Saturday, 22 June 2013

किताब के बहाने ‘ख्वाब के दो दिन’

किताब के बहाने ‘ख्वाब के दो दिन’

bookhhBookss[5]राजकमल प्रकाशन/ मूल्य-175रु./ पृ.284
दोही तरह की किताबों को पढ़ने में हमें ज्यादा वक़्त लगता है । एक वे जो महत्वपूर्ण तो होती हैं, मगर बुनावट की दृष्टि से बोझिल होती हैं, पाठक को बांध कर नहीं रख पातीं । दूसरी वे जो महत्वपूर्ण तो होती ही हैं साथ ही उनकी भाषा, कथ्य और रचना-विधान भी विशिष्ट होता है । इन सभी चीज़ों का एक साथ आनंद लेते हुए एक बैठक में उस कृति को पढ़ पाना मुश्किल होता है । पहली किस्म की महत्वपूर्ण पुस्तकें कई बार लम्बे लम्बे अंतराल के बाद खत्म की जाती हैं । हाँ, दूसरी किस्म की कृतियों के साथ लम्बा अंतराल तो नहीं आता, मगर उन्हें एक बैठक में भी खत्म नहीं किया जा सकता । क्योंकि वे आपको सोचने का मौका देती हैं । वरिष्ठ पत्रकार यशवंत व्यास की हाल ही में प्रकाशित ‘ ख़्वाब के दो दिन ’ दूसरी किस्म की किताब है ।
yashwant 60यशवंत व्यास 'अहा ज़िंदगी', ‘दैनिक भास्कर’ और ‘नवज्योति’ के सम्पादक रह चुके हैं । इन दिनों ‘अमर उजाला’ के समूह सलाहकार । विभिन्न विषयों पर दस किताबें प्रकाशित
चिन्ताघर और ‘कामरेड गोडसे’ यशवंत व्यास की चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ हैं । दोनों के लिए उन्हें अनेक सम्मान – पुरस्कार मिल चुके हैं । ‘चिंताघर’ 1992 में लिखा गया । ज़ाहिर है इसके कथा-फ़लक में 1992 से पहले के दो दशक समाए हुए हैं । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ 2006 में प्रकाशित हुआ और इसमें भी 2006 से पूर्व के दो दशकों की छाया है । दोनों उपन्यासों में ख़बरनवीसी की दुनिया के समूचे तन्त्र की पड़ताल है ।‘चिंताघर’ से ‘कामरेड गोडसे’ तक का समय धर्मयुग, दिनमान जैसी पत्रिकाओं और नई दुनिया जैसे अखबारों से होते हुए क्षेत्रीय पत्रकारिता के उभार का काल है । इन दोनों उपन्यासों में लेखक ने लीक से हटकर रचे गए कथा-विधान के ज़रिये, उन चूहा सम्पादकों और गोबर ( गणेश ) मालिकों की कारगुज़ारियाँ उजागर की हैं जो सर्कुलेशन के आँकड़ों पर बाजीगरी दिखाते हुए, लोकल से ग्लोबल बनने की होड़ में आपराधिक जोड़-तोड़ से भी गुरेज़ नहीं करते । पत्रकारीय फ़लक पर लिखे गए दोनो कथानकों को अब उन्होंने एक छोटी भूमिका के ज़रिये एक साथ रख दिया है । ख़्वाब के दो दिन एक तरह से दोनों कृतियों का पुनर्पाठ है , जिन्हें  राजकमल प्रकाशन ने शाया किया है ।
बाज दफ़ा लेखक जो कुछ भोगता-देखता है उसे रोचक अंदाज़ में सामने रखता है । कभी वह अलग किस्म का शिल्प-विधान रचता है और कभी सहज क़िस्साग़ोई के ज़रिये कहानी कहता है । यशवंत व्यास का अपना अलग अंदाज़ है । उनके अनुभवों का केनवास बहुत बड़ा है । वे कई आयामों से दुनिया को देखते हैं । कभी दुनिया उनके आगे से गुज़रती है और कभी वे खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं । सिर्फ़ कथ्य को समझ लेने की जल्दबाजी वाले गोष्ठीटाइप बुद्धिजीवियों के लिए यह उपन्यास बौद्धिक कसरत साबित हो सकता है । यही नहीं, बहुत मुमकिन है उन्हें रचना-विधान जटिल और अराजक तक नज़र आए । किन्तु पत्रकारीय नज़रिये से समसामयिक राजनीतिक परिदृष्य को समझने वालों और गंभीर लेखन करने वालों के लिए इस पुस्तक में भरपूर आधार-सूत्र मौजूद हैं ।
किसी नए फ़ारमेट के लिए भाषा का तेवर भी अनूठा होना चाहिए सो यशवंत व्यास यहाँ तो जैसे अपने तरकश के सारे तीरों के साथ नज़र आते हैं । ‘चिंताघर’ की जटिल संरचना की जिन्हें शिकायत है सो होती रहे । अपन को उनकी कतई चिन्ता नहीं । ‘ख्वाब के दो दिन’ के पहले ख़्वाब से गुज़रनें में अगर हमने ज्यादा वक़्त लगाया तो इसलिए नहीं क्योंकि वह जटिल था बल्कि इसलिए क्योंकि लेखक के भाषायी तिलिस्म में हम उलझ-उलझ जाते रहे । आलोचक टाईप लोगों के लिए यह उलझाव शब्द नकारात्मक हो सकता है मगर हम सकारात्मक अर्थ में इसे लिख रहे हैं । आप भूलभुलैयाँ में क्यों जाते हैं ? खुद हो कर जाते हैं और बार बार जाते हैं । सुलझाव की खातिर । सुलझाव के मज़े की खातिर । सुलझाव का यह मज़ा दरअसल चिन्ताघर के लेखक द्वारा खुद रचे गए नए मुहावरे को समझने पर आता है । इसीलिए लेखक के भाषायी तिलिस्म को समझने के लिए चिन्ताघर की कई-कई पेढ़ियाँ हमने बार-बार चढ़ीं और बहुत से गलियारों में देर तक ठिठके रहे । रिवायती अंदाज़ में कथानक से परिचित कराना यशवंत व्यास जैसी व्यंग्य दृष्टि रखने वाले लेखकों के लिए दायरे में बंधने जैसा होता है । दायरा तोड़े बिना व्यंग्य का पैनापन नहीं उभर सकता । उनकी भाषा हर बीतते क्षण और रचे जाते वर्तमान में मौजूद व्यंग्य-तत्व को स्कैन कर लेती है । व्यासजी का ऑटोस्कैनर जो नतीजे देता है वे अक्सर मुहावरों और सूक्तियों की शक्ल में सामने आते हैं – हिन्दी को समृद्ध करते नए भाषाई तेवर से आप रूबरू होते हैं । मगर ऐसा प्रयोगशीलता के आग्रह की वजह से नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि चिन्ताघर जिस रचना-प्रक्रिया से जन्मा है, उसके बाद इस कृति का रूप यही होना था । वैसे भी इसमें आख्यायिका शैली या वर्णनात्मकता के लिए गुंजाइश नहीं थी ।
भाषायी तेवर की मिसालें ही अगर देना चाहें तो अपन ‘ख्वाब के दो दिन’ की समूची ज़िल्द ही कोट कर देंगे । कुछ बानगियाँ पेश हैं । 1.“मेरे पास प्रतिष्ठा रूपी जो कुछ था उससे एक चूहे को इस क़दर स्वस्थ रख पाना मुश्किल था”2.”साफ़ करने के बाद भी मुँछें अन्तरात्मा की तरह उगना चाहती हैं । जो समझदार होते हैं वे प्रतिदिन शेव करते हैं, इस तरह अन्तरात्मा से भी मुकाबला किया जा सकता है । ” 3.“अच्छा मुख्य अतिथि स्थिर, गम्भीर और (कुछ एक अंगों को छोड़कर ) गतिहीन होता है । उससे उम्मीद की जाती है कि समारोह को गति प्रदान करे ।” 4. “समूचा तन्त्र भक्तिकालीन साहित्य की तरह पवित्र और रसमय हो जाता” 5. “उद्यमशीलता का सार्वजनिक शील प्रतिभावानों से सुरक्षित रहता है । लेकिन प्रतिभा की सार्वजनिक प्रतिष्ठा उद्यम के कुल टर्नओवर से वाजिब दूरी बनाए रखती है । इस प्रकार उद्यमी उद्यमशील बना रहता है और प्रतिभा, प्रतिभा ही रह जाती है – हिन्दी फिल्मों में हीरो की बहन जैसी । ”
bookचिन्ताघर वस्तुतः क्या है ? एक प्रतीक जो किताब के प्रथम सर्ग में छाया हुआ है । ‘चिन्ताघर’ अखबार का न्यूज़ रूम है । किसी औघड़ पत्रकार की खोपड़ी है । ‘चिन्ताघर’ किसी का भी हो सकता है । फ़िक़्रे-दुनिया में सिर खपाते उस आदमी का भी जिसके ख़्वाबों में चांद है और उसका भी जो रोटी के आगे किसी चांद की सच्चाई नहीं जानता । मौजूदा राजनीति के उदारवादी नटनागर भी किन्हीं चिन्ताघरों की रचना जनता को उलझाने के लिए करते हैं । अलबत्ता वहाँ सुलझाव का कोई प्रयत्न उसके नियामकों की तरफ़ से नहीं होता । इसी तरह ‘कामरेड गोडसे’ दरअसल किसी गोडसे और कामरेड का गड़बड़झाला नहीं बल्कि 1947 से पहले के भारतीय मानस का स्वप्नलोक, आज़ादी का यथार्थ और फिर पोस्ट मॉडर्निज्म- यानी ‘उआ युग’ (उत्तर आधुनिकता, जिसे लेखक ने जगह-जगह पोमो कहा है ) के मिले-जुले प्रभाव से पैदा हुआ एक बिम्ब है जिसके और भी कई आयाम पहचाने जाने अभी बाकी हैं । कवि, नेता, पत्रकार, अफ़सर, व्यापारी इन सबकी वीभत्स आकृतियाँ जब एक साथ सत्ता सुंदरी का शृंगार करती नज़र आती हैं तब न गाँधी शब्द चौंकाता है और न गोडसे ।
‘ख्वाब के दो दिन’ में ‘ चिंताघर ’ के रचना-विधान की जटिलता दूसरे सर्ग ‘ कामरेड गोडसे ’ में टूटती है । जैसा कि यशवंत व्यास भूमिका में बताते हैं कि दोनों कृतियों में डेढ़ दशक का लम्बा समयान्तराल है । 14 साल का यह अन्तर केवल पत्रकारिता के संदर्भ में ही नहीं है । भीष्म साहनी के ‘तमस’ का कथानक रावलपिंडी की एक मस्जिद के बाहर कटे सूअर की लाश मिलने के बाद दंगे की आशंका से शुरू होता है । वह 1946 का दौर था । 20वीं सदी के अंतिम दशक में या 21वी सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में ‘कामरेड गोडसे’ की शुरुआत मस्जिद के बाहर एक मुस्लिम सुधारवादी के कत्ल की खबर से होती है । उसकी लाश के पास सूअर का ब्रोशर बरामद होता है जिसे प्रख्यात चित्रकार ने बनाया था । अखबार का राठी रिपोर्टर कहता है कि-“अब सूअर काट कर फेंकने की ज़रूरत नहीं रही । सूअर का एक ब्रोशर ही काफ़ी है।” इस कृति को पढ़ते हुए राजनीति, कला, साहित्य की दुनिया के कई नामी लोगों के हवाले भी मिलते हैं । मगर यह भी मुमकिन है कि आपको अपने इर्द-गिर्द के चेहरे याद आ जाएँ ।
‘ख्वाब के दो दिन’ पढ़ते हुए लगातार धर्मवीर भारती का बहुचर्चित उपन्यास “सूरज का सातवाँ घोड़ा’, कृशन चंदर का ‘एक गधे की आत्मकथा’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ और मनोहर श्याम जोशी का ‘कुरु कुरु स्वाहा’ याद आता रहा । इसलिए नहीं कि इनके लेखन के स्मृतिचिह्न हमें यशवंत व्यास के लेखन में नज़र आ गए, बल्कि इसलिए क्योंकि आख्यायिका शैली से ऊपर उठते हुए, सपाटबयानी को बरतरफ़ करते हुए ये कृतियाँ अपने अपने समय में नई ज़मीन तोड़ने के लिए चर्चित हुईं । इसी तरह कथ्य के नएपन, भाषायी तेवर और अनूठे रचना विधान के लिए ‘ख़्वाब के दो दिन’ ( चिन्ताघर, कामरेड गोडसे समाहित) हिन्दी कथा साहित्य में महत्वपूर्ण दखल है । पत्रकारिता की उथली सतह पर चहल-क़दमी कर जिन लोगों ने मंच पर वाहवाहियाँ लूटीं, जिनसे पत्रकारिता के नए नए धनुर्धारी प्रेरित होते रहे और उनका अनुकरण कर गौरवान्वित होते रहे, ऐसे द्रोणाचार्यों और उनके एकलव्यों को भी एक बार सही, ‘ख़्वाब के दो दिन’ पढ़ने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए ।  (http://shabdavali.blogspot.in से साभार)

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