सोफिया कोवालेवस्कया संसार में पहली महिला थीं जिन्होंने विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर का और रूसी विज्ञान अकादमी की सह-सदस्या का पद पाया| यह उपलब्धि उन्नीसवीं सदी की है, जब रूस में युवतियों के लिए विज्ञान की उच्च शिक्षा के द्वार बंद थे| कोवालेवस्कया की मेधा गणित तक ही सीमित नहीं थी, एक कवि और जन-प्रचारक के नाते भी उन्होंने नाम कमाया| जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए ही सोनिया (रूस में सोफिया को ही प्यार से सोनिया कहते हैं) ने ऐलान कर दिया था: “मुझे यह एहसास हो रहा है कि मेरे भाग्य में विज्ञान को जीवन अर्पित करना और स्त्रियों के लिए नया मार्ग बनाना लिखा है, क्योंकि इसी से न्याय की सेवा होगी”| उनका जीवन-काल केवल 41 वर्ष का रहा, किंतु इतने अल्प समय में भी उन्होंने बहुत कुछ देखा, पाया और अनुभव किया: एक ओर गणितज्ञ और साहित्यकार के नाते उन्हें मान्यता मिली तो दूसरी ओर अनेक बार वह आत्म-विश्वास के अभाव और दुविधाओं से ग्रस्त रहीं, जीवन-साथी को खोने की त्रासदी झेली और प्रबल प्रेम का ज्वार भी मन में उठा, कितनी ही बार जीवन एकदम सूना हो उठा और असंतोष से जीवन दूभर हो उठा| इस सब के साथ उनका जीवन सितारों भरे आकाश पर तेज़ी से उड़ते जा रहे धूमकेतु जैसा था| यह अकारण ही नहीं कि मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच सूर्य की परिक्रमा कर रहे 209 क्षुद्र-ग्रहों में जिन्हें पीटर्सबर्ग विज्ञान अकादमी के विद्वानों का नाम दिया गया है सोफिया कोवालेवस्कया नाम का ग्रह भी है|
सोफिया कोवालेवस्कया का जन्म जनवरी 1850 में हुआ, उनके पिता सेना में जनरल थे| ननिहाल में दो नामी वैज्ञानिक थे| सोफिया ने कालांतर में लिखा: “अपने पूर्वज, हंगरी के राजा से मैंने विज्ञान की अभिलाषा पाई, दादा ने मुझे गणित से प्रेम की घुट्टी पिलाई, जबकि नाना ने संगीत और कविता से लगाव की| आज़ादी की ललक पोलैंड की देन है, जहां से ननिहाल के पुरखे आए थे; जिप्सी परनानी से मुझे मिला है घुमक्कड़ ज़िंदगी का शौक और किसी भी तरह की रूढियों को न मानने की प्रवृत्ति| बाकी जो कुछ है वह जननी रूस की देन है|”
आठ वर्ष की अल्पायु में ही सोनिया का उच्च गणित से पहला परिचय हुआ| उनके पैतृक घर में मरम्मत हो रही थी, दीवारों पर नया वाल-पेपर लगाया गया, बच्ची के कमरे के लिए वाल-पेपर कम पड़ गया| दादा के गणित के लेक्चरों के कागजों से यह कमी पूरी की गई| क्या यह नियति का संकेत था? सोनिया अक्सर याद किया करती थीं कि ये विचित्र सूत्र उन्हें बरबस अपनी ओर खींच लेते थे, वह देर तक खड़ी उन्हें देखती रहती थीं और यह अनुमान लगाने की कोशिश करती थीं कि इन पन्नों का सही क्रम क्या होना चाहिए| बड़ी होकर जब उच्च गणित की शिक्षा पाने लगीं तो “मुझे वे सूत्र सिखाते हुए, जिन्हें मैंने बचपन में ही अपने कमरे में वाल-पेपर की तरह लगा देखा था, मेरे अध्यापक इस बात पर हैरान होते थे कि कैसे मैं झट से उनकी बात समझ जाती हूँ| वे कहते: ‘अरे, आप तो इतनी आसानी से सब समझ गईं, जैसे कि पहले से ही यह सब जानती थीं’| वाकई, इन सूत्रों की तस्वीर तो मेरे दिमाग में पहले से ही बैठी हुई थी|”
सोनिया ने विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की ठानी| परंतु इसके रास्ते में दो बाधाएं थीं| एक तो यह कि उन दिनों युवतियों को विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिलता ही नहीं था| दूसरे सोनिया के पिता को “ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ी-लिखी औरतें” कतई पसंद नहीं थीं| वह तो बस उचित वर ढूँढकर बड़ी बेटी आन्ना और छोटी सोनिया का विवाह कर देना चाहते थे| परंतु दोनों बहनों के इरादे बिलकुल दूसरे ही थे| जब वे समझ गईं कि अपने देश में शिक्षा के कपाट उनके लिए किसी भी तरह नहीं खुल पाएंगे तो उन्होंने विदेश जाने की सोची| इसके लिए पासपोर्ट चाहिए था, जो कुंवारी लड़कियों को तभी मिलता था अगर वे अपने परिवारवालों, यानी माता-पिता, भाई या शादीशुदा बहन के साथ जा रही हों| मतलब यह कि शिक्षा पाने के लिए भी ये बहनें विदेश नहीं जा सकती थीं| अब इन्होने अपने परिचितों में जो प्रगतिशील विचारों वाले लोग थे उनसे बातचीत की – इरादा यह था कि उनमें से कोई एक बहन के साथ फर्ज़ी शादी कर ले| हैरानी की बात, यह मंसूबा पूरा हो गया| युवा वैज्ञानिक व्लादीमिर कोवालेवस्की ने बड़ी बहन आन्ना के वर की भूमिका अदा करना स्वीकार किया|
भाग्य का खेल देखिए, कुछ समय बाद उसने आन्ना से साफ़ कह दिया कि वह विवाह करेगा तो सोनिया से ही, जिस पर वह पहली नज़र में ही फ़िदा हो चुका है| शीघ्र ही व्लादीमिर को जनरल के घर आने का न्योता मिला| पिता की सहमति से वह सोनिया का वर घोषित किया गया| वह तब 26 वर्ष का था और सोनिया 18 वर्ष की| अपनी अद्भुत स्मरण-शक्ति से उसने युवती को मुग्ध कर लिया| वह यूरोपीय भाषाओँ से अनेक ऐसी पुस्तकों का अनुवाद और प्रकाशन करता था, जिनकी तत्कालीन रूस के प्रगतिशील लोगों को बहुत ज़रूरत थी|
गांव के गिरजे में उनका विवाह हुआ और शीघ्र ही नव-दम्पति विदेश चले गए| सोनिया ने जर्मनी में भाग्य आजमाने की सोची| उस ज़माने में यूरोप में भी युवतियों को सभी विश्वविद्यालयों में प्रवेश नहीं मिलता था, खास तौर पर गणित जैसे विषय पढ़ने के लिए| पर सोनिया भी अपनी धुन की पक्की थी| उन दिनों गणित और भौतिकी के केनिग्सबर्गर और हेल्म्होल्त्ज़ जैसे नामी विद्वान हीडेलबर्ग विश्विद्यालय में ये विषय पढ़ाते थे| कई महीनों की खींचतान के बाद आखिर सोनिया को यहां दाखिला मिल गया और 1869-1870 के तीन सत्रों में यहां उन्होंने पढ़ाई की| सभी अध्यापक युवती सोनिया की अद्भुत ग्रहण-क्षमता देखकर चकित होते रहे| केनिग्सबर्गर अपने लेक्चरों में अक्सर उस समय के महान गणितज्ञ कार्ल वीएरश्त्रास का उल्लेख करते थे| सोनिया ने उनसे शिक्षा पाने का निश्चय किया| बर्लिन जा पहुंचीं| यहां के विश्वविद्यालय में, जिसके प्राध्यापक कार्ल वीएरश्त्रास थे, युवतियों को दाखिला मिलना तो दूर, लेक्चर सुनने की भी इजाज़त नहीं थीं| मगर सोनिया कैसे हार मान सकती थी| वह प्रोफ़ेसर तक पहुँच ही गई| प्रोफ़ेसर को इस बात पर कतई विश्वास नहीं था कि स्त्रियों में गणित की योग्यता हो सकती है| इस हठी लड़की से जान छुड़ाने के लिए उन्होंने उसे कठिन से कठिन सवाल दे दिए और कहा हफ्ते भर बाद आकर मिलना| उन्हें पूरा यकीन था कि यह विदेशिन उन्हें दुबारा तंग नहीं करेगी| लेकिन ऐन एक हफ्ते बाद वह आ पहुंची: “सर, सभी सवाल हल कर लिए”| उसकी तीक्ष्ण बुद्धि से प्रभावित होकर प्रोफ़ेसर ने सोनिया को प्राइवेट ट्यूशन देने का फैसला किया|
जर्मनी में पांच साल के अथक परिश्रम का फल था सोफिया कोवालेवस्कया का शोध-पत्र, जिस पर गुट्टिंगेन विश्वविद्यालय ने उन्हें मास्टर ऑफ आर्ट्स और गणित में पी.एच.डी की डिग्री दी|
व्लादीमिर कोवालेवस्की मन ही मन उम्मीद लगाए थे कि आखिर उनकी पत्नी विज्ञान का पल्ला छोड़ देगी| उन्हें लगता था कि ऐसी प्रखर और मेधावी पत्नी के सामने उनकी अपनी छवि फीकी है| उनका विवाह भी अभी तक औपचारिकता ही था| वे भाई-बहन की तरह जी रहे थे| आखिर कोवालेवस्की ने स्वदेश लौटने का फैसला किया| अब सोनिया को सच्चे अर्थों में पति का अभाव महसूस हुआ| पराये देश जर्मनी में वह अकेली रह गईं| परंतु उसने अपना काम जारी रखा और गणित में एक नई खोज की| कोवालेव्स्कया की प्रमेय कालांतर में गणितीय विश्लेषण की सभी पाठ्य – पुस्तकों में शामिल की गई| इस सफलता से उत्प्रेरित होकर वह भी स्वदेश लौट आईं - राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग के विश्विद्यालय में गणित पढाने| औपचारिक तौर पर छह वर्ष तक विवाहित होने के बाद चौबीस वर्षीया सोफिया कोवालेवस्कया का अपने पति के साथ मधु-मास आरंभ हुआ| अंततः, विवाह के दस वर्ष बाद 1828 में दम्पति को एक पुत्री का वरदान मिला| अब व्लादीमिर के सिर पर गृहस्थी का बोझ उठाने की जिम्मेवारी बढ़ गई| इस समय तक वह भी पी.एच.डी. की डिग्री पा चुके थे और जीवाश्मिकी विज्ञान में उनका नाम हो गया था| विज्ञान के क्षेत्र में ही और आगे बढ़ने के बजाय उन्होंने व्यवसाय में आने का फैसला किया, ताकि जल्दी से अच्छी कमाई कर पायें| उद्यम और कर्मठता की उनमें कोई कमी नहीं थी, लेकिन बिज़नस करना उनके बस का काम नहीं था| आर्थिक कठिनाइयों में इतनी बुरी तरह फंसे कि 1883 में 41 वर्ष की आयु में जीवन त्याग दिया|
पति की आत्म-हत्या का समाचार पाकर चार दिन तक सोनिया के मुंह में न एक दाना गया न एक बूंद पानी| पांचवें दिन वह बेहोश हो गई| मरते दम तक उन्हें इस बात का अफ़सोस रहा कि कितनी देर बाद वह समझ पाईं कि उनका पति कितना अनोखा व्यक्ति था, उसका गम सदा उनके साथ रहा| बहरहाल सोनिया ने पति की साख ज़रूर बहाल कर ली – इस तरह पति के प्रति उन्होंने अपना अंतिम कर्तव्य निभाया|
अपने मन को सांत्वना तो वह अपने काम से ही दिलाती थीं| इन्हीं त्रासदी भरे दिनों में उन्हें स्टॉकहोम विश्विद्यालय में गणित पढाने का निमंत्रण मिला| और एक साल बाद उन्हें वहाँ प्रोफ़ेसर का पद भी मिल गया| सभी विद्यार्थी और अध्यापक भी उनके गूढ़ ज्ञान और कर्मठता से प्रभावित थे| सभी पीठ पीछे उन्हें “हमारी सोनिया प्रोफ़ेसर” कहते थे| स्टाकहोम विश्वविद्यालय में पांच साल काम करने के बाद उन्होंने वह शोध-पत्र लिखा, जिसके लिए स्टाकहोम और पेरिस की विज्ञान अकादमियों ने 1888 में उन्हें अपने समय का गणित का उच्चतम पुरस्कार दिया| पेरिस विज्ञान अकादमी ने तो खास तौर पर प्रोफ़ेसर कोवालेव्स्कया के लिए उसकी राशि तीन गुनी बढ़ा दी|
वैज्ञानिक कार्य में दिन-रात व्यस्त रहने के बावजूद सोफिया कोवालेवस्कया ने साहित्यिक सृजन में भी रूचि बनाए रखी| वह लगातार कहानियां और लेख लिखती थीं| इन्हीं दिनों उन्होंने रूस में 19वीं सदी के अंत में रूस में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन की गाथा सुनाने का अपना सपना भी साकार किया| इसके लिए उन्होंने एक उपन्यास लिखा| यह वेरा बारांत्सेवा नाम की नायिका की कहानी है, जो अमीर, कुलीन घराने में जन्मी और बड़ी हुई| इस उपन्यास की खासियत यह है कि कोवालेवस्कया के अपने चरित्र का इसमें बहुत हद तक चित्रण हुआ|
भाग्य ने नई करवट ली – पति से वियोग के पांच साल बाद उन्हीं के कुलनाम के एक व्यक्ति से उनकी भेंट हुई और दोनों के बीच एक बिजली दौड़ गई| मक्सिम कोवालेवस्की सारे रूस में विख्यात विधिशास्त्र के प्रोफ़ेसर थे और समाजविज्ञानी भी| लगा कि जीवन ने बहुत परीक्षा ले ली है, अब अंततः वह सच्चा जीवन-साथी पा लेंगी और पारिवारिक सुख भी| विवाह की तैयारियां होने लगीं| अचानक सोनिया को सर्दी लगी जिसने बिगड़कर न्यूमोनिए का रूप ले लिया| ऊपर से पता चला कि बचपन में ही डाक्टरों ने उनके ह्रदय में एक विकार पाया था| इस बार बीमारी का ही पलड़ा भारी रहा| 1891 में 41 वर्ष की उम्र में नींद में ही सोफिया कोवालेवस्कया यह संसार छोड़ गईं, ऐसे समय पर जब वह अपने वैज्ञानिक और साहित्यिक सृजन में पराकाष्ठा पर पहुँच रही थीं और संसार को उनसे बहुत उम्मीदें थीं| अपनी मृत्यु से एक दिन पहले उन्होंने मक्सिम से कहा था कि वह शीघ्र ही एक उपन्यास लिखेंगी, जिसका शीर्षक होगा: “जब मृत्यु नहीं रहेगी”|
सोफिया कोवालेवस्कया के बाद विज्ञान-जगत में बहुत कम ही ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने यह कहा हो कि मेधा केवल पुरुषों को मिलने वाला वरदान है| अंग्रेज़ दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर का यह कथन भी अपनी सारी प्रासंगिकता खो बैठा कि स्त्री और गणित दो ऐसी वस्तुएं हैं, जिनका कभी मेल नहीं बैठ सकता| उधर सोफिया कोवालेवस्या का नाम न केवल रूस, बल्कि सारे विश्व के विज्ञान और संस्कृति की धरोहर बन गया है|
कालांतर में जर्मनी की हुमबल्ट निधि ने अंतर्राष्ट्रीय सोफिया कोवालेवस्कया पुरस्कार की स्थापना की| यह पुरस्कार हर साल युवा वैज्ञानिकों को दिया जाता है| सन् 2012 में इसके 14 विजेताओं में रूसी जैव-भौतिकी (बायोफिजिक्स) वैज्ञानिक दमित्री फेदोसोव भी हैं| (hindi.ruvr.ru से साभार)
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