Saturday, 15 February 2014

एक फ़िलिस्तीनी घाव की डायरी / महमूद दरवेश



हमें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं
कि माउन्ट कारमेल[2] हमारे भीतर है
और गैलिली[3] की घास हमारी पलकों पर ।
ये मत कहना : अगर हम दौड़ पड़ते उस तक एक नदी की तरह ।
मत कहना:
हम और हमारा देश एक ही माँस और अस्थियाँ हैं ।
...
जून से पहले हम नौसिखिये फ़ाख़्ते न थे
सो हमारा प्रेम बन्धन के बावजूद बिखरा नहीं
बहना, इन बीस बरसों में
हमारा काम कविता लिखना नहीं
लड़ना था ।
०००
वह छाया जो उतरती है तुम्हारी आँखों में
-ईश्वर का एक दैत्य
जो जून के महीने में बाहर आया
हमारे सिरों को सूरज से लपेट देने को-
शहादत है उसका रंग
प्रार्थना का उसका स्वाद
किस ख़ूबी से हत्या करता है वह, किस ख़ूबी से करता है उद्धार ।
०००
रात जो शुरू हुई थी तुम्हारी आँखों से -
मेरी आत्मा के भीतर वह एक लम्बी रात का अन्त था:
अकाल के युग से ही
यहाँ और अब तक वापसी की राह में
रहे हैं साथ-साथ
०००
और हमने जाना किस से बनती है कोयल की आवाज़
आक्रान्ताओं के चेहरे पर लटकता एक चाकू
हमने जाना कब्रिस्तान की शान्ति किस से बनती है
एक त्यौहार से ... जीवन के बग़ीचे से
०००
तुमने अपनी कविताएँ गाईं, मैंने छज्जों को छोड़ते हुए देखा
अपनी दीवारों को
शहर का चौक आधे पहाड़ तक फैल गया था:
वह संगीत न था जो हमने सुना
वह शब्दों का रंग न था जो हमने देखा
कमरे के भीतर दस लाख नायक थे ।
०००
धरती सोख लेती है शहीदों की त्वचाओं को ।
यह धरती गेहूं और सितारों का वादा करती है ।
आराधना करो इसकी!
हम इसके नमक और पानी हैं ।
हम इसके घाव हैं, लेकिन लड़ते रहने वाला घाव ।
०००
मेरी बहना, आंसू हैं मेरे गले में
और मेरी आंखों में आग:
मैं आज़ाद हूं
मैं सुल्तान के प्रवेशद्वार पर अब नहीं करूंगा विरोध ।
वे जो सारे मर चुके, और वे जो मरेंगे दिवस के द्वार पर
उन सब ने ले लिया है मुझे आग़ोश में, और बदल दिया है मुझे एक हथियार में ।
०००
उफ़, यह मेरा अड़ियल घाव!
कोई सूटकेस नहीं है मेरा देश
मैं कोई यात्री नहीं हूं
मैं एक प्रेमी हूं और प्रेमिका के वतन से आया हूँ ।
०००
भूगर्भवेत्ता व्यस्त है पत्थरों का विश्लेषण करने में
गाथाओं के मलबे में वह खुद अपनी आंखें तलाश रहा है
यह दिखाने को
कि मैं सड़क पर फिरता एक दृष्टिहीन आवारा हूँ
जिसके पास सभ्यता का एक अक्षर तक नहीं ।
जबकि अपने ख़ुद के समय में मैं अपने पेड़ रोपता हूँ
मैं गाता हूँ अपना प्रेम
०००
समय आया है कि मैं मृतकों के बदले शब्द लूँ
समय आया है कि मैं अपनी धरती और कोयल के वास्ते अपने प्रेम को साबित करूँ
क्योंकि ऐसा यह समय है कि हथियार गिटार को लील जाता है
और आईने में मैं लगातार लगातार धुंधलाता जा रहा हूँ
जब से मेरी पीठ पर उगना शुरू किया है एक पेड़ ने ।

दूसरों के बारे में सोचो / महमूद दरवेश

जब तुम तैयार कर रहे होते हो अपना नाश्ता
दूसरों के बारे में सोचो
(भूल मत जाना कबूतरों को दाने डालना)
जब तुम लड़ रहे होते हो अपने युद्ध
दूसरों के बारे में सोचो
(मत भूलो उनके बारे में जो चाहते हैं शान्ति)
जब तुम चुकता कर रहे होते हो पानी का बिल
दूसरों के बारे में सोचो
(उनके बारे में जो टकटकी लगाए ताक रहे हैं मेघों को)
जब तुम जा रहे होते हो अपने घर की तरफ़
दूसरों के बारे में सोचो
(उन्हें मत भूल जाओ जो तंबुओं-छोलदारियों में कर रहे हैं निवास)
जब तुम सोते समय गिन रहे होते हो ग्रह-नक्षत्र-तारकदल
दूसरों के बारे में सोचो
(यहाँ वे भी हैं जिनके पास नहीं है सिर छिपाने की जगह)
जब तुम रूपकों से स्वयं को कर रहे होते हो विमुक्त
दूसरों के बारे में सोचो
(उनके बारे में जिनसे छीन लिया गया है बोलने का अधिकार)
जब तुम सोच रहे हो दूरस्थ दूसरों के बारे में
अपने बारे में सोचो
(कहो : मेरी ख़्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील)

लोगों के लिए गीत / महमूद दरवेश

आओ ! दुख और जंज़ीर के साथियों
हम चलें कुछ भी न हारने के लिए
कुछ भी न खोने के लिए
सिवा अर्थियों के
आकाश के लिए हम गाएंगे
भेजेंगे अपनी आशाएँ
कारखानों और खेतों और खदानों में
हम गाएंगे और छोड़ देंगे
अपने छिपने की जगह
हम सामना करेंगे सूरज का
हमारे दुश्मन गाते हैं -
"वे अरब हैं... क्रूर हैं..."
हाँ, हम अरब हैं
हम निर्माण करना जानते हैं
हम जानते हैं बनाना
कारखाने अस्पताल और मकान
विद्यालय, बम और मिसाईल
हम जानते हैं
कैसे लिखी जाती है सुन्दर कविता
और संगीत...
हम जानते हैं।

एक सर्द सुबह / निकोलस गियेन

सोचता हूँ उस सर्द सुबह के बारे में
जब मैं गया था तुमसे मिलने
वहाँ, जहाँ हवाना जाना चाहता है खेतों की खोज में,
वहाँ तुम्हारे रौशन उपांत में।
मैं अपनी रम की बोतल
और अपनी जर्मन कविताओं की किताब के साथ,
जो आख़िरकार तुम्हें दे आया था तोहफ़े में।
(या फिर रख लिया था तुमने ही उसे?)
माफ़ करो, लेकिन उस दिन
मुझे लगी थीं तुम एक छोटी अकेली बच्ची,
या शायद एक भीगी नन्ही गौरैया।
मैंने पूछना चाहा था तुमसे :
तुम्हारे घोसलें के बारे में
और तुम्हारी माँ और पिता के बारे में
लेकिन नहीं पूछ पाया था।
तुम्हारे कुर्ते के वितल से,
जैसे गिरीं थीं दो गिन्नियाँ एक कुंड में,
तुम्हारी छातियों ने बहरा कर दिया था मुझे अपने शोर से।

देख रही है माँ / यश मालवीय

जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ

भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ

फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ

बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ


बनाया था माँ ने वह चूल्हा / ऋषभ देव शर्मा

चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर

उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था।

गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से।

बूंदाबांदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता।

सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उंगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
-फूले-फूले फुलके।

गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी।
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर।

जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का।

माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी।

बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं।
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को।

आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है।
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है।

माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!

माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी।

बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं।
मेरे बीरा! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को।

आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं।

माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!

माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी।

रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है।
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है।

मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को।

माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी।

माँ / कुँअर बेचैन
माँ!
तुम्हारे सज़ल आँचल ने
धूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।
तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को
माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।
तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी
माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है।

माँ कहती है / राजेश जोशी

हम हर रात
पैर धोकर सोते है
करवट होकर।
छाती पर हाथ बाँधकर
चित्त
हम कभी नहीं सोते।
सोने से पहले
माँ
टुइयाँ के तकिये के नीचे
सरौता रख देती है
बिना नागा।
माँ कहती है
डरावने सपने इससे
डर जाते है।
दिन-भर
फिरकनी-सी खटती
माँ
हमारे सपनों के लिए
कितनी चिन्तित है!


माँ का नाच / बोधिसत्व

वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रही थीं, गाते हुए
वे खेत में नाच रही थीं या
आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच ।
कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी
कोई गुलाबी, कोई जोगन-सी
सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
एक-दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।
कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
जो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भित
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ ।
मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाच रही थी माँ ।
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में ।
अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्द
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घूमती जा रही थी
फिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान ।
वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे से उसके नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।


माँ की आँखें / श्रीकांत वर्मा

मेरी माँ की डबडब आँखें
मुझे देखती हैं यों
जलती फ़सलें, कटती शाखें।
मेरी माँ की किसान आँखें!
मेरी माँ की खोई आँखें
मुझे देखती हैं यों
शाम गिरे नगरों को
फैलाकर पाँखें।
मेरी माँ की उदास आँखें।

माँ पर नहीं लिख सकता कविता / चन्द्रकान्त देवताले

माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूँगफली या मटर के दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!


पिता की तस्वीर / मंगलेश डबराल

पिता की छोटी छोटी बहुत सी तस्वीरें
पूरे घर में बिखरी हैं
उनकी आँखों में कोई पारदर्शी चीज़
साफ़ चमकती है
वह अच्छाई है या साहस
तस्वीर में पिता खाँसते नहीं
व्याकुल नहीं होते
उनके हाथ पैर में दर्द नहीं होता
वे झुकते नहीं समझौते नहीं करते
एक दिन पिता अपनी तस्वीर की बग़ल में
खड़े हो जाते हैं और समझाने लगते हैं
जैसे अध्यापक बच्चों को
एक नक्शे के बारे में बताता है
पिता कहते हैं मैं अपनी तस्वीर जैसा नहीं रहा
लेकिन मैंने जो नए कमरे जोड़े हैं
इस पुराने मकान में उन्हें तुम ले लो
मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए
जो तुम्हें रास्ते में मिलेंगी
मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो
मैं हूँ कि चिन्ता करता हूँ व्याकुल होता हूँ
झुकता हूँ समझौते करता हूँ
हाथ पैर में दर्द से कराहता हूँ
पिता की तरह खाँसता हूँ
देर तक पिता की तस्वीर देखता हूँ ।

दुख पिता की तरह / अनूप अशेष

कुछ नहीं कहते
न रोते हैं
दुख
पिता की तरह
होते हैं
इस भरे तालाब से
बाँधे हुए
मन में
धुआँते से रहे ठहरे
जागते तन में
लिपट कर हम में
बहुत चुपचाप
सोते हैं।
सगे अपनी बाँह से
टूटे हुए
घर के
चिता तक जाते
उठा कर पाँव
कोहबर के
हम अजाने में जुड़ी
उम्मीद
बोते हैं।

पिता मर रहे थे / हेमन्त जोशी

इस दुनिया में मर रहे थे पिता
पिता के भीतर मर रही थी यह दुनिया।
मेरी दुनिया में मर रहे थे पिता
एक पूरी दुनिया मर रही थी मेरे पिता के साथ।
मृत्यु के बाद
मेरी स्मृति में जीवित रहेंगे मेरे पिता
पिता की स्मृति में नहीं रह पाऊंगा मैं?

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता / चन्द्रकान्त देवताले

तुम्हारी निश्चल आंखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं ख़ुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई


बस में पिता / उदय प्रकाश

मैंने बिल्कुल साफ़-साफ़ देखा
उस बस पर बैठे
कहीं जा रहे थे पिता
उनके सफ़ेद गाल, तम्बाकू भरा उनका मुँह
किसी को न पहचानती उनकी आँखें
उस बस को रोको
जो अदृश्य हो जाएगी अभी
उस बस तक
क्या
पहुँच सकती है
मेरी आवाज़ ?
उस बस पर बैठ कर
इस तरह क्यों चले गए पिता ?


हार गए पिता / बोधिसत्व

पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।
वे ज़िंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती है
किराने की दुकान पर।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।
1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।


? / गगन गिल
पहला-पहला प्रेम था
पहला-पहला दुख
बहुत सारी उनींद
और नींद की गोलियों के बीच
दोस्त पता नहीं कहाँ थे ?



तुमने मुझे / शमशेर बहादुर सिंह

तुमने मुझे और गूँगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
सब चीज़ों पर छा गई
मै और भी अकेला हो गया
तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद
मैं एक ग़ार से निकला
अकेला, खोया हुआ और गूँगा
अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे
चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई
जैसे पेड़ पौधों की होती है
नदियों में लहरों की होती है
हज़रत आदम के यौवन का बचपना
हज़रत हौवा की युवा मासूमियत
कैसी भी! कैसी भी!
ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ
मूक।


तुम्हारी पलकों का कँपना / अज्ञेय

तुम्हारी पलकों का कँपना।
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना।
मानो दीखा तुम्हें किसी कली के
खिलने का सपना।
तुम्हारी पलकों का कँपना।
सपने की एक किरण मुझको दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना,
और सब समय पराया है
बस उतना क्षण अपना।
तुम्हारी
पलकों का कँपना।


बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!


रचना / अशोक वाजपेयी

कुछ प्रेम
कुछ प्रतीक्षा
कुछ कामना से
रची गई है वह,
— हाड़माँस से तो
बनी थी बहुत पहले।

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