उमेश चतुर्वेदी
विलायत में भले ही अंग्रेजी किताबों का बाजार दो से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा हो, लेकिन उदारीकरण के दौर के भारत में यह विकास दर 15 से 20 प्रतिशत सालाना है। एक अंग्रेजी अखबार का दावा है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का व्यापार करीब आठ हजार करोड़ का हो गया है। यानी उदार भारत के लोगों की उदारता विलायती भाषा की तरफ तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक दुनिया में इतना बड़ा बाजार होगा तो खबर भी होगी ही। यही वजह है कि अब अंग्रेजी प्रकाशनों की दुनिया में लोगों की नौकरियां बदलने या फिर नई जिम्मेदारी संभालने की खबरें मुख्यधारा की पत्रकारिता की बड़ी खबरें बन रही हैं। अगर डेविड दाविदार जाने-माने प्रकाशक रूपा द्वारा स्थापित एलेफ नामक प्रकाशन संस्थान के प्रमुख बनते हैं और उसकी खबर अंग्रेजी के जाने-माने अखबारों की सुर्खियां बनती है तो इसी से पता लगाया जा सकता है कि भारत में अंग्रेजी किताबों का कितना बड़ा बाजार खड़ा हो गया है। अभी तक अंग्रेजी लेखन की ही धूम की चर्चा होती थी। अमिताभ घोष, अरूंधती रॉय, विक्रम सेठ, झुंपा लाहिरी, शिव खेड़ा जैसे लेखकों के बहाने अंग्रेजी लेखन की धूम की ही चर्चा रहती थी। लेकिन अब अंग्रेजी के बढ़ते बाजार के चलते अंग्रेजी प्रकाशनों के प्रमुखों के नौकरियां बदलने और मोटे प्रस्तावों को खबर बनाया जाने लगा है। हाल ही में हार्पर कॉलिन्स के प्रबंध संपादक और राइट्स एडिटर सुगत मुखर्जी ने पिकाडोर के प्रकाशक और संपादक का दायित्व संभाला है। पिकाडोर की योजना अगले साल तक 30 शीर्षकों को प्रकाशित करना है। कुछ इसी तरह पिकाडोर की मार्केटिंग और संपादकीय प्रमुख रहीं श्रुति देव ने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक एजेंसी ऐटकिन एलेक्जेंडर एसोसिएट्स के दिल्ली दफ्तर का कामकाज संभाल लिया है। इसी तरह अंग्रेजी की दुनिया का जाने-माने प्रकाशन संस्थान रैंडम हाउस के बारे में कहा जा रहा है कि वह भारत में अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है। इसी तरह चिकी सरकार पेंगुइन के प्रमुख संपादक का दायित्व संभालने जा रहे हैं। इसके पहले यह दायित्व रवि सिंह के पास था, ऐसा माना जा रहा है कि रवि सिंह रूपा की नई सहयोगी कंपनी एलेफ को ज्वाइन कर सकते हैं। अंग्रेजी प्रकाशन की दुनिया में इतनी तेजी इसलिए देखी जा रही है, क्योंकि माना जा रहा है कि भारतीय लेखकों की तरफ दुनिया देख रही है। लेकिन ये भारतीय लेखक असल में अंग्रेजी के ही लेखक हैं। देसी भाषाओं के लेखकों की तरफ दुनिया का ध्यान खास नहीं है। अपने बेहतर या टुटपूंजिए संपर्कों के जरिए भारतीय भाषाओं के एक-आध लेखकों ने अंग्रेजी या पश्चिम के बाजार में दखल देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन उनकी पहचान चींटीप्रयास से ज्यादा कुछ नहीं है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों का विशाल इलाका होने के बावजूद उनकी पूछ और परख या बाजार में उनकी वैसी धमक क्यों नहीं बन पा रही है। कारपोरेटीकरण का हिंदी का बुद्धिजीवी समाज सहज विरोधी रहा है। उसे पारंपरिकता की दुनिया ही पसंद आती है। यात्रा बुक जैसे एक-दो प्रयासों को छोड़ दें तो हिंदी प्रकाशन में कारपोरेट संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है। यहां अब भी लेखक की वही हैसियत है, जो श्राद्ध के वक्त दान पाने वाले ब्राह्मण की होती है। श्राद्ध पक्ष के ब्राह्मण को दान देकर जैसे दानदाता एक तरह के एहसान करने के बोध से भर जाता है, हिंदी प्रकाशन की दुनिया का अपने लेखक के प्रति भी कुछ वैसा ही हाल है। उसे लगता है कि उसने किताब छापकर लेखक पर एहसान ही किया है। हिंदी का प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर लेखक की कृति को प्रकाशित करने से कहीं ज्यादा ध्यान किताब बिकवाने या सरकारी खरीद कराने में लेखक की हैसियत पर होता है। यानी हिंदी प्रकाशन का बाजार सिर्फ और सिर्फ सरकारी या अकादमिक खरीद पर ही टिका है। पाठक से सीधे संवाद से हिंदी प्रकाशन जगत हिचकता है। ऐसे में हिंदी प्रकाशकों और उनके यहां काम करने वाले लोगों की हैसियत वैसी नहीं बन पाती, जो रैंडम, पिकाडोर या पेंगुइन के साथ ही डेविड देविदार या सुगत मुखर्जी की है। चूंकि हैसियत नहीं है, इसलिए मीडिया भी उस पर ध्यान नहीं देता और मीडिया ध्यान नहीं देता तो पाठकों तक सूचना नहीं पहुंचती और जब सूचना पहुंचेगी ही नहीं तो पाठकीयता का निर्माण कैसे होगा। सवाल तो कठिन है, इस पर विचार तो हिंदी वालों को ही करना होगा। (मीडियामीमांसा से साभार)
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