Monday 8 July 2013

रूसी साहित्य में गूढ़ रहस्यवाद


मनोज सिंह

इंटरनेट के युग में अन्य भाषा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती प्रतीत होती है चूंकि कम्प्यूटर का यह मायाजाल अंग्रेजी पर निर्भर है और इसी भाषा को प्रचारित और प्रसारित कर रहा है। ऐसे में कोई दूसरी भाषा का लेखक, जब इंटरनेट पर उभरता है तो सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्य की दुनिया में एक रूसी नाम भी है, विक्टर पेलेविन, जिसने तेजी से अपने अस्तित्व का अहसास आधुनिक संसार को करवाया। वह सिर्फ रूसी भाषा में लिखता है। उसके प्रशंसक पाठकों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। साहित्यिक गुणवत्ता के साथ ज्ञान व चिंतन की गहराई, भाषा की मोहताज नहीं। तभी तो पेलेविन की रचनाएं किसी भी भाषा में अनुवादित होते ही वहां भी लोकप्रिय हो जाती हैं।
विक्टर पेलेविन का आगमन रूसी साहित्य में रहस्यवाद के द्वार खोलता है। उन्नीसवीं व बीसवीं शताब्दी में रूस ने विश्व को सर्वश्रेष्ठ व सर्वाधिक कृतियां दीं। ‘पुश्किन’ का स्वछन्दवाद ‘टॉलस्टाय’ का यथार्थवाद बनकर विश्व में लोकप्रिय हुआ। ‘चेखव’ ने इसमें आलोचनात्मकता का पुट डाला। यह ‘गोर्की’ के आते-आते साम्यवादी हो गया। ‘बूनिन’ बिम्बवाद व छायावाद के प्रतीक बने तो ‘पाउस्तोव्स्की’ प्रकृतिवादी बनकर उभरे। यहीं से आगे बढ़कर ‘पेलेविन’ रहस्यवाद में प्रवेश कर गए जो शून्यवाद तक पहुंच जाता है।
सोवियत यूनियन का टूटना और रूस का बनना विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसका विश्व परिदृश्य पर गहरा असर पड़ा और अमेरिका अकेले राज करने के लिए स्वतंत्र हुआ। यह अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण हुआ, मगर संदर्भित राष्ट्र की आंतरिक अवस्था पर ध्यान दें तो कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था के समाप्त होते ही रूस ने मानो चैन की सांस ली थी। आम जनता को लगा कि देश आजाद हुआ। यह तथ्य रूसी समाज के अहम्‌ से जुड़ा तो था कि वो विश्व शक्ति कहलाने से अब वंचित हुआ है मगर आंतरिक उथल-पुथल में वो इतना अधिक उलझा रहा कि होश ही न था। घटनाक्रम तेजी से बदल रहे थे। आर्थिक स्वतंत्रता के मिलते ही बाजार जहां मुक्त हुआ वहीं समाज और परिवार भी उन्मुक्त हो गये। रूसी समाज में चपरासी से लेकर ड्राइवर और उच्च पदस्थ नौकरशाह तक में किताब पढ़ने की संस्कृति रही है, उपरोक्त ऐतिहासिक क्रांति के बाद भी रूस ने पढ़ना तो नहीं छोड़ा लेकिन साहित्य का स्थान उन्मुक्त यौन संबंधित पोर्न लिटरेचर ने ले लिया।
दो दशक बीत जाने के बाद भी रूस आज तक अपने कठिनतम संक्रमणकाल से गुजर रहा है। रूस के इतिहास को देखें तो उसने सदैव परिवर्तन की चुनौती को स्वीकार कर अपने लिये नयी मंजिलें खोजी हैं। यही कारण है जो आज के इस दौर में रूसी साहित्य ने एक नया नाम पैदा किया जो उसके अंदर की इसी कश्मकश को प्रदर्शित करता है। विक्टर पेलेविन (जन्म 22 नवंबर, 1962) स्वतंत्र काल्पनिक कथाकार और व्यंग्यकार हैं। मास्को से इंजीनियरिंग के बाद क्रियेटिव राइटिंग की एक साहित्य संस्था में उन्होंने सृजनात्मक ज्ञान प्राप्त किया। और उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। मूलतः विज्ञान के छात्र ने कला व लेखन के क्षेत्र को कर्मभूमि बनाया। यही कारण है जो उनके लेखन में विज्ञान व दर्शन साथ-साथ चलते हैं।
यह समय का कालचक्र है। परिस्थितियां घूम-घूमकर वापस आती हैं। पेलेविन लेखन में पोस्ट-मॉडेनिजम का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह आधुनिकतम से भी आगे के काल को प्रदर्शित करता है। इसमें पुराने काल को नये रूप में फिर से लौट-लौटकर आते हुए देखा जा सकता है। आधुनिक पॉप कल्चर को गूढ़ व रहस्यमयी दर्शन के साथ फ्यूज कर (संलग्न कर) पेलेविन के द्वारा परोसा जाना भविष्य में अतीत के पुनरागमन का संकेत है। यह संयोग नहीं था जब पेलेविन ने अपने प्रारंभिक दौर में एक प्रतिष्ठित विज्ञान और धर्म की पत्रिका का संपादन करने के दौरान पूर्वी रहस्यवाद की पेचिदगी को लेखों में क्रमवार कलमबद्ध कर प्रकाशित किया।
पेलेविन की पहली कहानी 1989 में छपी थी और 1992 में ही उनके पहले कहानी संग्रह ‘द ब्लूलेंटन’ को रशिया का लिटल बुकर्स प्राइज प्राप्त हुआ। अगले ही वर्ष 1993 में प्रथम उपन्यास ‘द लाइफ ऑफ इनसेक्ट’ प्रकाशित हुआ। प्रारंभ से ही दर्शन और रहस्य इनके लेखन में साफ-साफ उभरकर आया। और इसका लोकप्रिय होना इस बात का द्योतक था कि रूसी समाज अंदर ही अंदर सुलग रहा था, जिसको शांत करने के लिए शब्दों की बौछार चाहिए थी। यह वो काल था जब कम्युनिस्ट जा रहे थे और स्वतंत्रता एक नये रूप में प्रवेश कर रही थी। पेलेविन के लेखन में स्टालिनवाद के विरोध में कहीं प्रतीक बनकर कहीं खुलकर लिखा गया है और उस काल के दौरान की गई नृशंसता व अत्याचार के वीभत्स रूप को दिखाया गया है। पेलेविन के माध्यम से जाने-अनजाने ही राष्ट्र-प्रेम की भावना उभरती है।
दर्शनशास्त्र लिखने व समझने में मातृभाषा बेहतर विकल्प है। वैसे तो विचारों के लिए भाषा माध्यम है, लक्ष्य नहीं। फिर भी इसका सशक्त, सरल व समझ के दायरे में होना आवश्यक है। तभी तो पेलेविन रूसी में ही सोचते और बोलते हैं। यही नहीं उन्होंने अपनी तमाम रचनाओं को रूसी भाषा में इंटरनेट पर मुफ्त प्रदर्शन करने की अनुमति दी। कुछ एक उपन्यास वॉयस फाइल के रूप में भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह उनके भाषा प्रेम को प्रदर्शित करता है।
पेलेविन बहुत कम साक्षात्कार देते हैं। यह उनके रहस्य को और बढ़ा देता है। कुछ गिने-चुने साक्षात्कारों में भी वह स्वयं की रचना और खुद पर बात करना पसंद नहीं करते। उनकी रचनाओं को पढ़ने के दौरान पाठकों में उत्पन्न हुई भावनाएं व विचार, जो उनके मतानुसार हर मस्तिष्क में अलग-अलग रूप से जन्म लेगी, उस दृष्टिकोण को वह समझना, विश्लेषण करना और फिर उस पर बात करना चाहते हैं। उनके लेखन में पाठक और लेखक के बीच में सीधे संवाद के माध्यम से सृजन किया जाता है।
सोवियत संघ चारों तरफ से बंद समाज था। यहां आम नागरिक का दम घुटता था। अंदर की बातें बहुत कम बाहर आती थीं और बाहर की दुनिया अंदर वालों के लिए एक सपने से कम नहीं थीं। कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था टूटने के साथ ही यह पिंजरा भी टूट गया। पहले जारशाही फिर स्टालिनवाद अर्थात युगों-युगों से बंद कैदी अचानक स्वतंत्र हुआ। इस घटनाओं को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन के अंतिम जनरल सेक्रेटरी मिखाइल गोर्वाचोव ने पिरिस्त्रोइका नाम दिया था। पिरिस्त्रोइका अर्थात पुनर्निर्माण की प्रक्रिया। पुराने का नये से विस्थापन। पेलेविन इसके पक्के समर्थक बनकर उभरे। यह प्रकृति का नियम है। वर्षों से बंद आदमी बाहर निकलते ही उन्मुक्त हो जाता है। शायद यही कारण है कि रूसी समाज उच्छृंखल हो गया। वो दिन-रात मदमस्त रहने लगा। स्वच्छंद समाज व अनियंत्रित यौन संबंध समाज परिवार का अभिन्न अंग बन गए। क्लासिक्स की जगह यौन संबंधित पौर्न साहित्य ने स्थान ले लिया। जासूसी उपन्यास लिखे व पढ़े जाने लगे। इस महापरिवर्तन काल के दौरान एक समय तो ऐसा भी आया कि चेखव, टॉलस्टाय व गोर्की का स्थान तो बरकरार रहा मगर नया कुछ न होने के कारण पश्चिमी पॉपुलर लेखन ने घुसपैठ की। मगर यह स्थायी नहीं था। यह तो वर्षों से बंद कैदी के बाहर निकलने पर, उसका स्वाभाविक प्रतिक्रियात्मक क्षणिक व्यवहार था। चूंकि अंदर उसके कसमसाहट व्याप्त थी। वो छटपटा कर कुछ ढूंढ़ रहा था। इस बाहरी आक्रमण/अतिक्रमण को मानो पेलेविन और समकालीन अन्य लेखकों ने रोक दिया। सेक्स और क्राइम के रोचक और चकाचौंध से भरे लोकप्रिय लेखन के बीच भी पेलेविन के दर्शनशास्त्र ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। और मात्र दो दशकों में उनका नाम रूसी साहित्य में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम बन गया। यह रूस का साहित्यिक पिरिस्त्रोइका है।
1993 के रशियन बुकर प्राइज के जज ज्योफरे हॉस्किग, पेलेविन के लेखन को सोशियो मेटाफिजिकल फंटासी नाम देते हैं। अर्थात तथ्य व तर्क आधारित अति काल्पनिक मायाजाल का सृजन। इसमें पराभौतिकी के तत्व भी हैं। यहां इग्जॉटिक इन्वेटिंव इमैजिनेशन है। एक खोजी कल्पना। उनका साहित्य विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुका है। लेकिन पंजाब विश्वविद्यालय में रूसी भाषा विभाग के अध्यक्ष प्रो. मालवीय के कथनानुसार पेलेविन को अनुवाद करना मुश्किल कार्य है। तोलस्तोय, चेखव, पुश्किन, बूनिन, पाउस्तोव्स्की इत्यादि की दसियों रचनाओं को अनूदित कर चुके प्रो. मालवीय अब तक पेलेविन की मात्र दो रचनाएं अनूदित कर पाए हैं। पहली रचना ‘पुल जिसे मैं पार करना चाहता था’ एक लघुकथा है, एक पृष्ठ की। इसे एक पत्रिका के विशेष अंक में, जिसे इस लेख के लेखक ने बतौर अतिथि संपादक संपादित किया था, प्रकाशित किया गया है। स्वाभाविक रूप से यह रचना पढ़ी गई थी। गहराई अधिक है। इसे पहली बार में समझना कठिन है। दूसरी-तीसरी बार में खुलासा होने लगता है। दूसरी रचना ‘नीली बत्ती’ कहानी को हिन्दी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने यह कहकर लौटा दिया कि इसमें मौत से संबंधित दर्शन हल्के ढंग से व्यक्त हुआ है। यह रचना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत है फिर भी हमारे यहां अभी तक इसे स्वीकृति नहीं मिली। और हिन्दी का पाठक इससे आज तक वंचित है।
इंजीनियरिंग विज्ञान का प्रयोग मानव के उपयोग के लिए करता है। पेलेविन इंजीनियर हैं और उन्होंने दर्शनशास्त्र को मानव जाति के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास किया है। विज्ञान प्रकृति के रहस्य को समझते हुए सरल बनाकर प्रस्तुत करता है। लेकिन यह अभी भी उतनी ही रहस्यमयी है। शायद यही कारण है जो पेलेविन के दर्शन में अब भी रहस्यवाद गूढ़ है। बात यहीं आकर नहीं रुक जाती, उनका रहस्यवाद शून्यवाद की ओर बढ़ने लगता है। फिर अनायास ही बौद्ध धर्म की विचारधारा की ओर मुड़ जाता है। निजी जीवन में भी तभी तो वह बौद्ध मठों में कई दिन गुजार आते हैं।
पेलेविन की रचनाएं रूस की आंतरिक अव्यवस्था की पोल खोलती है। इसमें बिम्ब व प्रतिबिम्ब होते हैं अर्थात संदेश प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात बोलते हैं और इसीलिए विश्व का पाठक, देश की सीमाओं से परे इनकी रचना से स्वयं को जोड़ लेता है। उनके साहित्य सृजन को समझने के लिए पाठक को अपने बौद्धिक स्तर को ऊंचा उठाना पड़ता हैं, पढ़ने के लिए ठहरना पड़ता है। यह फास्टफूड नहीं जो मिनटों में पकाया खाया। यह पाठक को बांधता है। और यही आज का बौद्धिक वर्ग चाहता था। वह अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए अंदर ही अंदर भटक रहा था। पेलेविन ने उसी को जागृत किया है। वे स्वयं कहते हैं कि मेरी रचना को पढ़ने पर हर मस्तिष्क में एक नये तरह की विचारधारा उत्पन्न होती है। वे अपने आप में अनूठी व अचरज से भरी हुई होती है। जिसके अपने मायने व अलग दृष्टिकोण होता है। शायद यही वजह है कि उनकी उपन्यास ‘बेबी लॉन’ के कवर पेज पर यह छपा हुआ है कि इस पुस्तक के पढ़ने के दौरान उत्पन्न हुई विचारधारा, दर्शन, धारणा व चिंतन के ऊपर भी लेखक का कॉपी राइट माना जाएगा, जिसका उल्लंघन करना प्रतिबंधित है, इसका अनाधिकृत उपयोग न किया जाए। यह एकदम नयी सोच है।

No comments:

Post a Comment