Saturday, 15 February 2014

जय प्रकाश त्रिपाठी

ठसाठस,
इतनी भीड़भाड़,
बाहर मेला लगा था,
लुटता रहा मैं
और कितना अजनबी हो गया
मेरे अंदर का चेहरा।
तेजाब-सी लबालब दर्द की शीशी
जैसे न कभी रही हो
इससे मेरी कभी कोई
जान-पहचान,
बोल-चाल, भेट-मुलाकात।

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