भारत में बढ़ती जनसंख्या इस बात की गारंटी तो है कि पुस्तक बाजार धीरे धीरे बढ़ता रहेगा और विक्रेताओं को कुछ फायदा भी मिलता रहेगा. लेकिन ईबुक्स और ऑनलाइन पब्लिशिंग किस हद तक भारत में आगे बढ़ रही है? ऐमेजोन का किंडल और सोनी के ई बुक यूरोप और पश्चिमी देशों में काफी लोकप्रिय हो गए हैं. इंटरनेट पर छापी गई किताबों को इनके जरिए पढ़ा जा सकता है. किंडल ई बुक रीडर एक साधारण किताब जितना बड़ा होता है और इसमें औसतन 1,000 किताबें समा जाती हैं. किंडल और गूगल ई बुक पाठकों के लिए खास ऑफर भी देते हैं और इन्हें इंटरनेट पर खरीदने पर 20 प्रतिशत की छूट मिलती है. ई बुक उत्पादकों के मुताबिक सबसे अच्छी बात यह है कि किताबों को रखने के लिए खास जगह बनाने की जरूरत नहीं है.
भारत में अब भी पुस्तकों का बाजार बंटा हुआ है. पार्कसन्स ग्राफिक्स के सुरेंद्र बाबू का कहना है कि भारत के बाजार में शिक्षा की किताबें हैं और बाकी राजनीतिक मुद्दों और साहित्य की किताबें हैं. जहां तक शिक्षा की किताबों का सवाल है, बाजार बढ़ रहा है. बहुत सारी भाषाएं हैं और इन सबमें स्कूल और कॉलेज की किताबें छप रही हैं. जहां तक साहित्य का सवाल है, इन किताबों को ई बुक में परिवर्तित किया जा रहा है. और ईबुक का बाजार भारत में अब बढ़ना शुरू हुआ है. लेकिन सुरेंद्र बाबू कहते हैं कि लोग अब भी साधारण किताबें पढ़ना पसंद करते हैं, युवा शायद ई बुक पढ़ें, लेकिन ज्यादातर लोग अब भी किताबों का मजा उसी पुरानी तरह से उठाना चाहते हैं. ई बुक को भारत में स्थापित होने में 10 से 15 साल तक लगेंगे. वैसे सुरेंद्र बाबू भी मानते हैं कि किताबों के प्रकाशन की मात्रा में पहले के मुकाबले कमी आई है.
वहीं प्रकाशक भी डिजिटल किताबें छापना शुरू कर रहे हैं और इसमें साधारण ऑफसेट प्रिटिंग के मुकाबले कम पैसे लगते हैं. लेकिन भारत में इन्हें बांटने में परेशानी आ रही है क्योंकि भारत में डिजिटल किताबें अब तक इतनी प्रचलित नहीं हैं. मणिपाल प्रेस लिमिटेड के टीआर नागेंद्र राव कहते हैं कि डिजिटल किताबों को पीडीएफ फाइलों के जरिए बेचा जाता है. भारत में टैब्लेट कंप्यूटर और ई बुक रीडर अब भी कम हैं तो इन किताबों को बेचना और बांटना बहुत बड़े स्तर पर नहीं शुरू हुआ है. लेकिन देखा जाए तो अखबार अब डिजिटल बन रहे हैं और लोग इन्हें पढ़ भी रहे हैं. राव कहते हैं, "जिस तरह अंतरराष्ट्रीय हवाई जहाजों में आप लोगों को ई रीडर पढ़ते हुए देखते हैं, भारत में अभी वैसी हालत नहीं आई है."
जंगलों का क्या होगा?
राव की तरह ईबुक बना रहे कई प्रकाशक विदेशी बाजारों के लिए काम कर रहे हैं. अमेरिका और यूरोप में इनकी मांग बहुत बढ़ गई है और भारत में सस्ती मजदूरी और प्रकाशन में कम दाम लगने की वजह से विदेशी कंपनियां फायदे में रहती हैं. राव कहते हैं कि जहां तक भारतीय पाठकों का सवाल है, अब भी बाजार कागज की किताबों पर ध्यान दे रहा है.
जहां तक कागज की किताबों का सवाल है, भारत में रिसाइकल्ड पेपर का बाजार भी बढ़ रहा है. जयंत प्रिंटरी के सौरीन पटेल रिसाइकल्ड कागज अखबारों को बेचते हैं. "रिसाइकल्ड पेपर के लिए मांग काफी बड़ी है. और हम कागज केवल उन जगहों से लेते हैं जहां पेड़ों को खास कागज बनाने के लिए लगाया गया है." लेकिन पटेल का कहना है कि रिसाइकल्ड कागज देखने में अच्छा नहीं होता और ज्यादातर पाठक अच्छे कागज पर छपी किताबें पढ़ना पसंद करते हैं और इन किताबों के लिए फिर ताजे कागज का ही इस्तेमाल करना पड़ता है. मैगजीन और साहित्य की किताबें अकसर इसी तरह के कागज में छपती हैं और अगर पेड़ खास कागज के लिए लगाए जंगलों से भी हों, कांटना तो उन्हें पड़ता ही है. ई बुक की सफलता के बाद शायद पेड़ों और जंगलों को कुछ हद तक बचाया जा सके.
(रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन / संपादनः महेश झा)
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