Saturday, 15 February 2014

- लीना टिब्बी

काश ऐसा होता कि ईश्वर मेरे बिस्तर के पास रखे पानी भरे गिलास के अन्दर से बैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम की अजान बन कर हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर आसूँ की एक बूंद बन जाता जिसके लुढ़कने का अफ़सोस हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन।
काश ऐसा होता कि ईश्वर रूप धर लेता एक ऐसे पाप का हम कभी न थकते जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होता तो हर नई सुबह हम नया फूल ढूंढ कर ले आया करते।



'ज़फर' आदमी उसको ना जानिये,
हो वो कैसा भी साहिबे-फहमो-ज़का
जिसे ऐश में यादे-खुदा ना रही
जिसे तैश में खौफे-खुदा ना रहा
- बहादुर शाह ज़फर

'बुद्धिमान व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उनके पास बोलने के लिए कुछ होता है। मूर्ख व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ न कुछ बोलना होता है।' (यदि कहने के लिए कुछ अच्छा नहीं हो तो चुप रहना एक बेहतर विकल्प है।)
-प्लैटो

आ कर पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ पे फल थे, पसे-दीवार गिरे।
-शाकिब जलाली

अब जिसके जी में आये, वो ही पाए रोशनी
हमने तो दिल जला के सरे-आम रख दिया
क्या मसलहत-शनास था वो आदमी 'कतील'
मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया
-कतील शिफाई

मैं अपनी तलाश में हूँ,
मेरा कोई रहनुमा नहीं है।
वो क्या दिखाएंगे राह मुझे
जिन्हें खुद अपना पता नहीं है।
अगर कभी मिल गए इत्तिफाक से
तो 'राज' उनसे मैं ये ही कहूँगा
तेरे सितम तो भुला चुका हूँ
तेरा करम भूलता नहीं है।
- राज इलाहाबादी

आज गुलाम रब्बानी तांबा की सौंवीं जयंती है.......
राहों के पेंचों-ख़म में, गुम हो गयी हैं सिम्तें
ये मरहला है नाज़ुक, 'तांबा' संभल संभल के
-गुलाम रब्बानी 'तांबा'

रिन्दाने बला-नोशों में गिनती है हमारी
हम खुम भी चढ़ा जाएँ तो नशा नहीं होता
आजारे-मुहब्बत नहीं जाता, नहीं जाता
बीमारे-मुहब्बत कभी अच्छा नहीं होता
-रियाज़ खैराबादी

उदास आँखों में आँसू नहीं निकलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
ये एक पेड़ है, आ इसके नीचे रो लें हम
यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं
-बशीर बद्र

ओ बेरहम मुसाफिर, हँस कर साहिल की तौहीन न कर
हमने अपनी नाव डुबो कर, अभी तुझको पार उतारा है।
-कतील शिफाई

जब ज़िन्दा था, प्यार किया था
मर कर लेटा आज यहाँ।
कौन बगल में मेरी लेटी
मुझको कुछ भी नहीं पता।
-रसूल हमजातोव


हर गीत चुप्पी है प्रेम की, हर तारा चुप्पी है समय की,
समय की एक गठान, हर आह चुप्पी है चीख़ की!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

जब चांद उगता है घंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं।
जब चांद उगता है समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और हृदय अनन्त में एक टापू की तरह लगता है।
पूरे चांद के नीचे कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फल खाने का होता है।
जब एक ही जैसे सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े चांदी के सिक्के सिसकते हैं!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

गुलाब ने सुबह नहीं चाही
अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही,
गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
साँप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही।
गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है।
मैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँ।
और सपना देखूंगा
कि चींटियाँ और गिद्ध
मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैं।
लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

तालाब में नहा रही थी
सुनहरी लड़की
और तालान सोना हो गया,
कँपकँपी भर गए उसमें
छायादार शाख और शैवाल
और गाती थी कोयल
सफ़ेद पड़ गई लड़की के वास्ते।
आई उजली रात
बदलियाँ चांदी के गोटों वाली
खल्वाट पहाड़ियों और बदरंग हवा के बीच
लड़की थी भीगी हुई जल में सफ़ेद
और पानी था दहकता हुआ बेपनाह।
फिर आई ऊषा हज़ारों चेहरों में
सख़्त और लुके-छिपे
मुंजमिद गजरों के साथ
लड़की आँसू ही आँसू शोलों में नहाई
जबकि स्याह पंखों में रोती थी कोयल
सुनहरी लड़की थी सफ़ेद बगुली
और तालाब हो गया था सोना !
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

माँ, चांदी कर दो मुझे!
बेटे, बहुत सर्द हो जाओगे तुम!
माँ, पानी कर दो मुझे!
बेटे, जम जाओगे तुम बहुत!
माँ, काढ़ लो न मुझे तकिए पर
कशीदे की तरह! कशीदा?
हाँ, आओ!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

जो दुनिया तुमने देखी रूमी,
वो असल थी, न कोई छाया वगैरह,
यह सीमाहीन है और अनंत,
इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह,
और सबसे अच्छी रूबाई जो
तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है-
'सारी आकृतियाँ परछाई हैं' वगैरह..।
-नाज़िम हिक़मत

'मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूँ।
उन्होंने चायघरों, क़ब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला।
सोने के दाँत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला।
वे मुझे नहीं पा सके।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके?
नहीं।
वे मुझे कभी नहीं पा सके ।
-नाज़िम हिक़मत

'मैं सोना चाहता हूँ।
मैं सो जाना चाहता हूँ ज़रा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूँ...
कि मेरे होठों पर चाँद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूँ...
...कि,
कि... मैं अपने ही आँसुओं की
घनी छाँह हूँ...।'
-नाज़िम हिक़मत

न चूम सकूँ, न प्यार कर सकूँ,
तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो
रक्त-माँस समेत
और तुम्हारा सुर्ख़ मूँ,
वो जो मुझे निषिद्ध शहद,
तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आँखें सचमुच हैं
और बेताब भँवर जैसा तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा गोरापन मैं छू तक नहीं सकता!
-नाज़िम हिक़मत

एक दिन माँ कुदरत कहेगी,
"अब चलो ...
अब और न हँसी, न आँसू,
मेरे बच्चे ..."
और अन्तहीन एक बार
और ये शुरू होगी
ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले,
और न सोचा करे।
-नाज़िम हिक़मत

मुझे बीते दिनों की याद नहीं आती
-सिवा गर्मी की वो रात.
और आख़िरी कौंध भी मेरी आंखों की
तुम को बतलाएगी
आने वाले दिनों की बात।
-नाज़िम हिक़मत

हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी, जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्‍मी दरख़्त
हरी, जैसे सोने के पत्‍तर पर
हरी मीनाकारी।
ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ, वह वहाँ।
मेरी दुख़्तार-बीवी
तुम्‍हारी गर्दन पर अब सलवटें उभर रहीं हैं।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना।
जिस्‍म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है
जो इश्‍क नहीं कर सकते।
-नाज़िम हिक़मत

तुम्‍हारे हाथ
पत्‍थरों जैसे मज़बूत
जेलख़ाने की धुनों जैसे उदास
बोझा खींचने वाले जानवरों जैसे भारी-भरकम
तुम्‍हारे हाथ जैसे भूखे बच्‍चों के तमतमाए चेहरे
तुम्‍हारे हाथ
शहद की मक्खियों जैसे मेहनती और निपुण
दूध भरी छातियों जैसे भारी
कुदरत जैसे दिलेर तुम्‍हारे हाथ,
तुम्‍हारे हाथ खुरदरी चमड़ी के नीचे छिपाए अपनी
दोस्‍ताना कोमलता।
दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्‍हारे हाथ।
-नाज़िम हिक़मत

अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,
तो चीन में है बाक़ी का आधा
उस फौज के साथ
जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..
और हर सुबह, डाक्टर
जब उगता है सूरज
यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .
और हर रात को डाक्टर
जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,
रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन
इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.
और फिर दस सालों के बाद
अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर
सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर
एक सुर्ख़ सेब :
मेरा दिल.
और यही है वजह डाक्टर
दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --
न तो निकोटीन, न तो कैद
और न ही नसों में कोई जमाव.
कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,
और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद
धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.
-नाज़िम हिक़मत

चेरी की एक टहनी
एक ही तूफ़ान में दो बार नहीं हिलती
वृक्षों पर पक्षियों का मधुर कलरव है
टहनियाँ उड़ना चाहती हैं।
यह खिड़की बन्द है:
एक झटके में खोलनी होगी।
मैं बहुत चाहता हूँ तुम्हें
तुम्हारी तरह रमणीय हो यह जीवन
मेरे साथी, ठीक मेरी प्रियतमा की तरह ...
मैं जानता हूँ
दुःख की टहनी उजड़ी नहीं है आज भी --
एक दिन उजड़ेगी।
-नाज़िम हिक़मत

कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ, सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?
-नाज़िम हिक़मत

दरवाज़े पर मैं आपके
दस्तक दे रही हूँ।
कितने ही द्वार खटखटाए हैं मैंने
किन्तु देख सकता है कौन मुझे
मरे हुओं को कोई कैसे देख सकता है।
मैं मरी हिरोशिमा में
दस वर्ष पहले
मैं थी सात बरस की
आज भी हूँ सात बरस की
मरे हुए बच्चों की आयु नहीं बढ़ती।
पहले मेरे बाल झुलसे
फिर मेरी आँखे भस्मीभूत हुईं
राख की ढेरी बन गई मैं
हवा जिसे फूँक मार उड़ा देती है।
अपने लिए मेरी कोई कामना नहीं
मैं जो राख हो चुकी हूँ
जो मीठा तक नहीं खा सकती।
मैं आपके दरवाज़ों पर
दस्तक दे रही हूँ
मुझे आपके हस्ताक्षर लेने हैं
ओ मेरे चाचा ! ताऊ!
ओ मेरी चाची ! ताई!
ताकि फिर बच्चे इस तरह न जलें
ताकि फिर वे कुछ मीठा खा सकें।
-नाज़िम हिक़मत

सबसे सुन्दर है जो समुद्र
हमने आज तक उसे नहीं देखा,
सबसे सुन्दर है जो शिशु
वह आज तक बड़ा नहीं हो सका है,
हमें आज तक नहीं मिल सके हैं
हमारे सबसे सुन्दर दिन,
मधुरतम जो बातें मैं कहना चाहता हूँ
आज तक नहीं कह सका हूँ।
-नाज़िम हिक़मत

मैं आसमान की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। और तुमने इस तरह रंगों को फैला क्यूं दिया?
क्यूंकि आसमान का कोई छोर ही नहीं है।
मैं पृथ्वी की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। -और यह कौन है? वह मेरी दोस्त है।
-और पृथ्वी कहाँ है? उसके हैण्डबैग में।
मैं चंद्रमा की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
नहीं बना पा रहा हूँ मैं। क्यों? लहरें चूर-चूर कर दे रही हैं इसे बार-बार।
मैं स्वर्ग की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
लेकिन इसमें तो कोई रंग ही नहीं दिख रहा मुझे। रंगहीन है यह।
मैं युद्ध की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
और यह गोल-गोल क्या है? अंदाजा लगाओ। खून की बूँद? नहीं। कोई गोली? नहीं।
फिर क्या? बटन, जिससे बत्ती बुझाई जाती है।
-दुन्या मिखाईल

No comments:

Post a Comment