बड़ी हो रही है बेटी
बड़ा हो रहा है उसका एकांत
वह चाहती है अब भी
चिड़ियों से बतियाना
फूलों से उलझना
पेड़ों से पीठ टिका कर सुस्ताना
पर सब कुछ बदल चुका है मानो।
कम होने लगी है
चिड़ियों के कलरव की मिठास
चुभने लगे हैं
फूलों के तेज़ रंग
डराने लगी हैं
दरख़्तों की काली छायाएँ।
बड़ी हो रही है बेटी
बड़े हो रहे हैं भेड़िए
बड़े हो रहे है सियार।
माँ की करुणा के भीतर
फूट रही है बेचैनी
पिता की चट्टानी छाती में
दिखने लगे हैं दरकने के निशान
बड़ी हो रही है बेटी!
बाबा बाबा
मुझे मकई के झौंरे की तरह
मरुए में लटका दो।
बाबा बाबा
मुझे लाल चावल की तरह
कोठी में लुका दो।
बाबा बाबा
मुझे माई के ढोलने की तरह
कठही संदूक में छुपा दो।
मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचाएगा मेरी बेटी!
बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन।
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहता - कितने दिन तो हुए
सोचता - कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को एक दिन और
और एक दिन
डूब जाता होगा पिता का जहाज।
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रुँध जाता थके कबूतर-सा
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना।
- चंद्रकांत देवताले
हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ (अमीर ख़ुसरो की वह अमर रचना)
काहे को ब्याही बिदेस
अरे लखिया बाबुल मोरे।
भइया को दीनो बाबुल
महला दुमहला
हमको दियो परदेस।
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगी में जाएँ।
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गइयाँ
जित बाँधो तित जाएँ।
हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ
कुहुक-कुहुक रट जाएँ।
ताँतों भरी मैंने गुड़िया जो छोड़ी
छूटा सहेलन का साथ
निमिया तले मोरा डोला जो उतरा
आया बलम जी का गाँव।
ये कविता सुरत की युवा कवियत्री एषा दादा वाला ने लिखी है। इतनी कम उम्र में ऐषा ने कई गंभीर कविताएं लिखी है।
किसी प्रादेशिक भाषा से हिन्दी में अनुवाद इतना आसान नहीं होता। कई शब्द ऐसे होते हैं जिनको हम समझ सकते हैं लेकिन उनका दूसरी भाषा उनके उचित शब्द खोजना मुश्किल होता है। मसलन गुजराती में एक शब्द है “निसासो” यानि एक हद तक हिन्दी में हम कह सकते हैं कि “ठंडी सी दु:खभरी साँस छोड़ना! लेकिन गुजराती में निसासो शब्द एक अलग भाव प्रस्तुत करता है। जब कविता को अनुवाद करने की कोशिश की तो इस तरह के कई शब्दों पर आकर अटका।
खैर मैने बहुत कोशिश की कि कविता का मूल भाव या अर्थ खोए बिना उसका सही अनुवाद कर सकूँ, अब कितना सफल हुआ यह आप पाठकों पर…
डेथ सर्टिफिकेट :
प्रिय बिटिया
तुम्हें याद होगा
जब तुम छोटी थी,
ताश खेलते समय
तुम जीतती और मैं हमेशा हार जाता
कई बार जानबूझ कर भी!
जब तुम किसी प्रतियोगिता में जाती
अपने तमाम शील्ड्स और सर्टिफिकेट
मेरे हाथों में रख देती
तब मुझे तुम्हारे पिता होने का गर्व होता
मुझे लगता मानों मैं
दुनिया का सबसे सुखी पिता हूँ
तुम्हें अगर कोई दु:ख या तकलीफ थी
एक पिता होने के नाते ही सही,
मुझे कहना तो था
यों अचानक
अपने पिता को इतनी बुरी तरह से
हरा कर भी कोई खेल जीता जाता है कहीं?
तुम्हारे शील्ड्स और सर्टिफिकेट्स
मैने अब तक संभाल कर रखे हैं
अब क्या तुम्हारा “डेथ सर्टिफिकेट” भी
मुझे ही संभाल कर रखना होगा?
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पगफेरा
बिटिया को अग्निदाह दिया,
और उससे पहले ईश्वर को,
दो हाथ जोड़ कर कहा,
सुसराल भेज रहा हौऊं,
इस तरह बिटिया को,
विदा कर रहा हूँ,
ध्यान तो रखोगे ना उसका?
और उसके बाद ही मुझमें,
अग्निदाह देने की ताकत जन्मी
लगा कि ईश्वर ने भी मुझे अपना
समधी बनाना मंजूर कर लिया
और जब अग्निदाह देकर वापस घर आया
पत्नी ने आंगन में ही पानी रखा था
वहीं नहा कर भूल जाना होगा
बिटिया के नाम को
बिना बेटी के घर को दस दिन हुए
पत्नी की बार-बार छलकती आँखें
बेटी के व्यवस्थित पड़े
ड्रेसिंग टेबल और वार्डरोब
पर घूमती है
मैं भी उन्हें देखता हूँ और
एक आह निकल जाती है
ईश्वर ! बेटी सौंपने से पहले
मुझे आपसे रिवाजों के बारे में
बात कर लेनी चाहिए थी
कन्या पक्ष के रिवाजों का
मान तो रखना चाहिए आपको
दस दिन हो गए
और हमारे यहाँ पगफेरे का रिवाज है।
दोनों कविताएं *एषा दादावाला*
अनुवाद: सागर चन्द नाहर
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