Monday, 8 July 2013

विश्वकवि कालिदास


डॉ.ओम जोशी

विश्वकवि कालिदास विश्व साहित्यकारों में आज भी शीर्षस्थ है, सर्वोच्च हैं, सर्वोत्तम हैं। उनकी समस्त संस्कृत रचनाएँ निश्चित ही कालजयी हैं। उनकी विश्वव्यापकता का अनुमान इसी तथ्य से स्वतः प्रमाणित है कि सुप्रसिद्ध जर्मन कवि ‘गेटे’ ने जब उनके ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ नाटक का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा , तो वे भावविभोर होकर ग्रन्थ को सर पर रख कर नाचने लगे।
महाकवि कालिदास को कौन नहीं जानता ? विश्वप्रसिद्ध साहित्यकारों में भी वे अन्यतम हैं। दो हज़ार से अधिक वर्ष व्यतीत होने के उपरांत भी उनकी कीर्तिपताका आज भी विद्युत् जैसी दमक रही है। विश्व की अनेक भाषाओं में उनका साहित्य अनूदित हो चुका है। वैसे तो कालिदास रचित इकतालीस से अधिक संस्कृत कृतियों का उल्लेख प्राप्त है, कितु, उनके मुख्य ग्रन्थ सात ही स्वीकारे गए हैं। ऋतुसंहारम, मेघदूतम, कुमारसंभवम, और रघुवंशम – ये चार उनकी काव्य रचनाएँ हैं, जबकि मालविकाग्निमित्रम, विक्रमोर्वशीयम और अभिज्ञान शाकुंतलम – ये तीन उनकी नाट्य कृतियाँ हैं।
चाहे काव्य हो या नाटक, समग्र कालिदास साहित्य हिंदी सहित विश्व की प्रायः समस्त प्रमुख भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित है, किन्तु , उन अनुवादों में भाव, भाषा, प्रवाह, रस, सौंदर्य, अलंकार, आदि की दृष्टि से कहीं- न – कहीं, कोई – न – कोई न्यूनता अवश्य विद्यमान है। इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए संस्कृत के महाकवि ‘भवभूति’ और आचार्य ‘मल्लिनाथ के वंशज तथा आकाशवाणी ‘गुना’ मध्यप्रदेश के कार्यक्रम प्रमुख डॉ. ओम जोशी ने – ‘कालिदास समग्र’ – शीर्षक से विश्वकवि कालिदास की सातों प्रमुख संस्कृत रचनाओं को हिंदी दोहों में अनूदित किया है।
वस्तुतः अनुवाद एक अत्यंत जटिल और परिश्रम साध्य प्रक्रिया है, क्योंकि , जिस भाषा से जिस भाषा में अनुवाद किया जाना है, जब तक उन दोनों भाषाओं पर अनुवादक का असाधारण अधिकार नहीं होगा, तब तक अनुवाद सार्थक, सरस और परिपूर्ण होना संभव नहीं। कितने ही प्रयत्न क्यों न किये जाएँ, कोई भी अनुवाद किसी भी रचना के मूल स्वरुप के समकक्ष नहीं हो पाता। दर्पण में किसी भी व्यक्ति या वस्तु का प्रतिबिम्ब ज्यों – का – त्यों ही क्यों न दिखे , दायाँ भाग बाईं ओर तथा बायाँ भाग दायीं ओर तो हो ही जाता है। प्रस्तुत ‘कालिदास समग्र ‘ इस तथ्य का अपवाद नहीं है, किन्तु, फिर भी अनुवाद के कठोर नियम बंधन की तुलना में भावानुवाद के अधिक उदार परिवेश में डॉ. जाशी की ‘ कवि – प्रतिभा’ को अपना रचना कौशल प्रदर्शित करने के अवसर भी सुलभ हो गए हैं। ‘मेघदूतम’ के प्रथम पद्य के भावानुवाद का यह दोहा इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत है –
सिय अवगाहन से वहाँ, अतिपावन जलकुंड।
हरे- भरे सब वृक्ष भी, वहीं झुण्ड के झुण्ड।
विश्वकवि कालिदास की सातों संस्कृत रचनाओं का, प्रायः छ: मास की समयावधि में, एक ही रचनाकार द्वारा हिंदी दोहा (काव्य) अनुवाद वस्तुतः सर्वथा असंभव रचाना कार्य है और इस असंभव को ‘कालिदास समग्र’ के रूप में संभव कर दिखाया है – डॉ. ओम जोशी ने। कहना न होगा कि डॉ. ओम जोशी द्वारा विरचित और प्रस्तुत रचना ‘कालिदास समग्र’ विश्वकवि कालिदास के समस्त रचना संसार को सरल हिन्दी दोहों के माध्यम से समग्र विश्व के समक्ष प्रस्तुत करती है। यह रचना जन – जन के लिए सर्वाधिक उपयोगी तो है ही, साथ ही साथ यह भारत ही नहीं, अपितु, विश्व के समस्त विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, पुस्तकालयों और अन्य सम्बद्ध हिन्दी सेवी संस्थानों तथा अन्यान्य कालिदास तथा समस्त हिन्दी प्रेमियों के लिए निश्चित ही संदर्भ ग्रंथ के रूप में सर्वाधिक उपयोगी भी है। इस प्रस्तुत रचना के माध्यम से समस्त विश्व कालिदास कालीन भारत, भारत की परम्पराएँ, भारत की विविधताएँ, भारत की संस्कृति आदि से निश्चित ही समग्रतः परिचित होगा। नवोदित रजिस्टर्ड प्रकाशन श्वेता पब्लिकेशन ने डॉ. ओम जोशी द्वारा प्रकल्पित और विरचित ‘कालिदास – समग्र’ को रूपाकार दिया है। इस प्रकाशन के प्रमुख उद्देश्य हैं – नवोदित और स्तरीय साहित्यकारों को प्रोत्साहन और उनकी पुस्तकों का प्रकाशन, विभिन्न पत्रिकाओं का जनहित में समय – समय पर प्रकाशन I देश में नैतिक शिक्षा हेतु सार्थक प्रयास और भारतीय प्रतिभाओं का देश में सम्मान I श्वेता पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित और डॉ. ओम जोशी द्वारा विरचित ‘कालिदास – समग्र’ दो खण्डों में मुद्रित है और इन दोनों खण्डों का मूल्य भारत में रु. 895/- और विदेशों में है : 50 डॉलर तथा डाक व्यय अलग से I
कुमारसम्भवम
‘कुमारसंभवम’  विश्वकवि    कालिदास का सुप्रसिद्ध और विशिष्ट महाकाव्य है। हिमालय की पुत्री पार्वती द्वारा घोर तपस्या के फल के रूप में महादेव शिव को प्राप्त करने और उनसे कार्तिकेय यानी कुमार या स्कन्द की उत्पत्ति तथा ‘तारकासुर ‘ के नाश की कथा इस महाकाव्य की आधारभूमि है।
इस महाकाव्य में यूँ तो सत्रह सर्ग हैं, किन्तु, कतिपय विद्वान आठ सर्गों तक की रचना को ही कालिदास की कृति मानते हैं। चूंकि अंतिम नौ सर्गों के बिना कुमारसंभवम का महाकाव्य तत्व अपूर्ण रहता है, अतः , सभी सत्रह सर्गों को कालिदास द्वारा रचित मानना समुचित है। सर्गानुसार  कथा सारांश इस प्रकार है – सर्ग एक – पर्वतराज हिमालय का विस्तृत वर्णन  और पार्वती की उत्पत्ति, सर्ग दो – तारकासुर से त्रस्त देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और ब्रह्मा जी द्वारा वरदान के रूप में शिव। पार्वती के पुत्र ‘कुमार’ द्वारा तारकासुर के वध का उपाय बतलाना, सर्ग तीन – कामदेव द्वारा महादेव शिव की तपस्या भंग और क्रुद्ध महाकाल द्वारा तीसरे नेत्र द्वारा कामदेव को भस्म करना, सर्ग चार – पति कामदेव के भस्मीभूत होने पर पत्नी रति का विलाप, सर्ग पाँच – पार्वती की घोरतम तपस्या का चित्रण और ब्रह्मचारी वेशधारी शिव से पार्वती की चर्चा और समागम, सर्ग छ :- इच्छुक शिव द्वारा पार्वती की   याचना के लिए  सप्तऋषियों  को हिमालय के पास भेजना , सर्ग सात – प्रलयंकर शंकर की वरयात्रा और उमा से परिणय, सर्ग आठ -  शंकर – पार्वती का दाम्पत्य जीवन और प्रणय विहार , सर्ग नौ – दांपत्य सुख का अनुभव, विविध पर्वतों आदि का भ्रमण और पुनः कैलास पर्वत पर लौटना, सर्ग दस – कुमार ( कार्तिकेय) का गर्भ में  आगमन, सर्ग ग्यारह – कुमार का जन्म विशेष और बाल्यकाल का वर्णन, सर्ग बारह – कुमार का सेना नायक होना, सर्ग तेरह – कुमार का सैन्य सञ्चालन और निर्देशन, सर्ग चौदह – तारकासुर पर आक्रामण के लिए देवसेना का स्वर्ग की ओर प्रयाण , सर्ग पंद्रह – देवता और असुरों की सेनाओं का परस्पर घोर संघर्ष, सर्ग सोलह – देवासुर संग्राम और सर्ग सत्रह – तारकासुर का ‘ कुमार’ द्वारा वध।
‘कुमारसम्भवम’ महाकाव्य में भाव , कला, भाषा और अलंकारों का अभूतपूर्व समन्वय है। सजीव और विशाल वर्णन , उच्चतम   कल्पनाशीलता, अनुपम श्रृंगार वर्णन और तपोमूलक विशुद्ध प्रेम की महत्ता की सचित्र प्रस्तुति सिद्ध छन्दोयाजना के कारण ही ‘कुमारसम्भवम’  संस्कृत के सफलतम महाकाव्यों में अन्यतम है।
मेघदूतम
विश्वकवि कालिदास द्वारा विरचित -’मेघदूतम’ का विश्व साहित्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें विरही यक्ष आषाढ़ के पहले दिन मेघ के माध्यम से अपनी प्रिय यक्षिणी को ‘प्रणय – सन्देश’ पहुँचाता है। पूर्व मेघ में रामगिरी से लेकर अलका तक का मार्ग कथन और उत्तर मेघ मेघ में अलका वर्णन और प्रिया के लिए सन्देश विशेष उपलब्ध है। कथा संक्षेप इस प्रकार है -
पूर्व मेघ
अलकापुरी के स्वामी कुबेर ने कर्तव्यहीनता के आरोप में एक यक्ष को शाप आदेश दिया कि – ‘ वह प्रिया वियोग सहते हुए एक वर्ष तक मृत्युलोक में निवास करे।’ यक्ष शापवश रामगिरी के आश्रमों में निवास  करने लगता है और शाप के प्रायः आठ मास व्यतीत होने पर आषाढ़ के प्रथम दिवस उसे पर्वतीय ढलान पर विराजित मेघ के दर्शन होते हैं। प्रिया के बिना आकुल व्याकुल यक्ष, चेतन। अचेतन में भेद की क्षमता भी खो बैठा और पहले उसने मेघ की प्रशंसा की। तब यक्ष ने उसे रामगिरी से प्रिया  की अलका नगरी गमन का मार्ग भी कह दिया और यह भी संकेत दिया कि उसे कुछ विशेष दर्शनीय क्षेत्रों में विश्राम कर आगे बढ़ना है। ये क्षेत्र हैं – माल प्रदेश (मालवा ), आम्रकूट (अमरकंटक), नर्मदा नदी , विदिशा, वेत्रवती (बेतवा नदी), नीच नामक पर्वत, निर्विन्ध्या नदी, उज्जयिनी में सिप्रा (क्षिप्रा) नदी, महाकाल मंदिर ,  गम्भीरा, सिन्धु  सरिताएँ , देवगिरी, दशपुर (मंदसौर), चर्मण्वती (चम्बल) नदी,  कुरुक्षेत्र, सरस्वती नदी, कनखल, गंगा नदी, हिमालय पर्वत , क्रौन्चरंध्र  – कैलास के मार्ग में संभवतः नीतिमाणा   दर्रा , कैलास पर्वत और उसकी गोद में विराजित अलका नगरी।
उत्तर मेघ
विरही यक्ष रामगिरी आश्रम से अलका यात्रा तक के विशिष्ट क्षेत्रों का वर्णन करके आगे कहता है – ‘मेघ ! तुम्हें अलका में गगनचुम्बी भवन मिलेंगे। वहाँ स्वर्ग जैसे सुख, वैभव, विलास, और आनंद सहज सुलभ हैं। वहीं कुबेर के राजभवन के उत्तर में शंख और कमल के चिह्नोंवाला मेरा घर है। वहीं विरहिणी प्रिया मिलेगी। वह प्रिया …….. वियोग से विचलित , उदास , मलिन , दुर्बल और तुषारापात से आहात कमिलिनी जैसी दृष्टिगोचर होगी। उससे मेरा यह सन्देश अवश्य ही कह देना कि – ‘तुम बिलकुल भी खिन्न और उदास नहीं रहना। विरह के शेष चार मास नयन मूँद धैर्यपूर्वक बिता दो। सुख – दुःख गतिमय चक्र के अरे जैसे ऊपर -  नीचे आते रहते हैं।  मैं किसी प्रकार दुःख के दिन व्यतीत कर रहा हूँ। देवप्रबोधिनी के दिन मेरा  शापान्त   हो जायेगा और  शीघ्रातिशीघ्र अपना मिलन होगा।’ अपने सन्देश के अंत में यक्ष बहुत ही मार्मिक वचन प्रकट करता है – ‘ मेघ! शापवश मेरा,  जैसा अपनी प्रिया से विछोह हुआ, वियोग हुआ, वैसा तुम्हारा अपनी प्रिया विद्युत्। बिजली से क्षण भर के लिए नही वियोग ना हो।’
‘मेघदूतम’ एक यक्ष की आत्मकथा के रूप में मानों कालिदास की ही अपनी प्रणय गाथा   है। रस, भावपक्ष, कलापक्ष, कल्पनाशीलता, उदारता , प्रकृति से समीपता , भारतीय संस्कृति की महिमा, रमणीयता,  महनीयता, और अनिर्वचनीयता की दृष्टि से यह रचना विश्वकवि कालिदास की अलौकिक संरचना है। विश्व के प्रायः सभी साहित्यकारों, अध्येताओं, पाठकों और रसिकों ने इसका मुक्त कंठ से यशोगान किया है।
‘मेघदूतम’ के रूप में कालिदास गीतिकाव्य परम्परा के पुरोधा ही हैं।
रघुवंशम
‘रघुवंशम’ महाकाव्य  में मनु से लेकर इकत्तीस सूर्यवंशी राजाओं का जीवन वृत्त उपलब्ध है।  हाँ ….. नृप दिलीप , रघु, अज, दशरथ, और श्री राम के जीवन वर्णन को विशेष विस्तार दिया गया है। सर्गानुसार कथा सारांश इस प्रकार है – शिव। पार्वती की वन्दना और रघुवंश की विशेषताओं के उल्लेख के उपरांत संतान विहीन राजा दिलीप संतान प्राप्ति के लिए कुलगुरु वसिष्ठ के निर्देशानुसार कामधेनु की पुत्री नन्दिनी की सेवा का  व्रत  लेते हैं। दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा  समग्र समर्पण से उसकी सेवा करते हैं।  नंदिनी राजा दिलीप की परीक्षा लेती है और वे  उस कठिनतम परीक्षा में सफल भी हो जाते हैं। प्रसन्न  नन्दिनी राजा दिलीप को संतान प्राप्ति का वरदान देती है  और महारानी सुदाक्षिना के गर्भ से रघु का जन्म होता है। विद्या अध्ययन और इन्द्र से युद्ध में विजय प्राप्ति के उपरांत राजा रघु का राज्याभिषेक हो जाता है और वे दिग्विजय यात्रा सफल करके अयोध्या   लौट आते हैं। यज्ञ में सर्वस्व देने वाले राजा रघु से ऋषि वरतन्तु के ब्रह्मचारी शिष्य कौत्स गुरुदक्षिना के रूप में चौदह करोड़  मुद्राओं की याचना करते हैं ? तभी राजा रघु कुबेर पर आक्रमण कर देते हैं। उसी समय  धन  वर्षा होती है और प्रसन्न  कौत्स रघु को पुत्र लाभ का आशीर्वाद देते हैं। तभी अज का जन्म होता है। राजकुमार अज …….. इन्दुमती – स्वयंवर के लिए प्रस्थान कर देते हैं। उस स्वयंवर में देश – विदेश  के अनेकानेक राजा सम्मिलित होते हैं , किन्तु , इन्दुमती अज का ही पति रूप में वरण कर लेती है और उनका विधिवत परिणय हो जाता है। इसी  मध्य प्रतिस्पर्धी असफल राजाओं द्वारा आक्रमण करने पर भी रघुवंशी  अज विजयश्री प्राप्त करते हैं और उनका राज्याभिषेक भी संपन्न हो जाता है। शाप वश अज का इंदुमती से वियोग होते ही वे घोर विलाप करते हैं।  अज द्वारा जीवन से सन्यास लेते ही दशरथ अभिषिक्त सम्राट के रूप में पदस्थ होते हैं। मृगया के लिए दशरथ वन प्रस्थान करते हैं और वहीं असावधानी वश उनसे श्रवणकुमार का वध हो जाता है। श्रवणकुमार के माता – पिता से अभिशप्त दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं , फलतः राम, लक्ष्मण,   भरत और शत्रुघ्न का जन्म होता है। स्वयंवर में राम द्वारा शिवधनुष तोड़ने से सीता राम का वरण कर लेती हैं और वहीं राम आदि का परिणय संपन्न किया जाता है। कैकेयी द्वारा दशरथ से दो वरदान माँगे जाने के कारण राम वनवास  जाते हैं। तभी रावण सीता को हर लंका ले जाता है और राम वानर सेना के साथ लंका जाकर रावण वध करते हैं। राम सीता को लेकर पुष्पक विमान से अयोध्या प्रत्यागमन करते समय श्रीलंका से अयोध्या के मध्य विद्यमान प्रमुख स्थलों का विषद वर्णन भी करते हैं। रामराज्य अभिषेक और सीता परित्याग के पश्चात लव-कुश आद्यकवि वाल्मीकि के आश्रम में जन्म लेते हैं। श्री राम के स्वर्गारोहण के बाद कुश का राज्याभिषेक और कुमुद्वती से विवाह संपन्न होता है। कुश के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र अतिथि का राज्यारोहण किया जाता है। तदन्तर अतिथि और उसके वंशज इक्कीस  राजाओं का संक्षिप्त  वर्णन उपलब्ध है। अंतिम राजा अग्निवर्ण का राज्याभिषेक, उसकी अत्यंत विषयासक्ति और राज्यक्षमा (टी. बी. ) से पीड़ित होकर देहावसान, उसकी रानी का राज्याभिषेक और गर्भस्थ शिशु के उत्तराधिकारी होने का मंत्रियों  द्वारा निर्णय आदि वर्णन प्रस्तुत ‘रघुवंशम’ महाकाव्य में क्रमशः चित्रित हैं।
‘रघुवंशम’  में विश्वकवि कालिदास की प्रतिभा का सर्वोत्तम निदर्शन पदे- पदे उपलब्ध है। भावसौन्दर्य , कला चमत्कार , प्रसाद और माधुर्य गुणयुक्त भाषाशैली, अनुपम अलंकार छटा, सर्वोत्तम और अनुपम प्रकृति वर्णन तथा रस संयोजन की दृष्टि से ‘रघुवंशम’ आदर्श और सर्वोत्तम महाकाव्य के रूप में विशेषतः प्रतिष्ठित है।

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