Monday 8 July 2013

पाब्लो नेरूदा की कविताएं

 प्रकाश ढाँपता है तुम्हें

ढँक देता है प्रकाश अपनी मरणशील दीप्ति से तुम्हें
अनमने फीके दुख खड़े हैं उस राह
साँझ की झिलमिली के पुराने प्रेरकों के विरुद्ध
वे लगाते चक्कर तुम्हारे चारों तरफ़
वाणी रहित, मेरी दोस्त, मैं अकेला
अकर्मण्य समय के इस एकान्त में
भरा हूँ उमंग और जोश की उम्रों से,
इस बरबाद दिन का निरा वारिस
सूर्य से गिरती है एक शाख फलों से लदी, तुम्हारे गहरे पैरहन पर
रात की विशाल जड़ें अँकुआतीं तुम्हारी आत्मा से अचानक
तुममें छिपी हर बात आने लगती है बाहर फिर से
ताकि तुम्हारा यह नीला-पीला नवजात मनुष्य पा सके पोषण!
ओ श्याम-सुनहरे का फेरा लगाने वाले वृत्त की
भव्य, उर्वर और चुम्बकीय सेविका
उठो, अगुवाई करो और लो अधिकार में इस सृष्टि को
जो इतनी समृद्ध है जीवन में कि उसका उत्कर्ष नष्ट हो जाने वाला है
और यह उदासी से भरी है ।

चीड़ों का विस्तार

अहा! चीड़ों का विस्तार, सरसराहट टूटती लहरों की,
रोशनियों का धीमा खेल, अकेली घण्टी
साँझ की झिलमिली गिरती है तुम्हारी आँखों में, गुड़िया,
और भूपटल पर जिसमें यह धरती गाती है!
गाती हैं तुममें नदियाँ और मेरी आत्मा खो जाती है उनमें
जैसा चाहती हो तुम वैसा भेज देती हो इसे जहाँ चाहे
तुम्हारी उम्मीद के धनुष पर लक्ष्य करता हूँ अपनी राह
और एक उन्माद में छोड़ देता हूँ अपने तरकश के सारे तीर
हर तरफ़ से देखता हूँ धुंध से ढँका तुम्हारा कटि-प्रदेश
तुम्हारी चुप्पी पकड़ लेती है मेरे दुखी समय को;
मेरे चुंबन लंगर डाल देते हैं
और घरौंदा बना लेती है मेरी एक विनम्र इच्छा
तुम्हारे भीतर स्फटिक पत्थर-सी तुम्हारी पारदर्शी भुजाओं के पास
आह! भेद-भरी तुम्हारी आवाज़, जो प्रेम करती है
मृत्यु-सूचनाओं के घंट-निनादों से, और उदास हो जाती है
अनुगूँजित मरती हुई शाम में!
एक दुर्बोध समय में, इस तरह मैंने देखा खेतों के पार,
गेहूँ की बालियों की राहदारी करते हुए हवा के मुख में ।

ताकि तुम मुझे सुन सको

ताकि तुम सुन सको मुझे
मेरे शब्दों को
कभी-कभी वे होते विरल
समुद्री चिड़ियों के पदचिन्हों-से समुद्र-तटों पर
यह गलहार मदमस्त घंटी
छैलकड़ी तुम्हारे अंगूरी नरम हाथों के लिए
और मैं देखता हूँ अपने शब्दों को एक लम्बी दूरी से
मुझ से बहुत अधिक वे तुम्हारे हैं,
लता की तरह मेरी पुरानी पीड़ाओं पर वे करते आरोहण
जो चढ़ती सीलन-भरी दीवारों पर इसी तरीक़े से,
इस निष्ठुर क्रीड़ा के लिए दोषी हो तुम,
वे निकल भागते मेरे उदास-अंधेरे बिछौने से,
सब कुछ भर देती हो, तुम भर देती हो सब कुछ
तुमसे पहले आबाद कर देते हैं मेरे शब्द
उस एकान्त को, जहाँ तुम जगह लेती हो,
और तुम्हारी बनिस्बत मेरी उदासी में अधिक काम के हैं वे !
अब मैं उन्हें कहना चाहता हूँ जो मैं चाहता रहा हूँ तुम्हें कहना
सुनने के लिए तैयार करते हुए कि; मैं चाहता हूँ तुम सुनो मुझे
व्यथा की हवाएँ चुपचाप खींच ले जाती हैं हमेशा की तरह
कभी-कभी सपनों के तूफ़ान निश्शब्द खटखटाते हैं उन्हें
तुम ध्यान देती हो दूसरी आवाज़ों पर मेरी दुख भरी अभिव्यक्ति के बीच
जैसे पुराने सुने शोकगीत, पुरानी प्रार्थनाओं के स्वभाव, कुल-गोत्र
प्यार करो मुझे मेरे साथी, यूँ त्यागो नहीं,
अनुसरण करो मेरा, मेरी मित्र, दुख की इस तेज़ लहर में ।
पर मेरे शब्द तो तुम्हारे प्रेम से रंगे हैं
घेर लिया है सब कुछ तुमने, तुमने घेर लिया सभी कुछ
रच रहा हूँ उन्हें एक अन्तहीन माला में


स्त्री देह

स्त्री देह, सफ़ेद पहाड़ियाँ, उजली रानें
तुम बिल्कुल वैसी दिखती हो जैसी यह दुनिया
समर्पण में लेटी--
मेरी रूखी किसान देह धँसती है तुममें
और धरती की गहराई से लेती एक वंशवृक्षी उछाल ।
अकेला था मैं एक सुरंग की तरह, पक्षी भरते उड़ान मुझ में
रात मुझे जलमग्न कर देती अपने परास्त कर देने वाले हमले से
ख़ुद को बचाने के वास्ते एक हथियार की तरह गढ़ा मैंने तुम्हें,
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में
गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन, और मैं तुझे प्यार करता हूँ
चिकनी हरी काई की रपटीली त्वचा का, यह ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ मैं
ओह ! ये गोलक वक्ष के, ओह ! ये कहीं खोई-सी आँखें,
ओह ! ये गुलाब तरुणाई के, ओह ! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास !
ओ मेरी प्रिया-देह ! मैं तेरी कृपा में बना रहूंगा
मेरी प्यास, मेरी अन्तहीन इच्छाएँ, ये बदलते हुए राजमार्ग !
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,
और यह असीम पीड़ा !

सुबह है भरपूर

सुबह है भरपूर झंझावात से
ग्रीष्म के हृदय में
मेघ करते हैं यात्रा विदा के सफ़ेद रुमालों की तरह,
सफ़री हवा लहराती उन्हें अपने हाथों में
असंख्य दिल हवा के धड़कते
हमारी प्यारी-सी चुप्पी के ऊपर
पेड़ों के बीच दिव्य
और वाद्यवृन्दीय-सा कुछ गूँजता
युद्धों की भाषा और गीतों जैसा
एक फुर्तीले धावे के साथ
बहा ले जाती हवा पीले पत्तों को
और मोड़ देती पक्षियों के फड़फड़ाते तीर
एक लहर में लरज कर गिरा देती हवा
शाख से रहित उत्साह में झुकी
उस भारहीन दृढ़ता को
उसके ढेर सारे चुंबन सेंध लगाते,
टूट पड़ते वे गरमी की हवा के दरवाज़े में
और डूब जाते ।


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