Monday, 8 July 2013

स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा-1

ओमा शर्मा

हमारे समकालीन साहित्य में स्टीफन स्वाइग बहुत चर्चित नाम नहीं है हालांकि बीती सदी के मध्यांतर तक इस जर्मन - भाषी ऑस्ट्रियाई लेखक की लगभग पूरे विश्व साहित्य में तूती बोलती थी। हर भाषा के कुछ हलकों में स्टीफन स्वाइग का नाम अलबत्ता बेहद सम्मान के साथ लिया जाता रहा है कथा साहित्य के स्तर पर स्वाइग ने दोस्तोवस्की और टॉल्सटॉय की तरह न तो वृहत दस्तावेजी उपन्यास लिखे और न चेखव और ओ हेनरी की तर्ज पर समाज पर कटाक्ष करती चुस्त कहानियां फिर भी कहना होगा कि एक मनोवैज्ञानिक पडताल की मार्फत कहानी को एक कला की सरहद तक ले जाने का श्रेय इसी लेखक को जाएगा . "अनजान औरत का खत", "एक औरत की जिन्दगी के 24 घंटे", "डर", "रॉयल गेम", "अमोक" और "बर्निंग सीक्रेट" जैसी लम्बी कहानियां इसके जीवन्त प्रमाण हैं ठीक उसी तरह जैसे दो-दो विश्व युद्धों की विभीषिका को झेलती मानवता की त्रासदी (और उसकी खिलाफत) को "अतीतजीवी", "भगोड़ा" और "किताबी कीड़ा" जैसी कहानियों, "जेरेभिहा" जेसे नाटक और "बिवेयर ऑफ पिटी" जैसे उपन्यास में गहरे, सार्थक और खास अन्दाज में दर्ज किया गया है

बहुत कच्ची उम्र में कविताओं से अपने लेखकीय जीवन की धमाकेदार शुरूआत करने वाले इस लेखक का विश्व साहित्य में विपुल और बहुआयामी अवदान है नाटक, कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा जीवनी लेखन के क्षेत्रों में स्वाइग की पहचान अद्वितीय है फ्रायड, रोमां रोलां, टॉल्सटॉय, दोस्तोयेव्स्की, डिकन्स और बाल्जाक जैसे सर्वकालिक लेखकों - विचारकों पर लिखी उसकी आलोचनात्मक जीवनियाँ सतत बारीक मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अलावा दरअसल जीवनी लेखन का विधागत विस्तार हैं

स्वाइग एक यहूदी था और पैदाइश से एक ऐसे देश (ऑस्ट्रिया) का नागरिक जो लम्बे अरसे तक विश्व की सांस्कृतिक राजधानी रहने के बावजूद प्रथम विश्व युद्ध के बाद हिटलर (जर्मनी) की फासिस्टवादी ताकतों की गिरफ्त का शिकार हो गया एक कमजोर लाचार देश और प्रताडित कौम से सम्बद्ध होने के कारण, विश्वव्यापी लेखकीय सफलता के बावजूद उसे कौम के लाखों मासूमों की तरह दर-बदर ठोकरें खानी पडीं, मगर शुक्र है उस रूप में जान नहीं गंवानी पडी हालांकि इन्हीं ठोकरों को झेलते-झेलते उसने एक परदेशी जमीन (ब्राजील) पर 1942 में अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली . द वर्ल्ड ऑफ यसटर्डे (आत्मकथा) को आत्महत्या से कुछ महीने पूर्व ही पूरा किया था इसका प्रकाशन तो उसके मरणोपरांत ही हो सका स्वाइग की दूसरी चर्चित और लोकप्रिय रचनाओं की तरह यह भी विश्व स्तर पर खूब चर्चित और अनूदित हुई यह कई अर्थों में एक विरल पुस्तक है मसलन, आत्मकथा होने के बावजूद यहां लेखक या उसके निज का कोई भी पहलू केन्द्र में नहीं है लेखक की आदतों या संघर्ष पर रोशनी का एक भी कतरा यहां अनुपस्थित है इसके केन्द्र में कुछ है तो वह है लेखक का समय और वैश्विक चेतना जिसमें लेखक जी रहा है या अपनी प्रेरणा ग्रहण कर रहा है कई अर्थों में यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी है क्योंकि बीती सदी के पूर्वार्ध्द के एक दशक के भीतर विश्व व्यवस्था का फासिस्टवादी-नाजीवादी शक्तियों ने जो कायाकल्प कर दिया, यह उसके सूत्रों को व्यापक फलक पर पूरी तटस्थता से पेश करती है रचनात्मकता और साहित्य को समर्पित एक विदग्ध प्रतिभा जीवन में किन सरोकारों (कलात्मकता) और मूल्यों (स्वतन्त्रता, अन्तर्राष्ट्रीयवाद) के साथ अपना रास्ता चुनती है, कह सकते हैं, यह आत्मकथा इसकी बेहतरीन मिसाल है आत्मकथा लेखक यहां एक सूत्राधार की भूमिका में है कभी तो एक नादान प्रशिक्षार्थी की भूमिका में भी और उसी भूमिका में वह कभी अपने दिग्गज समकालीनों रिल्के, रोदां, गोर्की, हर्जल, रोमां रोलां, वेरहारन, रिचर्ड स्ट्रॉस, हाफमंसथाल, शॉ, वेल्स और फ्रायड की रचनात्मकता के बरक्स उनकी निजी खूबियों की बेदाग तस्वीर पेश करता है तो कभी रूसी, ब्रितानी, ऑस्ट्रियाई या अमरीकी समाज की बुनियादें उघाडता है अपने समय और समाज की पडताल करते हुए कोई रचना कैसे सार्वभौमिक और सर्वकालिक हो सकती है, यह इस आत्मकथा को पढक़र ही समझा जा सकता है फासिस्टवादी शक्तियों के इधर बढते उभार के मद्देनजर, बिना किसी कटुता के यह हमें बोध करा देती है कि शैशव में फुटकर और नामालूम दिखने वाली मानसिकता कितनी क्रूर, विद्रूप और संहारक हो सकती है लेखक स्वाइग की रचनात्मकता के सूत्रों-अन्तरसूत्रों को समझने के लिए तो यह परोक्ष खदान है ही. पूरी पुस्तक के दौरान पल भर भी यह एहसास नहीं होता है कि लेखक अपनी किसी अतृप्त इच्छा, सफल-असफल प्रेम-प्रसंगों या वैचारिक ग्रन्थी को वैधता देने या उसका रोना पीटने में लगा है जैसा पिछले दिनों हिन्दी की एकाधिक आत्मकथाओं में गोचर हुआ बल्कि हैरत होती है कि दूसरे विश्व युद्ध के आसपास, यहूदी होने के कारण, हिटलर द्वारा स्वाइग को जिस तरह खदेड़ा गया, उस दौर में साहित्य, जीवन, कला, लेखकों-कलाकारों और स्थितियों की ऐसी निष्पक्ष और कलात्मक पडताल मुमकिन कैसे हुई? जिन्दगी का तमाम हासिल भाषा, मुल्क, परिवार-समाज, रचनाएं और कला-संग्रह छिन जाने के बाद, शोहरत के शिखर से दुरदुराया लेखक टॉल्सटॉय की मजार की खूबसूरती, रिल्के के गुमसुमपने, गोर्की के ठेस हाव-भावों, स्ट्रॉस की तुनकमिजाजी, स्कूली दिनों की मनहूसियत, पेरिस के फक्कड दिनों और वियना शहर के कला रूझानों को एक साथ इतनी निर्मम निष्पक्षता से कैसे दर्ज कर पाया. मगर हलचल-चकाचौंध से परहेज करने वाला स्वाइग जैसा उस्ताद लेखक जब अपने समय के साथ मुठभेड करता है तभी एक बडी कलाकृति सम्भव हो पाती है.

पेरिस के दिन : रिल्के, रोदां और एक चोर का वाकया

अपनी गुजरी जिन्दगी पर जब नजर ड़ालता हूं तो लगता है ऐसे कुछ महापुरूषों के साथ हुए मानवीय नैकट्य (जिनके प्रति मेरा शुरूआती श्रद्धाभाव उम्र भर की दोस्तियों में तब्दील हो गया) के सौभाग्य से ज्यादा बेशकीमती सौगात और कुछ नहीं है.
इन सबमें रिल्के ऐसा था जो सबसे ज्यादा शालीनता, चुपचाप और नामालूमपने से रहता था लेकिन ऐसा वह जान-बूझकर या जबरन नहीं करता था, और न ही जर्मनी के स्टीफन जॉर्ज की तर्ज पर, किसी महात्माई तन्हाई के खोल का जश्न मनाता था वह जहां भी होता, जहां भी जाता, खामोशी उसके चारों तरफ उगने-सी लगती चूँकि वह हर तरह के शोर, यहां तक कि खुद की शौहरत (जो उसके मुताबिक ''एक नाम के ऊपर जमी गलतफहमियों का ढेर थी'') से भी बचता था इसलिए उसकी उमडती निठल्ली जिज्ञासा की लहर उसके व्यक्ति को कभी नहीं छू पाती, सिर्फ उसके नाम को छूकर निकल जाती. रिल्के की पार पाना मुश्किल था उसका कोई ठौर या पता-ठिकाना नहीं था जहां उससे मिला जा सके न उसका कोई दफ्तर या स्थायी ठीया था वह हमेशा दुनिया को नापने की जुगत में रहता किसी और को क्या जब उसे ही खबर नहीं होती कि वह किधर जायेगा उसकी बेलौस संजीदा रूह को हर फैसला, तमाम इन्तजाम और हरेक घोषणा बोझा लगती उससे हमेशा, इत्तफाकन ही मिला जा सकता था आप किसी इतालवी दीर्घा में खडे हैं और यकबयक लगे (जिसे आप जान भी न पायें कि कैसे) कि आपकी तरफ एक नरम दोस्ताना मुस्कराहट मुखातिब है आप तब उसे पहचानतेउसकी नीली आंखें जो मिलने पर उसकी अन्यथा प्रभावहीन भंगिमा पर जोत-सी जगा देतीं मगर यह प्रभावहीनता ही उसके वजूद का सबसे पुख्ता राज थी उस नौजवान को देखकर हजारों लोग यूं ही निकल गये होंगे. हल्के अवसाद में ढली रेशमी मूंछें और कुछ-कुछ स्लेवियाई नैन नक्श दिखने में एक भी खासियत ऐसी नहीं कि किसी को लगे कि वह कवि है और वह भी हमारी पीढी क़े महानतम कवियों में एक ! उसकी शख्सियत और उसका असामान्य आचरण केवल नजदीकी ताल्लुकात के बाद जाहिर हो पाते उसकी चाल-ढाल और बोलचाल की नजाकत का क्या कहिए कभी वह उस कमरे में आये जहां चार लोग साथ बैठे हों तो वह इस कदर बेआवाज आता कि कोई गौर ही न कर पाये वहां चुपचाप बैठकर वह सुनता रहता. कोई चीज उसकी सोच को जब कुरेदती तो अनायास अपना सिर ऊपर उठा लेता कभी बोलना शुरू करता तो बिना किसी लाग लपेट या ऊंची आवाज के ऐसे सहज और सरल ढंग से बोलता जैसे कोई मां अपनी लाडली को परीकथा सुना रही हो (और उतने ही दुलार से) उसे सुनते हुए ऐसा आनन्द आता कि बेहद मामूली-सा विषय भी सुरम्य और अहम हो उठता लेकिन उसे भनक हो जाये कि चार लोगों के बीच सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं तो वह तुरन्त अपनी खामोशी की केंचुल में (ध्यान लगाकर सुनने के लिए) दुबक जाता. चाल-ढाल और हाव-भाव में नजाकत थी. वह जब हूंसता भी तो एक आवाज की सुरसुराहट की प्रतीति से अधिक कुछ नहीं होता. उसके लिए आवाज की मंदी जरूरी थी शोर उसके बर्दाश्त बाहर था, भावना के स्तर पर ठीक ऐसे जैसे हिंसा ''ये लोग मुझे निचोड देते हैंये जो अपनी भावनाओं के लिए खून की कै करते हैं'' एक बार उसने कहा था, ''शराब की तरह तभी मैं रूसियों को थोड़ा-थोड़ा करके ही निगलता हूं''. उसके नपे-तुले आचरण, सुघडपन, सफाई पसंदगी और शान्त चित्त की तरह ही उसकी भौतिक जरूरतें थीं वह ठसाठस भरी खुली कार की सवारी कर ले या शोर-शराबे के सार्वजनिक स्थल पर उसे बैठना पड ज़ाये, तो घटों तक वह परेशान रहता कोई भी गंवारू चीज उसे सहन नहीं होती हालांकि वह तंग हालात में रहता था मगर उसके कपडों से ही उसकी नजाकत, स्वच्छता और सलीके का सबूत मिल जाता साथ ही वे उसकी सोच और काव्यात्मक संकल्पनाओं को भी खूब बता देते. वे उसकी अनाडम्बरता के उत्कृष्ट गवाह होते हमेशा अपनी बेलगाम निजता में रचा रहता. उनके साथ वह कोई अतिरिक्त चीज, जैसे कलाई में एक पतला चाँदी का कड़ा जरूर पहनता जिससे उसे अलग सुख मिलता. सम्पूर्णता और संतुलन की खातिर उसका सौन्दर्यबोध बहुत अन्तरंग और निजी से निजी विवरणों में चला जाता एक दफा मैंने उसे, कहीं बाहर जाने से पहले, उसी के कमरे में बक्सा तैयार (पैकिंग) करते देखा मदद करने की पहल उसने गैरजरूरी कहकर ठुकरा दी लग रहा था कोई पच्चीकारी हो रही है .हर सामान, बडे हौले-से अपनी नियत जगह पर टिकाया जाता फूलों की तरह संवारकर रखने के उसके इन्तजाम में कोई मदद, मुझे लगा उसे किसी अत्याचार की तरह बेचैन कर ड़ालती सुन्दरता की सोच का उसका पैमाना, एक से एक बारीकी को पकडता जाता न सिर्फ अपनी पांडुलिपियों को ही वह बढिया से बढिया कागज पर, पंक्ति दर पंक्ति घुमावदार सुलेख में पिरोता (हर पंक्ति एक-दूसरे से ऐसी सटी होती कि आप फुटे से उनका मिलान कर लें), किसी को भी कभी-कभार खत लिखने के लिए भी उम्दा से उम्दा कागज इस्तेमाल करता (और उतनी ही साफ घुमावदार लिखावट में) कभी भागते-दौडते कुछ लिखना पड ज़ाये तब भी किसी शब्द की काटपीट करना उसे नामंजूर था यदि कोई वाक्य या भाव सही नहीं जँच रहा है तो अपने अद्भुत धैर्य के साथ पूरे खत को ही वह दोबारा लिखता कोई चीज जो मुकम्मल नहीं हो, रिल्के की कलम से गुजरकर कभी नहीं आ सकती थी.
उसके व्यक्तित्व का यही प्रच्छन्न, मगर फिर भी सिलसिलेवार पहलू उसके नजदीक आने वाले हरेक व्यक्ति को प्रभावित करता जैसे यह कल्पनातीत था कि रिल्के शोर मचा सकता है, उसी तरह, रिल्के के सानिध्य में, उसकी निस्तब्धता से निकले कम्पनों के असर तले, कोई अपना समूचा बडबोलापन और अहूं नहीं त्याग देगा, यह भी कल्पनातीत था उसका आचरण चुपके-से, लगातार बडी सोद्देश्य नैतिक शक्ति उडेलता जाता था. उसके साथ हर लम्बी बातचीत के कई घंटे या दिनों बाद तक आप कोई टुच्चापन करने लायक नहीं बचते थे उधर उसका यही शान्त-स्वभाव (और अपने को कभी पूरी तरह न खोलने की इच्छा) उसके साथ खास ताल्लुकात बनाने में अडंग़ा ड़ालती थी मैं समझता हूँ बहुत कम लोग होंगे जो रिल्के के दोस्त होने का गुमान भरते होंगे. उसके पत्रों के प्रकाशित छह संकलनों में इस तरह का सम्बोधन शायद ही कहीं हो स्कूल के दिनों के बाद से उसने शायद ही किसी को बिरादराना तू कहा हो दूसरे को किसी प्रकार की नजदीकी देने से उसकी आला दर्जे की संजीदगी पर बोझा चढ ज़ाता था कोई ऐसी चीज जिसमें पुरूषवत धौंस धंसी हो, उसे शारीरिक कष्ट देती जाती महिलाओं के संग बातचीत में वह ज्यादा सहज रहता उन्हें वह अक्सर और खुशी से चिट्ठियां लिखता और उनके सान्निध्य में ज्यादा खुलाखुला महसूस करता. कंठ में कर्कशता की अनुपस्थिति के कारण उनका स्वर उसे भाता था क्योंकि आवाज में, कर्कशपन उसे सहन नहींहोता था मुझे अभी भी याद है कि किसी पुरूष के साथ बातचीत में, उस पुरूष के पैदाइशी दंभी उच्च स्वर के कारण, उसकी आभिजात्य भंगिमा पूरी तरह निचुड ज़ाती, कन्धे पीड़ा से कराहते और नजरें, हो रहे शारीरिक कष्ट से दगा न करने की कोशिश में, जमीन में गडने लगतीं लेकिन किसी की तरफ जब वह मुरव्वत से मुखातिब होता तो कितना दिलकश लगता! और तब उसकी अन्दरूनी सदाकत का पता चलताथोडे-बहुत हावभावों के सहारे वह कम ही बोलता मगर, लगता किसी दिव्यज्ञान से, तह तक आत्मा पर मरहम लगा रहा है
दब्बू और शर्मीले रिल्के को पेरिस जैसा जिन्दादिल शहर सबसे ज्यादा चहकाता था, शायद इसलिए कि उसके नाम और काम को यहां अभी कोई नहीं जानता था अज्ञात रहकर ही वह सबसे ज्यादा मुक्त और प्रसन्न महसूस करता. किराये पर ली हुई दो अलग-अलग लॉजों में मैं उससे मिलने गया था दोनों ही बडी सादगी भरी किसी भी तामझाम के बगैर मगर, उसके गहरे सौन्दर्यबोध के कारण फिर भी बहुत कुलीन और शान्त लगतीं. उसका घर कभी भी बड़ा या चिल्लपों करते पड़ोस में नहीं होता पुराने, चाहे कम आरामदायक, घर में वह ज्यादा सहज रहता वह कहीं भी रहे, उसके सुघडपन के कारण उसके वजूद से एकाकार होकर वह जगह नये मायने अख्तियार कर लेती उसके आसपास चीजें बहुत कम ही होतीं मगर किसी कलश या फूलदान में रखे फूल उसके पास जरूर महक रहे होते हो सकता है वे फूल किसी महिला मित्र की भेंट रहे हों या स्नेहवश वह खुद ले आया हो सुन्दर जिल्दों या सावधानी से गत्ते में कसी किताबें दीवार में रखी मुस्कराती रहतीं डेस्क के ऊपर एक सीध में रखे पेन-पेंसिल होते सलीके से जमा-कसा कागजों का बंडल होता एक रूसी और सलीब पर चढे ईसा मसीह की प्रतिमा जो मैं समझता हूं उसकी यात्राओं में भी उसके साथ रहती. उसके अध्ययन कक्ष को थोड़ा मजहबी रंग देती जाती हालांकि उसके मजहबीपन का किसी खास मत से कोई वास्ता नहीं था महसूस होता कि हर चीज कितने ध्यान से चुनी और सहेजकर रखी गयी है. अगर आप उसे कोई ऐसी किताब उधार दे दें जो उसने नहीं सुनी-पढी हो तो वह उसे बेतोड-मोडे, झिल्लीदार कागज में लपेटकर किसी तोहफे की मानिन्द, रंगीन रिबन से बांधकर लौटाता. मुझे अच्छी तरह याद है कि ''मौत और मोहब्बत की राह'' (द बीस फॉर लीब उंट टोड) की पांडुलिपि को वह कैसे एक कीमती उपहार की तरह मेरे कमरे में लाया था. उसके गिर्द बंधा रिबन मैंने आज भी संभालकर रखा हुआ है लेकिन पेरिस में रिल्के के साथ घूमने की बात ही निराली थी क्योंकि इसका मतलब था मामूली से मामूली चीज को उसके दिव्य स्वरूप के साथ देखना हर बारीकी पर उसकी नजर होती किसी पट्टे पर लिखे नामों में उसे कोई लय नजर आती तो वह उन्हें जोर से पढता पेरिस की रग-रग को जानने की उसमें खुमारी थी (इसके सिवाय मुझे उसमें दूसरा कोई उन्माद नहीं दिखा) किन्हीं दोस्तों के घर मुलाकात पर मैंने उसे बताया कि एक रोज पहले ही मैंने इत्तफाकन पुरानी ''आड'' बारिए(Barriere) देखी जहां गला घोंटकर मारे गये कैदियों की कब्रें हैं, उन्हीं में एक आन्द्रे शैनिये की भी है. मैंने उस छोटे-से खूबसूरत मैदान को भी बताया जहां इधर-उधर फैली कब्रें हैं (जिन्हें आगन्तुकों ने शायद ही देखा हो) साथ ही मैंने उसे बताया कि लौटते वक्त एक कॉन्वेट के खुले दरवाजे से मुझे ऐसी गली दिखाई दी जो बिल्कुल बिगून (beguine)सी लग रही थी (गोया अपनी गुलाब वाटिका को कोई पवित्र सपना सुना रही हो) उन गिने-चुने मौकों में यही एक मौका था जब उस तहजीब पसन्द, सर्द मिजाज शख्स को मैंने लगभग बेताब होते हुए देखा वह आन्दे शैनिये की कब्र और कॉन्वेंट देखने को उतारू हो गया मुझे ले चलोगे वहां? दूसरे दिन हम वहां गये निर्जन कब्रगाह के सामने वह किसी समाधिस्थ मौनावस्था में खड़ा रहा जो उसे पेरिस में सर्वाधिक लयात्मक लगी जब तक हम लौटे, कॉन्वेंट का फाटक बन्द हो गया मेरे सामने उसके प्रशान्त धैर्य (अपने जीवन में जिस पर उसने, अपने लेखन की तरह, महारत पा रखी थी) के इम्तहान की घडी थी ''ठहरते हैं, शायद कुछ बात बने'' उसने कहा सिर थोड़ा झुकाकर वह वहीं खड़ा हो गया ताकि कॉन्वेन्ट का फाटक खुलने पर वह उससे झांक सके कोई बीस मिनट तक हम वहां इन्तजार करते रहे मठ की एक संचालिका (सिस्टर) नीचे आयी और उसने फाटक की घंटी बजा दी ''अब'' वह उत्तेजना में फुसफुसाया लेकिन वह संचालिका उसके मौन इन्तजार को पहले ही भांप गयी थी (मैंने कहा न कि उसके रोम-रोम की महक दूर तक पहुंचती थी) उसके पास आकर वह पूछने लगी कि क्या उसे किसी का इन्तजार है वह अपनी उसी शरीफाना हूंसी में मुस्कराया जिससे आत्मविश्वास एकदम जाग उठता है और गर्मजोशी से बोला कि वह कॉन्वेन्ट के उस गलियारे को देखना चाहता है संचालिका ने भी हूंसी बिखेरी, मगर अफसोस जताया कि वह उसे अन्दर जाने की इजाजत नहीं दे सकेगी. मैंने उसे सलाह दी कि बगल वाले माली के घर के पहले माले की खिडक़ी से भी सब कुछ दिख सकेगा और इस तरह ढेर सारी दूसरी चीजों की तरह, उसकी यह मुराद भी पूरी हो गयी. इसके बाद हम कई दफा मिलते रहे मगर जब भी मैं रिल्के के बारे में सोचता हूं, उसे पेरिस से जोडक़र ही देखता हूं इसके सबसे दारूण वक्त को देखने से वह बच गया.
मेरे जैसे नौसिखिये को ऐसी विरल सोच-समझ के लोगों का बड़ा फायदा रहा लेकिन एक ऐसा बुनियादी सबक जो मेरी पूरी जिन्दगी पर असर करता हो, अभी होना बाकी था. यह सौगात इत्तफाकन मिली वेटहारन के यहां एक कला-इतिहासकार से हमारी बहस हो गयी. उसका मानना था कि महान मूर्तिकला और कला के दिन लद गये हैं. मैंने इसका जोरदार प्रतिवाद किया क्या रोदां(rodin) जैसा शख्स हमारे बीच नहीं है? अतीत के किस महान शिल्पी से वह दोयम है? उसकी रचनाओं को गिनाते-गिनाते, जैसा तकरार के वक्त होता है, मेरी आवाज कडक़ हो गयी वेटहारन खुद पर मुस्कराये, ''किसी को यदि रोदां इतना पसन्द है तो उसे उससे जरूर मिलना चाहिए'' और आखिर में बोले, ''मैं कल उनके स्टूडियो जा रहा हूं,, तुम्हारी मर्जी हो तो चलना मेरे संग''.
''मेरी मर्जी'' खुशी से मेरी नींद हराम हो गयी मगर उनके यहां जाकर मेरी जुबान पर ताला पड ग़या मैं उनसे एक हरफ नहीं बोल पाया और उनके बुतों के बीच उन्हीं की तरह खड़ा रहा मगर क्या अजीब बात कि उन्हें मेरा शर्माना-लजाना पसन्द आ गया क्योंकि विदा लेते समय उस उम्रदराज ने मुझसे पूछा कि क्या मैं, मिडोन स्थित उनके असल स्टूडियो को देखना चाहूंगा? उन्होंने रात के खाने की भी मुझे दावत दे दी. मेरा पहला सबक यह था कि महानतम लोग सबसे ज्यादा रहमदिल होते हैं और दूसरा यह कि अपने रहन-सहन में अमूमन वे बडे साधारण होते हैं. दुनिया भर में उनकी शोहरत थी हमारी पीढी क़े लोगों को उनके कृतित्व की हर लकीर के साथ किसी पुराने दोस्त-सी पहचान थी. इस आदमी के घर हमने बडी सादगी से किसी किसान का सा खाना खायाएक मांस की बोटी, थोडे-से आंवले और ढेर सारे फल साथ में देसी शराब (वें दयू पेई) इससे मेरी हिम्मत बढ ग़यी और अन्त तक बुढउऔर उनकी बीवी से मैं खुलकर यूं बतियाने लगा जैसे उन्हें बरसों से जानता था.
रात्रि भोज के बाद हम स्टूडियो चले गये एक बड़ा कमरा था जिसमें उनकी अधिकांश कृतियों की नकलें थीं वहां छोटी-छोटी सैकडों बहुमूल्य अधूरी कृतियां रखी थीं. एक हाथ, एक बांह, घोडे क़ी अयाल, एक स्त्री का कान ज्यादातर मिट्टी के मॉडल थे. उनमें से कुछ नमूनों की आज भी मुझे खूब याद है और मैं उनके बारे में घंटों बतिया सकता हूं. इन्हें रियाज के लिए बनाया गया था. आखिर में उस्ताद मुझे एक चौंतरे पर ले गये जहां उनकी सबसे ताजा कृति, एक औरत का पोर्टरेट, गीले कपडे से ढकी रखी थी. अपने भारी-भरकम काश्तकारी हाथों से उन्होंने लिबास हटा दिया और दो कदम पीछे हट गये. ''वाह, क्या बात है'' मेरे होंठों से अनायास निकल पड़ा मगर इस घिसेपिटे आकलन पर मैं फौरन ही शर्मसार हो गया. बडी मौन तटस्थता से जिसमें गर्व का एक भी कतरा नहीं था अपनी कृति को देखकर वे बुदबुदाये, ''ये ठीक है न (नेस्पां)'' फिर वे ठिठक गये. ''सिर्फ उस कन्धे के थोड़ा……बस एक मिनट'' कहकर उन्होंने अपना कोट उतार फेंका और चुन्नटवाली सफेद कमीज पहन ली एक चमस (Spatula) उठाई और प्रतिमा के नाजुक पदार्थ (कन्धे) पर यूं दबाकर मारी कि वह एक सांस लेती, जिन्दा औरत की त्वचा लगने लगी, फिर दो कदम पीछे हटे और ''अबकी यहा'' बुदबुदाये. उस मामूली करतब से प्रभाव एक बार फिर बढ ग़या उसके बाद वे बोले कुछ नहीं. कभी थोड़ा आगे जाते, कभी पीछे प्रतिमा को आइने में निहारते और कुछ अटरम-सटरम बर्राते हुए प्रतिमा में बदलाव-सुधार करते रहे खाना खाते वक्त जो निगाहें बडी अजीज लापरवाह-सी थीं, अब बहुत अजीब रोशनी में चौंध रही थीं. वे ज्यादा बडे और जवां हुए जा रहे थे. अपनी भारी-भरकम काया की तमाम ताकत और भावाकुलता से वे काम ही काम पर जुटे रहे. जब भी वे आगे कदम बढाते या पीछे हटते, दरवाजा चरमराता लेकिन उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी न उन्होंने यह गौर किया कि उनके पीछे एक नौजवान चुपचाप खड़ा है जिसका दिल इसलिए बल्लियां उछले जा रहा था क्योंकि एक बेमिसाल उस्ताद को उसने अपने काम में रमे देखा था. वह मुझे पूरी तरह भूल गये थे गोकि उनके लिए मैं वहां था ही नहीं. उन्हें मतलब था तो बस उस प्रतिमा, उस आकृति और अपने सृजन से और उसके जरिये परम सम्पूर्णपना हासिल करने की उस अदृश्य निगाह से..........मुझे याद नहीं पडता कितनी देर.. पर यह सिलसिला कोई चौथाई या आधा घंटे चलता रहा. महान लम्हे हमेशा वक्त के दायरे के पार ही होते हैं. रोदां अपने सृजन में इस कदर एकाग्र होकर खोये हुए थे कि किसी वज्रपात से भी उनकी पलक नहीं झपक सकती थी उनकी चाल-ढाल कडक़ और गुस्सैली-सी हो गयी किसी जुनून या मदहोशी के आगोश में आकर वे और फटाफट काम करने लगे उसके बाद उनके हाथ सकुचा गये, शायद इसलिए कि उन्हें आभास हो गया था कि उनके लायक करने को कुछ और अब बचा ही नहीं था. एक दफा, दो दफा, तीन दफा बिना कोई तब्दीली किये वे पीछे लौटे फिर उन्होंने चुपके से अपनी दाढी में कुछ कानाफूसी की और लिबास को उस बुत पर यूं ओढा दिया मानो कोई अपनी माशूका की शालपोशी कर रहा हो एक गहरी सांस लेकर वे निढाल हो गये. उनकी प्रतिमा और वजनदार लग रही थी. आग बुझ चुकी थी और तब एक ऐसी अबूझ बात हुई जो बहुत बड़ा सबक थी. अपना चुन्नटदार झबला उतार उन्होंने फिर अपना घरेलू कोट चढाया और चलते बने चरम एकाग्रता के उस क्षण में उन्होंने मुझे पूरी तरह बिसरा दिया था. उन्हें होश ही नहीं था कि एक नौजवान जिसे वे खुद अपना स्टूडियो दिखाने लाये थे, उनके पीछे, उनके ही किसी बुत की तरह सांस थामे खड़ा है
वे दरवाजे पर पहुंचे जैसे ही उसे खोलने को हुए तो मुझे खड़ा देखा लगभग चढी हुई त्योरियों से उन्होंने मुझे घूरा . कौन है यह अजनबी छोकरा जो चोरी-चुपके उनके स्टूडियो में घुस आया है? मगर अगले ही पल उन्हें याद आ गया तो शर्म से पानी होकर मेरे पास आये, ''......माफ करना दोस्त''. उन्होंने और भी कहना चाहा मगर मैंने नहीं कहने दिया. कृतज्ञता में बस मैंने उनका हाथ भींच लिया. दिल तो उसे चूमने को मचल रहा था उस वक्त सभी कलाओं का, हां हरेक दुनियावी उपलब्धि को फलीभूत करने का, मर्म मेरे हाथ लगा यानी एकाग्रता सभी शक्तियों, सम्वेदनाओं के पुंज का वह परमानन्द जो हर कलाकार को दुनियां से परे की सैर कराता है मैंने जिन्दगी भर का सबक ले लिया था
मैंने सोचा था कि मई के आखिर तक लंदन चला जाऊंगा मगर एक अप्रत्याशित परिस्थिति के कारण, जिसकी वजह से मेरा वह मनोहर कमरा तकलीफदेह हो गया, मुझे अपना कार्यक्रम दो हफ्ते पहले ही बनाना पड़ा यह ऐसा अजीब प्रसंग था जिसने न सिर्फ मुझे खूब गुदगुदाया बल्कि तरह-तरह के रंगों में रंगे फ्रांसीसी समाज की मानसिकता जानने-समझने के लिए बड़ा हिदायती सबक भी दिया
पेरिस को छोड दो दिन की छुट्टियां मनाने मैं व्हिट्सन्टाइड (whitsuntide) गया हुआ था शार्त्रा (chartres) (दरअसल यह एक गांव है जो पेरिस से बीस किमी दूर है मगर इसकी प्रसिध्दि गिरजाघर के कारण है जिसकी खिडक़ी दुनिया में सबसे नीली मानी जाती है. नीले रंग की इन्तहां जैसी) के खूबसूरत गिरजों को (जो अभी तक मेरे अनदेखे थे) दोस्तों के साथ देखना चाहता था. मंगलवार की सबेरे जब अपने होटल के कमरे में पहुंचा और कपडे बदलने चाहे तो पता लगा कि मेरा सूटकेस (पोर्टमेंटो) जो इतने दिनों से एक कोने में रखा था, नदारद है. मैं उस छोटे से होटल के मालिक के पास गया वह और उसकी पत्नी सामान वाले कमरे में दिन में बारी-बारी से बैठते थे. वह छोटा, गलफुला गुलाबी चेहरे वाला मारसीलियाई (मारसील फ्रांस का तटवर्ती कस्बा है जहां के लोग हट्टे-कट्टे होते हैं) था जिसके साथ मैं अक्सर हूंसी-मजाक कर लेता था और उसके पसंदीदा खेल बैकगैमोन (पन्द्रहखाडी) क़ो, कभी-कभार कॉफी हाउस में बैठकर खेल लिया करता था. फौरी उत्तेजना से वह चूर हो गया और मेज पर मुट्ठी की थपक के साथ रहस्यपूर्ण ढंग से चीखा, ''तो ये बात है'' अपनी बांह वाली कमीज, (जिसे पहनकर बैठे रहना उसकी आदत थी) पर उसने जल्दी से कोट चढाया, चप्पलों की एवज में जूते ड़ाले और पूछने लगा कि माजरा क्या है? यहां पेरिस के घरों और होटलों की एक अजीब खासियत बतलाना जरूरी है ताकि बात समझ में आ जाये. छोटे किस्म के होटल और ज्यादातर निजी घरों में मुख्य दरवाजे की सिटकनी की चाबी देने का रिवाज नहीं है. जब बाहर से घंटी बजती है तो चौकीदार या पल्लेदार अपने कमरे से ही स्वचालित दरवाजा खोल देता है. छोटे होटलों और घरों के मालिक या चौकीदार पूरी रात पल्लेदार वाले कमरे में नहीं बैठते हैं. वे अपने कमरे से ही, अक्सर नीम खुमारी में, एक बटन दबाकर दरवाजा खोल देते हैं. मकान छोडक़र जाने वाले को बन्द कर लो(ली कार्डन सील वू प्ली) की गुहार देनी होती है और अन्दर आने वाले को अपने नाम की ताकि, कागजी तौर पर, रात को कोई अनजान आदमी न घुस जाये. एक अलसुबह दो बजे जब मेरे होटल की घंटी बजी और घुसने के बाद किसी ने जो नाम बताया तो सुनने में वह वहां रह रहे किसी मेहमान का-सा ही लगा. अन्दर घुसकर उसने पल्लेदार के कमरे में टंगी चाबियों में से एक उठा ली. कायदे से तो तैनात प्रहरी को शीशे के पार्टीशन से झांककर उस लेट-लतीफ की शिनाख्त कर लेनी चाहिए थी मगर जाहिर है वह थका-मांदा रहा होगा लेकिन घंटे भर बाद ही किसी ने जब बन्द कर लो (सील वू प्ली) की गुहार लगाई तो उसे अजीब लगा कि अभी दो बजे रात को तो उसके लिए दरवाजा खोला था फिर इतनी जल्दी चला भी गया? वह उठा गली में बाहर एक आदमी को उसने भारी-सा बैग ले जाते हुए देखा. अपने रात्रि-लिबास और चप्पलों में ही उसने तुरन्त उसका पीछा किया मगर जब उसने देखा कि मुडने के बाद वह शख्स एक छोटे-से होटल (क्यू दे पटित शां, यानी बच्चों की गली) में चला गया है तो उसके चोर-उचक्का होने का ख्याल ही उसके जेहन से निकल गया और वह वापस अपने बिस्तर पर आकर पसर गया.
अपनी गलती पर क्षुब्ध होकर तुरन्त ही मुझे वह नजदीकी थाने ले गया बच्चों वाली गली (क्यू दे पटित शां) के उस होटल में तुरन्त ततीश करायी गयी मालूम हुआ कि मेरा सूटकेस तो वहां था मगर चोर महाशय नहीं थे गालिबन वे पडोस की किसी मधुशाला (बार) में सुबह की कॉफी चुसकने गये हुए थे. दो जासूस मुलजिम पर निगाह रखने के लिए पल्लेदार के कमरे में तैनात कर दिये गये. कोई आधा घंटे बाद जब वह बेखबर लौटकर आया तो उसे धर दबोच लिया गया. मुझे और मकान मालिक दोनों को अब सरकारी तफ्तीश में हाजिरी बजाने थाने जाना था. हमें थानेदार (प्रिफैक्ट) के कमरे में ले जाया गया. वह असामान्य-सी मजबूत कद-काठी का खुशमिजाज मुच्छडधारी था जो कागजों से ढकी एक मेज पर बिना बटन का कोट पहने बैठा था. पूरा दफ्तर तम्बाकू से गंधा रहा था मेज पर ही रखी शराब की बडी बोतल बताए दे रही थी कि थानेदार साहब पवित्र बन्धुत्व (Harmandad) के बेरहम और खूनी रहबरों की जमात से नहीं थे. उनके इशारे पर बैग को मेरे सामने पेश कर दिया गया ताकि मैं सुनिश्चित कर सकूं कि कोई काम की चीज तो गायब नहीं हुई है. उसमें कोई कीमती चीज थी तो दो हजार फ्रैंक का मेरा क्रेडिट कार्ड था जो पांच महीने के मेरे प्रवास के कारण बुरी तरह कट-फट गया था किसी अजनबी के लिए वैसे भी वह किसी काम का नहीं था बैग के तले की जेब में वह अनछुआ रखा था जब इस बात की एक रपट दर्ज हो गयी कि मैंने अपने सूटकेस की शिनाख्त कर ली है और उसमें से कोई चीज चोरी नहीं हुई है तो थानेदार ने चोर को हाजिर करने का फरमान किया उसे देखने के लिए मेरा मन हिलोरें ले रहा था
और लो, मेरा इनाम भी क्या खूब! दो कद्दावर जवानों की गिरत में दबा वह गरीब और ज्यादा मरियल लग रहा था. लुंज-पुंज लिबास, बेकॉलर, छोटी ढलवां मूंछें और फीका, नीम भूखा चूहेनुमा चेहरा कहना न होगा कि चोर काफी भोंदू था जिसका सबूत ये था कि अन्यथा तो सुबह ही सुबह, माल को लेकर वह कब का चम्पत हो गया होता. थानेदार के सामने उसकी नजरें जमीन में गडे ज़ा रही थीं और वह ऐसे कँपकँपा रहा था मानो सर्दी से जम जाएगा. मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि उसे देखकर, मुझे न सिर्फ अफसोस हुआ बल्कि हमदर्दी भी होने लगी. तलाशी के बाद उसके पास से मिली चीजों को जब पुलिस ने सामने बिछाकर रख दिया तब तो मुझे उस पर और ज्यादा तरस आया बडी अजीबोगरीब चीजों का जखीरा था उसके पास एक बेहद गन्दा और फटा रूमाल, चाबियों का एक छल्ला जिसमें चाबियाँ और चाबियों के कंकाल एक-दूसरे से टकराकर आवाज करते थे, एक गली-फटी-सी पॉकिट बुक सौभाग्य से हथियार एक भी नहीं था जिससे पता लग रहा था कि यह चोर महाशय अपने धन्धे को प्रवीणता मगर शान्ति से चलाते हैं.
हमारे सामने सबसे पहले उस पॉकिट बुक की दरयाफ्त शुरू हुई नतीजे ने हक्का-बक्का कर दिया इसलिए नहीं कि उसमें हजार या पाँच-सौ की फ्रैंक मुद्रायें थीं (वह तो एक भी नहीं थी) उसमें मशहूर नर्तकों और अभिनेत्रियों के गर्दन और कन्धों को उघाडे क़म से कम सत्ताईस चित्र थे और तीन-चार तो नग्न भी थे. इससे कोई संगीन गुनाह बनता भी नहीं था तो क्या हुआ गर यह छोकरा हुस्न का मुरीद हैपेरिस के थियेटर की जिन हस्तियों से यह अन्यथा नहीं मिल सकता था, उन्हें तस्वीरों की बदौलत दिल से लगाये फिरता था ऊपरी तौर पर हाला/कि थानेदार उन तस्वीरों का बडी सख्ती से मुआयना कर रहा था मगर उस किस्म के अपराधी के बच्चों-से फितूर पर उसे मेरी तरह हँसी भी आ रही थी सौन्दर्यपरक खूबसूरती की जानिब उस गरीब चोर के रूझान ने मेरे तईं और हमदर्दी जगा दी कलम हाथ में थामकर थानेदार ने जब मुझे तलब किया कि क्या मैं उस चोर के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज कराना चाहता हूँ तो मैंने बेहिचक ना कह दी.
हालात को समझने के लिए एक और चीज का खुलासा जरूरी है. ऑस्ट्रिया या दूसरे कई मुल्कों में जब गुनाह होता है तो शिकायत खुद-ब-खुद दर्ज हो जाती है क्योंकि इंसाफ को सरकार अपने हाथों ले लेती है. फ्रांस में यह फरियादी की मर्जी पर निर्भर करता है. किसी बंधे-कसे इंसाफ की बनिस्वत यह तरीका निजी तौर पर मुझे ज्यादा इंसाफ-पसन्द लगता है क्योंकि इसमें आदमी के गुनाह को माफ करने की गुंजाइश रहती है. मिसाल के तौर पर, जर्मनी में, कोई औरत अपने प्रेमी को जलन की जद में यदि चोट पहुँचा देती है तो उसकी लाख सफाई उसे सलाखों के पीछे भेजने से नहीं रोक पायेगी, जबकि हो सकता है, अपनी करतूत के कारण, अपने प्रेमी को हकीकत में वह और ज्यादा चाहने लगी हो फ्रांस में जबकि मुमकिन था कि सुलह की हालत में दोनों गलबहियाँ करते निकल जायें क्योंकि मामला तो रफा-दफा हो ही गया.
मेरे मुँह से जैसे ही ना निकली तो तीन बातें एक साथ हुईं दो पुलिसियों के बीच फँसे उस मरियल प्राणी ने मुझे जिस एहसानमंदी से देखा उसे मैं कभी नहीं भूल सकता (उसे बताना तो खैर नामुमकिन है ही). थानेदार ने तसल्ली में आकर अपनी कलम रख दी. चोर की हजामत करने की मेरी नामंजूरी ने जाहिरन उसे ढेर सारी कागजी फजीहतों से निजात दिला दी थी इसलिए यह सौदा उसे माफिक आ रहा था लेकिन मेरा मकान मालिक बिल्कुल दूसरी तरह पेश आ रहा था. उसका चेहरा बैंगनी हो गया वह मुझ पर गर्म होने लगा कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिएकि इन नामुराद टुच्चों का खात्मा करना जरूरी हैकि मुझे भनक ही नहीं है कि उसकी जमात ने समाज का कितना नुकसान किया हैरात-दिन शरीफ लोगों को सतर्क रहना पडता है और यदि एक चोर को छोड दिया जाये तो दूसरे सैकडों को शह मिलती है. व्यवसाय में आये व्यवधान के कारण एक बुर्जुआ की ईमानदारी और शिष्टता ही नहीं, उसका टुच्चापन भी बिफर पड रहा था. वारदात के कारण उसका जो नाम खराब हो गया था, उसके चलते उसने मुझे फटकार-सा दिया कि उसे (चोर को) अता की गयी माफी को मैं रद्द कर दूँ मगर मैं अपनी राय पर अड़ा रहा मैंने शिद्दत से अर्ज किया कि मेरा माल-सामान मुझे मिल गया है, कोई नुकसान हुआ नहीं है इसलिए बात आयी-गयी हो जानी चाहिए मैंने जिन्दगी में कभी किसी पर इल्जाम नहीं ठोंका. मेरी वजह से कोई हवालात की चक्की पीसने से बच जाये तो इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है मेरे मकान मालिक का पारा तो चढता ही गया मगर थानेदार ने हस्तक्षेप किया कि फैसला वह (मकान मालिक) नहीं, मैं करूँगा और मेरी मनाही से मामले का निपटान हो गया है. इस पर वह उठ खड़ा हुआ और दरवाजे को धड़ाम से मारकर कमरे से कूच कर गया. थानेदार उठकर उस शख्स के आग-बबूला होने पर मुस्कुराया और एक खामोश समझौते के तहत मुझसे हाथ मिलाया. सरकारी कार्यवाही पूरी हो गयी थी मैं अपने सूटकेस को घर ले जाने के लिए जा ही रहा था कि चोर फुर्ती से मेरी तरफ आया और सज्जनता से बोला, ''नहीं साहब, आपके घर तक इसे मैं लेकर चलूँगा'' और उस तरह उस एहसानमन्द चोर के साथ जो बैग उठाये मेरे पीछे था, सडक़ पार करके मैं होटल आ गया.
इस तरह एक वाकया, जिसकी शुरूआत थोडी ख़टासभरी थी, मुझे लगा, बडे तसल्लीबख्श और मजेदार ढंग से निपट गया है मगर इसकी वजह से दो चीजें, ऐसे आगे-पीछे घटीं कि मैं उनका शुक्रगुजार हूँ क्योंकि फ्रांसीसी मनोविज्ञान को समझने में उन्होंने मेरा काफी ज्ञानवर्धन किया हुआ यूँ कि अगले रोज जब मैं वेटहारन से मिलने गया तो वे एक कुटिल-सी मुस्कान से मेरा स्वागत करते हुए बोले, ''तुम पेरिस में अजीबोगरीब कारनामे करते हो''. फिर मजाक में, ''मगर मुझे यह नहीं पता था कि तुम इतने धन कुबेर हो''. उनकी बात मेरे सिर के ऊपर से निकल गयी. उन्होंने अखबार मेरी तरफ बढाया जिसमें गये रोज का वाकया छपा था, सिवाय इसके कि तथ्यों का रूमानियत भरा जो हिसाब वहाँ जाहिर किया गया था, मेरी जानकारी के परे था पत्राकारिता के कलात्मक मेहराब से बताया गया था कि कैसे एक फैशनेबल (मजेदार था ना कि मैं फैशनेबल भी हो गया था) अजनबी का सन्दूक, जिसमें ढेर सारी कीमती चीजों के साथ-साथ बीस हजार फ्रैंक का क्रैडिट कार्ड (दो हजार दस गुनी छलाँग मारकर बीस हजार हो गये थे) और दूसरी अक्षतिपूर्ण चीजें (दरअसल कुछ कमीज और टाइयों के अलावा उसमें कुछ था नहीं थीं), चोरी हो गया था पहले तो इसका सुराग लगाना ही नामुमकिन था क्योंकि चोर ने अपना काम, इलाके के सही मालूमात होने की वजह से, बडी सफाई से किया था लेकिन जिले के थानेदार ने अपनी सुपरिचित फुर्ती और जबरदस्त सूझबूझ (ग्रांद परसपीकासिते) से सभी जरूरी कदम उठा लिये घंटे भर में ही पेरिस के सभी होटलों और यात्री निवासों को आदतन अचूकपन से सूचित कर दिया गया. जिसकी वजह से अपराधी को बहुत छोटे अन्तराल में ही गिरफ्तार कर लिया गया थानेदार द्वारा मुस्तैदी से किये गये. इस काम के लिए पुलिस अध्यक्ष ने उसे खास इनाम देने की घोषणा की थी क्योंकि उसकी दूरदर्शी नजर और कार्यवाही ने फिर यह साबित कर दिया था कि पेरिस का पुलिसतन्त्र कितना ठोस और सचेत है. रिपोर्ट में धेले-भर सच नहीं था क्योंकि थानेदार महाशय ने तो निमिष मात्रा को भी अपनी गद्दी नहीं छोडी थी. चोर और बैग को पकडक़र हमीं उसके दफ्तर ले गये थे लेकिन वारदात से भरपूर नाम कमाने के मौके को वह गँवाने देना नहीं चाहता था.
पुलिस और चोर दोनों के लिए सब कुछ हरा-भरा हो गया था मगर मेरे लिए चीजें इतनी खुशगवार नहीं थीं. अभी तक हँसी-ठठ्ठा करते मेरे मकान मालिक ने मेरा होटल में और रहना दुश्वार कर दिया मैं सीढियों से उतरकर पल्लेदार के कमरे में बैठी उसकी पत्नी को शालीनता से सलाम करता तो वह जवाब भी नहीं देती, और ऐसे मुँह फिरा लेती मानो उसकी तौहीन हो गयी हो. वहाँ का अर्दली मेरे कमरे की ढंग से साफ-सफाई न करे. बडे अजीब ढंग से मेरी चिट्ठियाँ गायब होने लगीं पडोस के बाजार और तमाखू की दुकान (ब्यूरो द तबाक) में जहाँ अमूमन सभी मुझे देखकर, मेरी खूब सिगरेट पीने की आदत के कारण, ''कोपेन'' कहकर मुस्कुरा उठते थे, वहाँ भी मुझे बर्फीले चेहरे पेश आने लगे. उस घर और गली की ही नहीं बल्कि पूरे जिले की मध्यवर्गीय नैतिकता इस बात से आहत होकर मेरी जान के पीछे पड ग़यी कि मैंने आखिर एक चोर की मदद कैसे की. मेरे पास कोई चारा ही नहीं था, सिवाय इसके कि छुड़ाये गये उस सूटकेस को लेकर उस आरामदायक होटल से अलविदा कर लूँ जो मुझे जलावतन करने पर यूँ आमादा था गोया मैं कोई खूनी था. (hindisamay.com से साभार)

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