Saturday, 15 February 2014

आओ बैठें फ़ुटपाथ पर ही / निलिम कुमार



इस जन-अरण्य में कहाँ बैठें बताओ
सुनसान कहीं नहीं है
पार्क में बैठ नहीं सकते
पानी के फव्वारे को देखकर
और खिले हुए फूल --
हमारी नज़रें ख़ुद में क़ैद कर लेंगे
हम एक दूसरे को देख ही नहीं पाएँगे।
कहाँ बैठें कहो, इस जन-अरण्य में
वह देखो 'जलपरी'
चढऩा है उसमें
ब्रह्मपुत्र का सीना चीरकर आगे बढ़ेगी वह
लहरों के साथ तुम झूलोगी
क्या मुझे भी झुलाओगी अपने झूले में
चारों तरफ़ सिर्फ़ पानी और पानी
और बीच में तुमहारे हृदय का झूला।
क्या तुम तैर सकती हो पानी में
बंकिम के उपन्यास में पढ़ा था
एक प्रेमी जोड़ा बह गया था बरसात की गंगा में
मँझधार में डूबकर कह रहे थे --
यही हमारी शादी है
फिर वह लड़की तैरती हुई किनारे पहुँच गई थी
अगर मैं तैरकर आ भी जाऊँ
तुम तो वापस न आ पाओगी
अगर तैर न सकी तो
लेकिन जानती हो
सूनापन वहीं रहता है मझँधार में
जहाँ तैरना नहीं आता है।
मैं वहाँ तक तुम्हें नहीं ले जा सकता
इससे अच्छा है कहीं बैठें इसी फुटपाथ पर
सबके सामने फुटपाथ को पीठ दिखाकर
हमारी पीठ के पीछे
हज़ारों पद-शब्द गुजरेंगे
हमारे सामने होगा राजमार्ग
सायकल, रिक्शा और मोटरों की कतारें
तुम ढूँढऩा अपना जीर्ण रिक्शा
जिसमें बैठकर हमने शहर की धूप का आनन्द लिया था
प्रथम परिचय के दिन।
आओ फुटपाथ में ही बैठें
देह से देह सटाकर
जैसे किसी सुनसान जगह पर हम बैठते
फुटपाथ पर बैठे हुए हमें देखकर शायद पूरा शहर
कानाफूसी करेगा हमारे आचरण के बारे में
या फिर शहर एक बार गम्भीरता से सोचेगा
कि यहाँ शान्ति और निर्जनता की कमी है
अच्छा ही होगा न
हम शहर को चिंतन का एक अवसर देंगे।
(अनुवाद- अनिल जनविजय)

No comments:

Post a Comment