हिंदी-उर्दू के जाने माने कवि-लेखक और मशहूर फिल्मकार गुलजार लगभग एक दशक पहले 'पटना पुस्तक मेला' में सबके आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। यहां राज्य विधान परिषद् के परिसर में आयोजित 'बाल संसद' को भी उन्होंने संबोधित किया था। उसी दौरान गुलजार के साथ बीबीसी की लंबी बातचीत हुई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश उस भेंटवार्ता का मात्र छोटा-सा अंश एक रूटीन-रिपोर्ट के तहत प्रसारित हो पाया था। इस कारण काफी दुखी मन से बीबीसी ने पूरी रेकॉर्डेड भेंटवार्ता को सहेज कर रख लिया था ताकि बाद में भी कभी सुनकर इसकी प्रासंगिकता का अनुभव श्रोता और पाठक कर सकें। इस बातचीत में बच्चों और किताबों को लेकर जाहिर की जा रही चिंताओं के अलावा हिंदी भाषा और साहित्य के बदलते रंग-ढंग पर उठ रहे सवालों के प्रति भी गुलजार का अपना खास नजरिया उभर कर सामने आया है।
किसी सवाल पर सहमति या असहमति जाहिर करते समय गुलजार अपने रोचक शब्द- प्रयोग और अपनी खनकती उर्दू जबान की मदद लेने से नहीं चूकते।
मसलन, एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, 'जिंदगी के साथ जद्दोजहद और जिंदगी का रस लेना, वही जिंदा रखता है। तब्दीलियां, परेशानियां हर दौर की अपनी होती हैं। इसको हौसले के साथ स्वीकार करना ही वक्त के साथ चलना है। क्योंकि वक्त तो बहता रहेगा। कितने आपके एंटिनाज खुले हैं और कितना आप जिंदगी के साथ ब्रश कर सकते हैं, वो आप की अपनी सेंसिटिविटी है।'
जब बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं के रचना- क्षेत्र में उदासीनता की बात चली तो गुलजार खासे संवेदनशील हो उठे। वह कहने लगे, 'किसी भी भाषा में बच्चों के लिए काम नहीं हो रहा। मैं तो यही कहूंगा कि (लम्बी सांसें खींचते हुए) हम बच्चे ज्यादा पैदा कर रहे हैं, किताबें कम। जबकि होना उल्टा चाहिए।'
बोलचाल की भाषा (उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित) हिंदी में हो रहे आज के लेखन या प्रसारण की उन्होंने खूब हिमायत की। टेलीविजन के अधिकांश कार्यक्रमों को उन्होंने सतही बताया और कहा, 'बदकिस्मती की बात है कि टेलीविजन पर लिटरेचर पैदा नहीं हो रहा। जो आज के दौर के सतही एप्रोच को एक्सपोज करता है।'
सबसे दिलचस्प टिप्पणी उन्होंने शायरी के बीते दौर और इस बाबत आज के बदले हुए नजरिए के बारे में की। गुलजार ने कहा, 'देयर इज मच मोर विद द फीमेल, मतलब जुल्फ, लब, आंख और रुखसार के आगे भी है एक औरत। कितने लोगों ने इस पर लिखा? ये आज की जेनरेशन लिखती है और मैं इनसे सहमत हूं।' (BBC)
किसी सवाल पर सहमति या असहमति जाहिर करते समय गुलजार अपने रोचक शब्द- प्रयोग और अपनी खनकती उर्दू जबान की मदद लेने से नहीं चूकते।
मसलन, एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, 'जिंदगी के साथ जद्दोजहद और जिंदगी का रस लेना, वही जिंदा रखता है। तब्दीलियां, परेशानियां हर दौर की अपनी होती हैं। इसको हौसले के साथ स्वीकार करना ही वक्त के साथ चलना है। क्योंकि वक्त तो बहता रहेगा। कितने आपके एंटिनाज खुले हैं और कितना आप जिंदगी के साथ ब्रश कर सकते हैं, वो आप की अपनी सेंसिटिविटी है।'
जब बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं के रचना- क्षेत्र में उदासीनता की बात चली तो गुलजार खासे संवेदनशील हो उठे। वह कहने लगे, 'किसी भी भाषा में बच्चों के लिए काम नहीं हो रहा। मैं तो यही कहूंगा कि (लम्बी सांसें खींचते हुए) हम बच्चे ज्यादा पैदा कर रहे हैं, किताबें कम। जबकि होना उल्टा चाहिए।'
बोलचाल की भाषा (उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित) हिंदी में हो रहे आज के लेखन या प्रसारण की उन्होंने खूब हिमायत की। टेलीविजन के अधिकांश कार्यक्रमों को उन्होंने सतही बताया और कहा, 'बदकिस्मती की बात है कि टेलीविजन पर लिटरेचर पैदा नहीं हो रहा। जो आज के दौर के सतही एप्रोच को एक्सपोज करता है।'
सबसे दिलचस्प टिप्पणी उन्होंने शायरी के बीते दौर और इस बाबत आज के बदले हुए नजरिए के बारे में की। गुलजार ने कहा, 'देयर इज मच मोर विद द फीमेल, मतलब जुल्फ, लब, आंख और रुखसार के आगे भी है एक औरत। कितने लोगों ने इस पर लिखा? ये आज की जेनरेशन लिखती है और मैं इनसे सहमत हूं।' (BBC)
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