क्या छपी हुई किताबों का भविष्य सुरक्षित नहीं है? क्या इंटरनेट और ई-बुक का बढ़ता चलन किताबों के लिए ताबूत का आखिरी कील साबित होगा? ये सवाल सवाल गूंजते रहते हैं. बांग्लादेशी साहित्यकार और ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अनीसुज्जमां कहते है, "ऑनलाइन की बढ़ती लोकप्रियता चिंताजनक है. लेकिन किताबों और पाठकों के बीच संबंध हमेशा कायम रहेगा." पश्चिम में कई बड़े बुक स्टोर्स बंद हो गए हैं. न्यूजवीक जैसी पत्रिका ने भी प्रिंट संस्करण छापना बंद कर दिया है. यहां तक कि इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की लंबी परंपरा भी खत्म हो गई है. अनीसुज्जमां का सवाल है कि क्या यह किताबों की मौत के संकेत हैं? लेकिन उनके पास जवाब भी है, "जवाब है, नहीं. किताबों से हम जैसे पुस्तक प्रेमियों का अटूट रिश्ता है. हम किताबों के बिना नहीं जी सकते."
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस दलील का समर्थन करती हैं. उनका सवाल है कि टीवी चैनलों की भरमार की वजह से क्या लोगों ने सुबह अखबार पढ़ना बंद कर दिया? वह कहती हैं कि लगातार बढ़ते डिजिटल हमले के बावजूद किताबें लोकप्रिय रहेंगी. नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन कहते हैं, "इस बहस की वास्तविक धरातल पर पड़ताल जरूरी है. देश में कितने लोगों के पास किताबों को ऑनलाइन पढ़ने की सुविधा है? विदेशों में इस सुविधा के बावजूद लाखों की तादाद में किताबें बिक रही हैं. बेस्टसेलर किताबों के तो कई कई संस्करण छापे जाते हैं. इसलिए इंटरनेट से छपी हुई किताबों के अस्तित्व पर खतरे की बात फिलहाल बेमानी है."
कालेज छात्रा इरा बसु को तो किताब हाथ में लेकर पढ़ने में ही संतुष्टि मिलती है, "ऑनलाइन और वर्चुअल रीडिंग में कोई तुलना नहीं हो सकती. छपी हुई पुस्तकें जज्बाती रिश्ता बना लेती हैं. इंटरनेट ऐसी भावनाओं से परे है. वहां आप पढ़ कर भूल जाते हैं. लेकिन बुक शेल्फ में सजी पुस्तक पढ़े जाने के सालों बाद भी आपको अपनी याद दिलाती रहती है. हाथों के स्पर्श से आप उससे जुड़ाव महसूस करते हैं. माउस या कीबोर्ड से यह संभव नहीं."
इरा और उनकी मित्र सपना के पास आईपैड से लेकर ई-बुक रीडर तक है. लेकिन किताबों के प्रति लगाव उन्हें मेले में खींच लाया. सपना कहती हैं, "छपे हुए शब्द आपको बार बार अतीत की याद दिलाते हैं." वह ई-बुक की तुलना किसी फिल्म और टीवी सीरियल से करती हैं जिसे देखने के कुछ समय बाद लोग भुला देते हैं."
आनंद पब्लिशर्स के सुबीर मित्र का कहना है, "ई-बुक के बढ़ते चलन से लोगों की पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं बदलेगी, यह तो तय है." दीप प्रकाशन के दीप्तांशु मंडल तो दोनों के बढ़ने की बात करते हैं, "ई-बुक से डरने की जरूरत नहीं. ई-बुक और सोशल नेटवर्किंग साइटों से तो पुस्तक का प्रचार ही होता है." इस बहस में सबसे दिलचस्प मिसाल देते हैं सेवानिवृत प्रोफेसर निर्मल बागची, "पुस्तकें अगर जीवित मनुष्य हैं तो ई-बुक रोबोट है. क्या रोबोट कभी हाड़-मांस के मनुष्य की जगह ले सकता है?"
ज्ञानपीठ पुरस्कार जीत चुकीं बांग्ला की प्रख्यात साहित्यकार महाश्वेता देवी को भी इंटरनेट से डर नहीं लगता, "यह सही है कि खास कर युवा वर्ग में ऑनलाइन पढ़ाई का चलन बढ़ रहा है. लेकिन मेरे ख्याल से स्थिति चिंताजनक नहीं है. ऐसे पाठक भी विकल्प होने पर छपे हुए शब्दों को ही तरजीह देंगे. ऑनलाइन रीडिंग आगे चल कर लोकप्रिय हो सकता है. लेकिन किताबें हमेशा बनी रहेंगी."
पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स गिल्ड तो इंटरनेट को किताबों के लिए फिलहाल कोई खतरा ही नहीं मानता. गिल्ड के महासचिव त्रिदीव चटर्जी कहते हैं, "पुस्तक मेलों में आने वाली भीड़ और किताबों की बिक्री के आंकड़े ही इस खतरे को झुठलाने के लिए काफी हैं." (रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता / संपादनः ए जमाल)
No comments:
Post a Comment