मेरे बापू गुरूद्वारे के पाठी हैं
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ करता आया हूँ ....
तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...
आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...
इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....
वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...
देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
बड़ा अच्छा लगता है ...
किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!
पेंटिंग के बीच की लड़की / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
इक दिन
पेंटिंग के बीच की लड़की
रंगों से बाहर आकर
एक नज़्म के ख्यालों को
देखने लगी
देख देख उसे
अच्छा लगा ख्यालों को रंग देना भी
और ख्यालों से रंग लेना भी
ख्यालों ने देखती हुई लड़की से पूछा
तू बता पेंटिंग के रंगों में
क्या - क्या बनकर देखा
मैंने मुस्कराहट बनकर देखा
पर हँस कर नहीं
मैंने खड़े होकर देखा है रंगों में
पर चलकर नहीं...
जो दिल करे / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
कोई भी मजहब
जो भी दिल करे करने की छूट नहीं देता
पर लोग जो भी दिल करे
करना चाहते हैं कर रहे हैं
और मजहब जो भी करे करने वालों को
रोक नहीं पा रहे रोक भी नहीं रहे
लोग जब भी दिल करता है
झूठ बोल लेते हैं
किसी को लूटने का दिल करे
लूट लेते हैं
किसी को रेप करने का दिल करे
गैंग रेप कर लेते हैं
और मिलकर क़त्ल भी कर लेते हैं
आसमान से रब्ब क्या देख सकता है
मजहब तो जमीन से भी न देख रहा है
न रोक रहा है
अपने लोगों को अपना निरादर
कर रहे लोगों को
कुछ समझ नहीं आ रहा किसी को
क्या लोग अभी मजहब
के काबिल नहीं या मजहब अभी लोगों के
काबिल नहीं...
ख़ाली जगह / अमृता प्रीतम
सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।
नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।
फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी /अमृता प्रीतम
मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं
दिल के घाट पर मेला जुड़ा,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें।
मेरा पता / अमृता प्रीतम
आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी! / अमृता प्रीतम
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...
फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...
वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं
अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...
पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...
लड़ने के लिए
मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं,
हूं-
लड़ने के लिए भी।
बिकते हुए
अपनो के हाथोहाथ
अपने अस्तित्व की आंखों में
आंखें डाल कर।
लड़ना है मुझे उनके लिए
जिनको बिना लड़े
न हुआ है
कभी कुछ भी हासिल।
उजले दांत की हंसी नहीं,
शब्दों का लहू हूं मैं
शब्दों का लहू
खौलता हुआ अपने समय के आरपार।
लड़ना मुझे उनके खिलाफ
जो बड़े आराम से
भगोस रहे हैं बाकी सबके
हिस्से का,
सपनो के लुटेरे,
सूचनाओं के तिजारती,
जंगल के बादशाह,
मनुष्यता के बहेलिये....
समय लड़ता आ रहा है
उनके खिलाफ,
मैं भी हो ली उनके साथ
मुर्दा नहीं हूं मैं
जिंदा होने के लिए
पढ़ना होगा मुझे बार-बार
उन्हें, आदमखोरों ने
मार कर फेक दिया जिन्हें
शब्दों के हाशिये पर,
आओ, मेरे कारवां के लोगों,
आओ, मेरे साथ,
आओ, अपने समय के सिपाहियों
अपनी कलम, अपने सपनों के साथ
मेरे साथ।
डरो नहीं, जागो, उठो
और आ जाओ मेरे साथ
चल पड़ने के लिए
लड़ने के लिए।
पीछे छोड़ आया हूं मैं भी
अपने सपने,
अपने लोग,
अपनी यादें,
अपना सुख,
आप के सपने / आपके सुख के लिए
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ करता आया हूँ ....
तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...
आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...
इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....
वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...
देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
बड़ा अच्छा लगता है ...
किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!
पेंटिंग के बीच की लड़की / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
इक दिन
पेंटिंग के बीच की लड़की
रंगों से बाहर आकर
एक नज़्म के ख्यालों को
देखने लगी
देख देख उसे
अच्छा लगा ख्यालों को रंग देना भी
और ख्यालों से रंग लेना भी
ख्यालों ने देखती हुई लड़की से पूछा
तू बता पेंटिंग के रंगों में
क्या - क्या बनकर देखा
मैंने मुस्कराहट बनकर देखा
पर हँस कर नहीं
मैंने खड़े होकर देखा है रंगों में
पर चलकर नहीं...
जो दिल करे / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
कोई भी मजहब
जो भी दिल करे करने की छूट नहीं देता
पर लोग जो भी दिल करे
करना चाहते हैं कर रहे हैं
और मजहब जो भी करे करने वालों को
रोक नहीं पा रहे रोक भी नहीं रहे
लोग जब भी दिल करता है
झूठ बोल लेते हैं
किसी को लूटने का दिल करे
लूट लेते हैं
किसी को रेप करने का दिल करे
गैंग रेप कर लेते हैं
और मिलकर क़त्ल भी कर लेते हैं
आसमान से रब्ब क्या देख सकता है
मजहब तो जमीन से भी न देख रहा है
न रोक रहा है
अपने लोगों को अपना निरादर
कर रहे लोगों को
कुछ समझ नहीं आ रहा किसी को
क्या लोग अभी मजहब
के काबिल नहीं या मजहब अभी लोगों के
काबिल नहीं...
ख़ाली जगह / अमृता प्रीतम
सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।
नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।
फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी /अमृता प्रीतम
मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं
दिल के घाट पर मेला जुड़ा,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें।
मेरा पता / अमृता प्रीतम
आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी! / अमृता प्रीतम
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...
फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...
वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं
अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...
पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...
लड़ने के लिए
मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं,
हूं-
लड़ने के लिए भी।
बिकते हुए
अपनो के हाथोहाथ
अपने अस्तित्व की आंखों में
आंखें डाल कर।
लड़ना है मुझे उनके लिए
जिनको बिना लड़े
न हुआ है
कभी कुछ भी हासिल।
उजले दांत की हंसी नहीं,
शब्दों का लहू हूं मैं
शब्दों का लहू
खौलता हुआ अपने समय के आरपार।
लड़ना मुझे उनके खिलाफ
जो बड़े आराम से
भगोस रहे हैं बाकी सबके
हिस्से का,
सपनो के लुटेरे,
सूचनाओं के तिजारती,
जंगल के बादशाह,
मनुष्यता के बहेलिये....
समय लड़ता आ रहा है
उनके खिलाफ,
मैं भी हो ली उनके साथ
मुर्दा नहीं हूं मैं
जिंदा होने के लिए
पढ़ना होगा मुझे बार-बार
उन्हें, आदमखोरों ने
मार कर फेक दिया जिन्हें
शब्दों के हाशिये पर,
आओ, मेरे कारवां के लोगों,
आओ, मेरे साथ,
आओ, अपने समय के सिपाहियों
अपनी कलम, अपने सपनों के साथ
मेरे साथ।
डरो नहीं, जागो, उठो
और आ जाओ मेरे साथ
चल पड़ने के लिए
लड़ने के लिए।
पीछे छोड़ आया हूं मैं भी
अपने सपने,
अपने लोग,
अपनी यादें,
अपना सुख,
आप के सपने / आपके सुख के लिए
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