Saturday, 22 June 2013

अजित कुमार रचना संचयन


संपादनः गंगाप्रसाद विमल

अजित कुमार का रचना संचयन उनके नए-पुराने पाठकों के लिए प्रीतिकर है. वे एक साथ साहित्य सर्जक, समाज चिंतक और यशस्वी अध्यापक रहे हैं. उनका शालीन व्यक्तित्व, छात्रहितैषी स्वभाव और साहित्यिक मंचों पर उनका प्रसन्न-ह्ढांजल स्वर जहां उन्हें एक ओर विशिष्ट बनाता रहा है, वहीं आत्मीय भी. यही आत्मीयता और अंतरंगता उनकी रचनाओं में भी प्रसन्न मुखर रही है.
कभी ग्यारह पंक्तियों में उनकी बहुचर्चित कवियों का विद्रोह शीर्षक कविता साठ-सत्तर के दशक में 'परंपरा बनाम आधुनिकता' पर चले लंबे विमर्श में लगभग सभी समकालीन आलोचकों द्वारा न जाने कितनी बार उद्धृत की गई थी.
इसी तरह अपने आरंभिक और चर्चित कविता संकलनों अकेले कंठ की पुकार, अंकित होने दो, ये फूल नहीं (1958 से 1970 के बीच छपे), घरौंदा, हिरनी के लिए, घोंघे और ऊसर (1987 से 2001 के बीच छपे) में अजित कुमार अपनी कविता को निरंतर आधुनिक भावबोध के साथ वैचारिक ऊर्जा से उद्दीप्त करते रहे हैं. आत्मबोध के साथ आत्मशोध और संधान का अनुरोध भी उनकी कविताओं में स्पंदित रहता है.
वे अपनी लेखकीयता को पाठक से अलग कर कभी नहीं देखते. इसलिए उनकी बहुत-सी रचनाएं पाठकों से कहीं अधिक स्वयं को संबोधित होती हैं. इस तरह का संवाद कवि-पाठक के बीच के द्वंद्व और दूरी को हटा देता है. आ.जादी शीर्षक कविता इसी बात को एक नए प्रस्थान के साथ दोहराती हैः आज हूं कि सेवक सदा चरणों में रं/आजाद हूं कि जो भी वे कहें, वही कं/आजाद हूं कि संग-संग उनके ही बं/आजाद हूं कि सं सं सं सं सं.''
सर्जक और पाठक के बीच अनुभव का साझा कैसे होता है, उसे अजित कुमार पूरी गंभीरता से समझ्ते हैं. अनुभव का यह भाषा बंधन दोनों के बीच के अंतराल को कैसे पाटता है, यह उनकी अनिवार्यता शीर्षक कविता में उजागर हैः यह समझने, सुनाने, दिखाने के बीच/ जो अंतराल होते हैं/उन्हें भरने के लिए-कितनी ही अपर्याप्त सही/किंतु अनिवार्य है-वही अपनी/जानी-पहचानी, अंतरंग प्रिय भाषा. जिसके बाहर हम जाएं कहीं भी/वापस उसी में लौटेंगे.
इस संचयन में चयनित कविताओं की भाषा अपनी मस्ती और चुस्ती से सराबोर है और सरल-तरल होने के साथ मुहावरेदार भी है. कवि के निजी जीवनानुभव से समृद्ध कुछ आरंभिक कविताएं रोमानी हैं और इनमें दांपत्य जीवन के कुछ मधुर मोहक क्षण और अनछुए बिंब आज भी ताजे लगते हैं.
कई चीजें हैं इस संचयन में. अस्सी कविताएं, छुट्टियां उपन्यास, सुबह का सपना कहानी, कुछ निबंध, यात्रावृत्त, अंकन, संस्मरण आदि. सौ पन्नों का लघु उपन्यास छुट्टियां तो उनकी रचनाधर्मी यात्रा की अजीबोगरीब और विडंबनाओं से जुड़ी एक गाथा है. विद्रोही नामधारी एक पत्रकार के पहाड़ों की सैर के बहाने यह बेहद रोचक और रोमांचक हो गई है.
ऊलजलूल हरकतों, अयाचित पात्रों और अप्रत्याशित घटनाओं के साथ यह सफरी उपन्यास अजित कुमार की जीवंत और मुहावरेदार भाषा के कारण कभी काफी सराहा गया था. इससे एकदम उलट सुबह का सपना कहानी में नरमांस के बेचे जाने का लोमहर्षक उल्लेख है. उस कहानी पर अतियथार्थवादी (सर्रियलिस्टिक) ठप्पा लगाया जा सकता है लेकिन किसी एक मुलायम बांह के हवाले से उसका अंत उसे इतना मधुर, आत्मीय और मानवीय बना देता है कि वह दुःस्वप्न भी प्रिय लगने लगता है.
इस संचयन की ताकत है इसमें संकलित दो निबंध कविता का जीवित संसार और अकविता से कविता की ओर. जगत की गति और कविता की गति के प्रति आश्वस्त कुमार हमें भी आश्वस्ति देते हैं, जब ऋतुराज की कविता (अभी सबसे अच्छी कविता नहीं हुई) को उद्धृत करने के पहले वे कहते हैं: ''इसे मानने में क्या ऐतराज है कि हम बुरी कविता से अच्छी कविता, वहां से बहुत अच्छी कविता और उससे भी आगे सबसे अच्छी कविता के सुदूर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं.''
कविवर बच्चन के संपूर्ण काव्य संसार से हमें परिचित कराने वाले अजित कुमार ने अंकित होने दो (1962) में उनसे जुड़े छह प्रसंग उकेरे हैं, जिनमें उनके व्यक्तित्व के कई पहलू देखे जा सकते हैं, विशेषकर 2 फरवरी, 1960 को हिंदी कर्मचारियों की ओर से बच्चन के सभापतित्व में मनाया गया वसंतोत्सव. लेखक ने बताया है कि बच्चन जी किसी भी कवि या रचनाकार की प्रतिष्ठा का मूल मंत्र उसकी प्रतिभा को ही मानते थेः ''लेखक के पास प्रतिभा होगी तो वह हर जगह और हर परिस्थिति में अपनी बात कहने का रास्ता निकाल लेगा. प्रतिभा है तो सब कुछ है और नहीं है तो ठेंगा.'' देवीशंकर अवस्थी पर लिखित संस्मरण संवेदना के स्तर पर अत्यंत मर्मस्पर्शी है. वे कहते हैं, ''...अक्सर मैं यह भूल जाता हूं कि इस जीवन में दोबारा वह नहीं मिलेंगे बल्कि उनकी प्रतीक्षा करता रहता हूं और कभी-कभी तो ऐसा भ्रम हो जाता है कि अपनी चिर-परिचित आवाज में...वे मुझे बुला रहे हैं.''

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