ के बुत को लीपसिग में गेवनहाउस के सामने से हटा दिया गया. मुझे लगा, अब तो हो लिया. अपना ओपेरा कहने की जरूरत नहीं थी कि उस पर आगे के काम को रिचर्ड स्ट्रॉस खारिज कर देंगे और किसी और के साथ दूसरा शुरू करेंगे. उल्टे उन्होंने मुझे चिट्ठियाँ लिख-लिखकर गुहार की कि मुझे क्या हो गया है. उन्होंने बतलाया कि वह पहले की प्रस्तुतियों में लगे हुए हैं इसलिए चाहते हैं कि मैं अगले ओपेरा के लेखन में लग जाऊँ. वह किसी को इजाजत नहीं देंगे कि हमारी जुगलबंदी नहीं हो और मैं मानता हूं कि पूरे वाकये के दौरान जहाँ तक बन पड़ा उन्होंने मुझ पर यकीन बनाए रखा इसी के साथ उन्होंने ऐसे कदम भी उठाए जो मुझे कम-पसंद थे यानी उन्होंने सत्तासीन लोगों की पैरवी की. कई बार हिटलर, गोरिंग और गोएबल्स से मिले और ऐसे वक्त जब फूर्तव्यूंगलर तक में विद्रोह भडक़ा हुआ था, उन्होंने खुद को नाजियों के संगीत सदन का अध्यक्ष बन जाने दिया.
इस मकाम पर स्ट्रॉस की खुलेआम भागेदारी नेशनल सोशलिस्टों के लिए बडे अहम की चीज थी. अव्वल लेखकों और बडे-बडे संगीतकारों ने उन्हें सरासर दुत्कार दिया था. जो थोडे बहुत उनके साथ चिपके रहे या चौहद्दी पर बैठने आए, जन-साधारण के लिए तो अनजान ही थे. ऐसे शर्मसार वक्त में, ऊपरी साज-सज्जा के लिहाज से, जर्मनी के सबसे मशहूर संगीतकार को अपने पाले में लेना गोएबल्स और हिटलर की बहुत बडी ज़ीत थी. स्ट्रॉस ने मुझे बताया कि अपनी आवारगी के दिनों में हिटलर ने इतना धन जोड लिया था कि ग्राज में 'सलोम' का प्रीमियर देखने आया था हिटलर दिखा-दिखाकर उनका सम्मान कर रहा था. बर्शेस्टगेडन की उत्सव-संध्याओं पर वैग्नर के अलावा स्ट्रॉस के गाने ही तकरीबन पूरी तरह बजते थे मगर स्ट्रॉस का सहयोग ज्यादा मतलबपरक था जिसे अपने कला अहूं के बावजूद वह खुले तौर पर स्वीकारते थे हुकूमत चाहे कोई हो, उसके प्रति वह अंदर से बेमने ही रहते वादक के तौर पर उन्होंने जर्मन काइजर को अपनी सेवाएँ दी थीं उसके लिए फौजी रवायतों का इंतजाम किया था. बाद में उन्होंने ऑस्ट्रिया बादशाह के सरकारी वादक के तौर पर वियना में भी काम संभाला. ऑस्ट्रिया और जर्मनी, दोनों ही गणराज्यों में उन्हें एक-सा सरकारी संरक्षण हासिल था. इसके अलावा नेशनल सोशलिस्टों की सोहबत उठाना उनके बडे अहम हित की बात थी क्योंकि नेशनल सोशलिस्टों के हिसाब से तो उँगली उनकी तरफ भी उठ सकती थी, उनके बेटे ने एक यहूदी लडक़ी से ब्याह किया था. उन्हें डर था कि उनके पोतों को स्कूल में मैल की तरह अलग न छिटक दिया जाए, उन्हीं को तो वे दुनिया में सबसे ज्यादा चाहते थे. उनका नया ओपेरा मेरी वजह से दागी हो गया था और इसके पहले वाला ओपेरा नीम¬यहूदी ह्यूगो फान हाफमंसथाल की वजह से.
इसलिए किसी तरह का संबल और कवच खड़ा करना उनके लिए और भी लाजमी हो गया था बडी ज़ी-तोड मेहनत से उन्होंने किया भी यही जहाँ-जहाँ उनके हाकिम उनसे संगीत प्रस्तुतियाँ करवाना चाहते थे, वहाँ-वहाँ उन्होंने की उन्होंने ओलंपिक खेलों की धुन बनाई मगर साथ-साथ इस भूल की सफाई में बिना किसी जोश के मुझे खरे-खरे खत भी लिखे. दरअसल अपने स्वांतः सुखाय के चलते उन्हें एक ही चीज की परवाह थी, अपने सृजन को बचाए रखना और अपनी दिली चाहत के काम यानी ओपेरा प्रस्तुति को सर्वोपरि रखना.
कहने की दरकार नहीं कि नेशनल सोशलिस्ट पार्टी को इस तरह की रियायतें बख्शना मेरे लिए बड़ा तकलीफदेह था इससे लोगों पर बडी अासानी से यह छाप पड सकती थी कि मैंने उनसे साठ-गांठ की या इस बात के लिए तैयार हुआ कि उनके शर्मनाक बॉयकाट से मुझे बरी रखा जाए सारे दोस्त मुझे समझाने लगे कि नेशनल सोशलिस्टों की जर्मनी में की जाने वाली प्रस्तुति के खिलाफ मुझे सार्वजनिक विरोध दर्ज करना चाहिए लेकिन सार्वजनिक और दयनीय दिखावों से मुझे बडी चिढ है अलावा इसके, मैं उन जैसे जीनियस की मुश्किलों की वजह बनने से कतरा रहा था. आखिर स्ट्रॉस महानतम जिंदा संगीतकार थे. सत्तर की उमर... इस काम पर तीन बरस खपा चुके थे इस दौरान उन्होंने हमेशा ही सबसे दोस्ताना जज्बात और नीयत (यहाँ तक कि हिम्मत भी) का परिचय दिया था इसलिए मैंने सोचा कि चुपचाप बैठकर इंतजार करूँ जो होगा देखा जाएगा. दूसरे, मुझे खबर थी कि पूरी तरह निष्क्रिय रहकर मैंने जर्मन संस्कृति के नए सिपहसालारों की दिक्कतों में इजाफा कर दिया था .
नेशनल सोशलिस्ट चैम्बर के लेखक और सूचना मंत्रालय तो थे ही इस फिराक में कि किस वजह या बहाने की आड में अपने सबसे बडे संगीतकार के खिलाफ जमकर प्रतिबंध लगा सकें और हुआ ये कि हर ऐरा-गैरा दतर और शख्स, कोई न कोई बहाना खोजने की पोशीदा उम्मीद में उस ओपेरा पाठ की कॉपी माँगने लगा. 'खामोश औरत' में 'रोजनकैवेलियर' जैसा कोई दृश्य होता जिसमें एक नौजवान, विवाहित औरत के बैडरूम से बाहर निकलता है तो उनके लिए बडी सहूलियत रहती क्योंकि तब वे जर्मन नैतिकता के बचाव की दुहाई दे सकते थे मगर उनकी बदनसीबी कि मेरी किताब में वे कुछ भी अनैतिक नहीं खोज पाए. तब मेरी सभी किताबें और जीस्टेपो की सभी फाइलें खंगाल मारी गईं मगर वहाँ भी ऐसा कुछ हाथ नहीं लगा जिससे लगे कि मैंने जर्मनी (या धरती के दूसरे किसी मुल्क) के खिलाफ एक लफ़्ज भी कहा हो या कि मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय था. मगर उन्होंने चाल चली, फैसला तो उन्हीं के हक में आना था. जिस बुजुर्ग उस्ताद के हाथों उन्होंने खुद नेशनल सोशलिस्ट की परचम थमाई थी, क्या उसी को वे ओपेरा मंचित करने की मनाही कर सकते थे? या कितने राष्ट्रीय अपमान की बात होगी अगर स्टीफन स्वाइग का नाम ओपेरा पाठ की प्रस्तुति में चला जाए? रिचर्ड स्ट्रॉस ने तो अपनी जिद पकड रखी थी खैर, जर्मनी के थिएटरों में यह तो पहले भी न जाने कितनी बार हो चुका था. उनकी इन चिंताओं और सरदर्दी ने मन ही मन मुझे कितना सुकून दिया मुझे लगा कि मेरे बिना कुछ करे-धरे या इधर-उधर कुछ किए बगैर भी मेरी संगीत-प्रहसनिका अंततः दलगत राजनीति का अखाड़ा बन गई. जब तक मुमकिन रहा, पार्टी फैसला करने से कन्नी काटती रही. मगर 1934 की शुरूआत में इसे फैसला करना था कि अपने कानून के खिलाफ जाए या दौर के सबसे बडे संगीतकार के ओपेरा की तारीख को और टालना मुमकिन नहीं था ओपेरा पाठ का पिआनो संस्करण छप गया था ड्रेसडन थिएटर ने पोशाकों के आर्डर दे दिए थे किरदार न सिर्फ बँट चुके थे बल्कि तह तक समझ लिए गए थे मगर विभिन्न सत्ता केन्द्र, गोरिंग और गोएबल्स, लेखक संघ, संस्कृति परिषद, शिक्षा मंत्रालय और प्रहरी-प्रभाग (स्ट्राइशर गार्ड) राजी ही नहीं हो पा रहे थे13 इनमें से कोई विभाग हाँ या ना कहने की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहा. जब कोई रास्ता नहीं बचा तो मामले को जर्मनी और पार्टी के सर्वेसर्वा, एडोल्फ हिटलर के निजी फैसले के लिए छोड दिया गया नेशनल सोशलिस्टों के बीच मेरी किताबें खूब पढी ज़ाती थीं. राजनीतिक इखलाक के लिए 'फाउश' को पढक़र उन्होंने खास सराहा था मगर सच, मैंने कभी यह उम्मीद नहीं रखी थी कि मैं निजी तौर पर एडोल्फ हिटलर को अपने छन्दबद्ध ओपेरा पाठ के तीन भागों को पढने की जहमत उठवाऊँगा. उसके लिए भी फैसला आसान नहीं था. मुझे बाद में पता चला कि इस मामले में घूम-फिरकर कई बैठक हुईं. अंत में, रिचर्ड स्ट्रॉस की सर्वशक्तिमान हिटलर के सामने पेशी हुई. हिटलर ने उनसे रूबरू कहा कि इस प्रस्तुति की अनुमति वह एक अपवाद के तौर पर देगा. हालांकि नए जर्मनी के सारे कानूनों के मुताबिक यह गुनाह बनता है यह फैसला उसने संभवतः उसी अनिच्छा और बदनीयती से लिया था जिसके साथ उसने स्तालिन और मोलोतोव के साथ करारों पर दस्तखत किए थे.
ओपेरा प्रस्तुति के पोस्टरों पर जैसे ही स्टीफन स्वाइग का मनहूस नाम दिखा, नेशनल सोशलिस्ट जर्मनी में कहर बिफर गया. मैं तो खैर उस प्रस्तुति में नहीं गया था क्योंकि पता था उसमें कत्थई वर्दीधारी दर्शकों की भरमार होगी. खुद हिटलर एक शो देखने आने वाला था. ओपेरा खूब कामयाब रहा. संगीत पारखियों की शान में कहना होगा कि नब्बे फीसदियों ने इस मौके पर नस्ली सिद्धान्त की अंदरूनी खिलाफत करने का सबूत पेश करते हुए एक बार फिर और आखिरी बार मेरे ओपेरा पाठ के बारे में हर मुमकिन दोस्ताना लज लिखे. जर्मनी के सभी थिएटरों बर्लिन, हमबर्ग, फ्रैंकफर्ट, म्यूनिख ने अगले सत्रा में ओपेरा प्रस्तुति की तुरंत घोषणा कर दी.
दूसरे शो के बाद अचानक ही आसमान टूट पड़ा. रातों-रात हर चीज रद्द कर दी गई. डेसडन और पूरे जर्मनी में ओपेरा पर पाबन्दी लगा दी गई और तो और, लोग पढक़र सकते में आ गए कि रिचर्ड स्ट्रॉस नये संगीत के राइखचेम्बर से इस्तीफा दे दिया है. सबको खबर थी कि जरूर कोई खास बात हुई होगी मगर थोडे समय बाद मुझे सारी सच्चाई पता चल गई स्ट्रॉस ने एक बार फिर मुझे खत लिखकर गुजारिश की कि मैं नए ओपेरा पाठ लिखने की शुरूआत कर दूँ. अपने निजी मिजाज के बारे में उन्होंने कुछ ज्यादा साफगोई से अपने ख्याल जाहिर कर दिए थे. यह खत जीस्टेपो के कारिन्दों के हाथ पड ग़या. स्ट्रॉस की पेशगी हुई. उन्हें तुरंत इस्तीफा देने को कहा गया और उनके ओपेरा पर पाबंदी लगा दी गई. जर्मन भाषा में इसे सिर्फ स्वतंत्र स्विट्जरलैंड और प्राग में ही दिखाया गया है. बाद में, मुसोलिनी की विशेष अनुमति से, इसे मिलान के स्काला में इतालवी में भी पेश किया गया क्योंकि तब तक मुसोलिनी को हिटलर के नस्ली विचारों को मानने की मजबूरी नहीं थी. जर्मन जनता को मगर यह इजाजत नहीं मिली कि वह अपने महानतम जीवित संगीतकार द्वारा बुढापे में बनाए इस मुग्धकारी ओपेरा की एक भी धुन दोबारा सुन ले, इसमें मेरा कसूर नहीं है. (hindisamay.com से साभार)

No comments:

Post a Comment