Saturday, 22 June 2013

अकथ कहानी प्रेम की


प्रकाश के रे

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की बहुचर्चित किताब है अकथ कहानी प्रेम की। कबीर की कविता और उनका समय का दूसरा संस्करण आना सुखद आश्चर्य की बात है. कहानियों-कविताओं की किताबों या उपन्यासों के छपने के साल भर के भीतर बमुश्किल पुनर्मुद्रण की ज़रुरत पड़ती है. आलोचना-विमर्श की किसी किताब का पहला संस्करण अगर दो-चार साल में बिक जाये, यह बड़ी बात मानी जाती है. आम तौर पर यह धारणा है कि हिन्दी की किताबें कम बिकती हैं और यह बात काफी हद तक सही भी है. कबीर पर गंभीर विमर्श करती इस किताब के पुनर्मुद्रण की ज़रुरत छपने के सात महीने बाद ही पैदा हो जाना एक साहित्यिक घटना है. पिछले लगभग साल भर में जिस तरह से ‘अकथ कहानी प्रेम की’ पर बहस हुई है, वह भी कम अनूठी नहीं है. लेखक और प्रकाशक ने पुनर्मुद्रण की जगह दूसरा संस्करण निकलने का जो निर्णय लिया, वह स्वागतयोग्य है. प्रो अग्रवाल की नयी भूमिका पिछले महीनों की लगभग तमाम बहसों पर विचार करती है और लेखक को अपने तर्कों का सन्दर्भ देने और उन्हें स्पष्ट करने का अवसर देती है. इस भूमिका से किताब और उससे उपजी बहसों को संतुलित दायरा और सही दिशा मिलती है.
अकथ कहानी प्रेम की हमें बताती है कि कबीर अपने समय में हाशिये की आवाज़ नहीं थे. जिस तरह से विद्वानों से लेकर विद्यार्थियों तक इस किताब का स्वागत हुआ, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि कबीर आज भी हाशिये की आवाज़ नहीं हैं. ज़रुरत इतनी भर है कि उन्हें आँख खोल कर पढ़ा जाये. नामवर सिंह ने इसे हजारी प्रसाद द्विवेदी की किताब के बाद कबीर पर सबसे महत्वपूर्ण विमर्श माना तो अशोक वाजपेयी ने इसे कबीर का पुनराविष्कार कहा. मध्यकालीन इतिहास के विद्वान हरबंस मुखिया ने इस बात को रेखांकित किया है कि किताब साहित्य और इतिहास के साथ-साथ समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और संस्कृति अध्ययन के स्रोतों और समझदारियों की रौशनी में कबीर और उनके समय को देखती है. ओम थानवी के अनुसार किताब आलोचना की नयी भाषा इज़ाद  करती है. फ़िल्मकार श्याम बेनेगल और पत्रकार-सामाजिक कार्यकर्ता जावेद आनंद का आग्रह है कि इस किताब को जल्दी अंग्रेज़ी और मुख्य भारतीय भाषाओं में लाना चाहिए क्योंकि जिस औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के षड्यंत्र का भंडाफोड़ यह किताब करती है उसका शिकार सिर्फ़ उत्तर भारत नहीं, बल्कि पूरा भारतीय महाद्वीप रहा है. प्रो अग्रवाल ने एक से अधिक बार यह याद दिलाया है कि इस षड्यंत्र के शिकार तमाम गैर-यूरोपीय समाज रहे हैं. नए संस्करण की भूमिका में उन्होंने अफ़्रीका के अनुभवों की चर्चा की है.
भूमिका में प्रो अग्रवाल ने आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता से संबंधित सुधीर चन्द्र, डेविड लौरेंजन, वागीश शुक्ल, मदन कश्यप आदि विद्वानों द्वारा उठाये गए अवधारणा-मूलक सवालों का विस्तार से जवाब दिया है. इस बहाने भूमिका का यह हिस्सा काफी महत्वपूर्ण है. वैसे तो पुस्तक के पाठ में कोई तब्दीली नहीं की गयी गयी है लेकिन छपाई की यत्र-तत्र गलतियों को ठीक कर दिया गया है. भूमिका में लेखक ने जानकारी दी है कि प्रेमदास उतराधा के 1705 ई0 वाले गुटके में संकलित कबीर-बानी का पाठ दादू जी के प्रत्यक्ष शिष्य और प्रेमदास के दादागुरु बनवारीदास जी ने तैयार किया था. यह बात पहले संस्करण के चौथे अध्याय में तो स्पष्ट थी ही, इस संस्करण  में पहले अध्याय में भी इसे साफ कर दिया गया है. रचना-चयन में दो पद और जोड़ दिए गए हैं- जिउ जल छोड़ बाहर भइयो मीना और दूसरा-काग उड़ावत मेरी बांह पिरानी.
दूसरे संस्करण की भूमिका में लेखक के वे तेवर बरकरार हैं जो पिछले संस्करण की भूमिका और किताब के पाठ में हैं. प्रो अग्रवाल के तर्क और तेवर न सिर्फ़ आलोचना की नया कलेवर देते हैं, बल्कि उसका दायरा दूर तक बढ़ा देते हैं. इनसे प्रो अग्रवाल की उस बेचैनी का भी पता चलता है जो इस समझ से पैदा हुई है कि किस तरह हम अपने को उस दृष्टि से देख रहे रहे हैं जिसकी सृष्टि सुदूर यूरोप के सभ्यतागत स्वार्थों की सिद्धि के लिये हुई थी. यह बेचैनी तब और बढ़ जाती है जब लेखक देखता है कि हम यह जानते हुए भी इस षड्यंत्र को कितनी सहजता से लेते हैं और कई बार तो उसकी तरफ़दारी भी करते हैं. इतिहास की सतत समकालीनता का बोध करती यह किताब सभ्यता-समीक्षा की एक कोशिश है और यह सिर्फ़ इस किताब तक सीमित नहीं है- न तो लेखक के लिये और न ही हमारे लिये.

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