Sunday, 30 June 2013

मोहभंग का महारूपक राग दरबारी

 सत्यकाम

विद्रूप राजनीति, सामाजिक विडंबना और विरूपता के अचूक चितेरे श्रीलाल शुक्ल का संपूर्ण साहित्य वह आईना है जिसमें हम अपने समय-समाज की वास्तविक शक्ल को देख सकते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के मापर्फत अपने दौर की नब्ज को पकड़ा। उनकी कालजयी कृति 'राग दरबारी' भारतीय राजनीति और गाँव की एक्स-रे रिपोर्ट है। भारतीय गाँव के सनातन मिथक को ध्वस्त करते हुए स्वाधीनता और छद्म लोकतंत्रा पर प्रहार करती है यह रचना। इस कृति का एक पात्रा लंगड़ आम आदमी के रूप में सबसे मारक व्यंजना है। व्यंग्य को नया अंदाज देने और यथार्थ को सरस ढंग से अभिव्यक्त करने वाले इस रचनाकार को द्वितीय 'शब्द साधक शिखर सम्मान' से नवाजा गया। पेश है उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर रोशनी डालते कुछ आलेख
राग दरबारी' नायाब कलाकृति और भारतीय उपन्यास संसार में एक अप्रतिम और अपूर्व प्रतिमान है। यह मात्रा एक उपन्यास नहीं है, मात्रा एक कथा नहीं है, मात्रा एक जीवन नहीं है, मात्रा आजाद भारत की दुर्दशा की रूदाली नहीं है, न ही यह कुछ समस्याओं और प्रश्नों से जूझते सरोकारों तक सीमित है -यह एक ऐसा अनूठा रूपक है जिसमें अभिधात्मकता है ही नहीं। लक्षणा और व्यंजना ने प्रत्यंचा तान रखी है और उससे निकले व्यंग्य बाणों ने किसी के साथ रियायत नहीं की है। गजब है कि व्यंग्य के इतने दीर्द्घ वितान के बावजूद राग कहीं खंडित नहीं होता और राग दरबारी 'राष्ट्र गाथा' बन जाता है और दरबार से निकलकर दरो-दीवार पर क्रांति के नारों की तरह चस्पा हो जाता है।
'राग दरबारी' का प्रथम प्रकाशन १९६८ में हुआ था। इस समय तक प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, वृन्दावनलाल वर्मा, रांगेय राद्घव, नागार्जुन, अमृतलाल नागर, फणीश्वरनाथ रेणु, कमलेश्वर और कृष्ण बलदेव वैद जैसे उपन्यासकारों ने हिन्दी उपन्यास को पुष्पित और पल्लवित ही नहीं कर दिया था बल्कि इसकी कई शाखा-प्रशाखाएँ भी फूट पड़ी थीं और इस वट वृक्ष से झूलकर कई जड़ें भी बन रही थीं और नए पेड़ भी बन रहे थे। इसी वट वृक्ष से एक वृक्ष बना 'राग दरबारी'। यह एक ऐसा 'उपन्यास' है जिसने उपन्यास विधा की चली आ रही परंपराओं, मान्यताओं और रूढ़ियों को ध्वस्त कर दिया। इसलिए कुछ आलोचकों को यह 'असफल कृति' लगी क्योंकि इसमें 'उपन्यास और व्यंग्य जैसे दो परस्पर विरोधी अनुशासनों को जोड़ने का प्रयास है।
असल में, उपन्यास एक ऐसी विधा है जिसने अनुशासन और मर्यादा की कभी चिंता ही नहीं की । यह 'नॉवेल' इसलिए है क्योंकि इसमें हर बार एक नयापन होता हैे, एक ता८ागी होती है। विश्व उपन्यास पर भी दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि टाल्सटॉय से मार्खेज तक उपन्यास ने कितने कूल-किनारों को ध्वस्त किया। हिन्दी में ही देखें तो प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रेणु की मिसाल दी जा सकती है जिन्होंने उपन्यास को अलग-अलग ढंग से गढ़ा। उपन्यास तो जीवन का अक्स है तो पिफर यह एक जैसा कैसे हो सकता है? क्या जीवन दुहराया जा सकता है, क्या जीवन को द्घाटों में बाँधा जा सकता है, उपन्यास और जीवन तो बहती हुई नदी है जो कभी साँचों में कैद नहीं होती। उपन्यास का कोई 'ेम' हो ही नहीं सकता। यह 'ेमलेस' विधा है। इसे खूँटे में भी बाँधकर नहीं रखा जा सकता। यह एक नवोन्मेशी और प्रयोगधर्मी विधा रही है।

अंग्रेजी ढंग के उपन्यासों के साँचे को विश्व पटल पर ही नहीं भारतीय रंगमंच पर भी चुनौती मिल चुकी है जिसमें कुछ बने-बनाए नियमों पर उपन्यास की कथा बनती थी। तो 'राग दरबारी' ने भी उपन्यास की मुक्तता को एक और आयाम दिया और उपन्यास को अभिव्यक्ति से आगे ले जाकर अभिव्यंजना का माध्यम बना दिया। यह असंख्य रूपकों का कोलाज है जिससे बनता है एक राष्ट्रीय रूपक-''राग दरबारी का संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है जो पिछले बीस वर्षों की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आद्घातों के सामने द्घिसट रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावे८ा है।'' बस यह कथन ही अभिधा में है बाकी तो सब लक्षणा और व्यंजना है। कहना न होगा कि यह हिन्दी का एकमात्रा उपन्यास है जिसमें व्यंग्य है, वक्रोक्ति है पर अभिधा को पैर रखने तक की जगह नहीं मिली है और कमाल तो यह है कि पूरे उपन्यास में इसका निर्वाह है।

कहीं भी चूक नहीं, दरार नहीं, लड़खड़ाहट नहीं। यह कथा अभिधा में कही ही नहीं जा सकती थी क्योंकि यह तो मोहभंग की कथा है। मोहभंग आजादी पाने के सपने से, मोहभंग भारत के विकास से, मोहभंग नेहरूवादी विकास और सोच से, मोहभंग लोकतंत्रा से, मोहभंग अदालत और न्याय प्रक्रिया से, मोहभंग गाँव के विकास स्वप्न से, मोहभंग भारत के समाजवादी विकास से, मोहभंग नई पीढ़ी से, मोहभंग बु(जिीवियों से, मोहभंग आधुनिक होने से, और जब मोहभंग के इतने कारण मौजूद हों तो वेदना का यह अट्टहास अनिवार्य परिणति है। व्यंग्य तो होती ही है आक्रोश की चरम परिणति। 'राग दरबारी' की विशेषता यही है कि इसका हास्य भी व्यंग्य में परिणत हो जाता है क्योंकि इसमें भारत की बर्बादी और दुर्दशा के दर्द की अंतर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है।

मानसिक यातना के विस्फोट से मुक्त होने के लिए कथाकार कभी-कभी ठेठ ग्रामीण अंदाज में भी कथा कहने लगता है जो कुलीन आलोचकों और पाठकों को फूहड़, गंवारू और भदेस लगने लगता है। जब गाँव हैं ही फूहड़, गंवारू और भदेस तो कहाँ से आए शहराती शिष्टता। यह शिष्टता और अशिष्टता, ऊँच-नीच आदि की अवधारणा ही अभिजात्य दर्शन की देन है जो 'जन' को हमेशा से फूहड़ और ग़ली८ा मानता आया है। भारत में अछूत और अस्पृश्य प्रथा इसी अभिजात्य संस्कृति की उपज है। 'राग दरबारी' इसी अभिजात्य और कुलीन व्यवस्था का मखौल उड़ाता हुआ भदेस जबान में कहानी कहता है, सुनाता है, दिखाता है। यह भी भ्रम फैलाया गया कि 'राग दरबारी' एक कस्बे की कथा है। यह भी बहस का विषय बनता है कि ग्रामीण कथा है या कस्बे की कथा है। असल में, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है।

यह सब तो कथा का अपना आवरण है, रूपक है, जिसमें से निकलती है, भारत की व्यथा-गाथा। उपन्यास के एक पात्रा रूप्पन से श्रीलाल शुक्ल कहलाते भी हैं ''मुझे तो लगता है दादा सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फैला हुआ है।'' शिवपालगंज शहर से सटा कस्बा है, जो न पूरी तरह कस्बा बन पाया है न शहर। न यहाँ आधुनिकता पूरी तरह आ सकी है, न मध्यकालीनता अपनी केंचुल उतार पाई है। अधकचरे विकास का प्रतीक है शिवपालगंज जो मात्रा एक कस्बा नहीं, पूरा भारत है।

'राग दरबारी' रात में गाया जानेवाला राग है। अंधेरेपन की भयावहता को दूर करने और सुखद सुबह और नई किरण का आह्‌वान करता है यह राग। श्रीलाल शुक्ल ने भी राग दरबारी का आलाप लिया है क्योंकि चारों ओर अंधेरा है, अराजकता है, लूट है, अव्यवस्था है, भ्रष्टाचार है, जहाँ हाथ रखो वहीं लिजलिजापन है। आजाद भारत के २० वर्षों की यह कथा हास्य और व्यंग्य का लावा बनकर फूट पड़ा है, जो अंदर तक झुलसा डालता है। व्यंग्यकार इसी लिहाज से दूसरे रचनाकार से भिन्न होता है कि उसकी 'अगंभीर' में भी गंभीरता छिपी होती है और उसके हंसोड़पन में भी यथार्थ का दंश होता है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र, बाल मुकुन्द गुप्त, हरिशंकर परसाई जैसे रचनाकार इस 'कहन' का इस्तेमाल नाटकों, निबंधों, कहानियों और उपन्यासों में कर चुके थे पर इतने बड़े फलक पर व्यंग्य के इस्तेमाल का श्रेय श्रीलाल शुक्ल को ही जाता है। और सबसे बड़ी बात यह कि 'अंधेर नगरी', और 'भोला राम का जीव' की ही तरह 'राग दरबारी' भी रोज-रोज प्रासंगिक होता जा रहा है क्योंकि जिस व्यवस्था पर इन रचनाओं में प्रहार किया गया है वह और भी सुदृढ़ हो रही है।

'राग दरबारी' नेहरू के सपनों के भारत के खंडित होने की कथा है। आजादी के बाद जो लोकतंत्रा भारत में विकसित हुआ वह 'सामंती लोकतंत्रा' है, जिसके प्रतिनिधि, मुखिया और सिरमौर वैद्य जी हैं। लोकतंत्रा, नौकरशाही, पुलिस, कानून व्यवस्था, शिक्षा, राजनीति सब इनकी मुट्ठी में हैं। इस कथा में सामंती मानसिकता पर वल्गा कसी गई है, दिखाया गया है कि हम अपने विचारों में, कर्म में, सोच में अभी तक 'आधुनिक' नहीं हो पाए हैं।

हम जातियों में विभाजित हैं, धर्मों में विभाजित हैं, कर्म से ज्यादा व्यक्ति पूजा को महत्व देते हैं, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्रा को ठेंगे पर रखते हैं और उसका ढोंग रचते हैं।
'राग दरबारी' एक राजनीतिक कटाक्ष है जो ट्रक के रूपक से आरंभ होकर बंदर-बंदरिया के नाच पर जाकर समाप्त होता है। कथा के आरंभ और अंत का इतना सुंदर आयोजन उपन्यास को 'कहन' के लिहा८ा से भी कालजयी बना देता है। 'ट्रक' की जो-जो विशेषताएँ गिनाई गई हैं वह किसी भी दबंग रंगदार में देखी जा सकती हैं और इस फेहरिस्त में राजनीति शीर्ष पर है। वैसे भी आज गुंडों और राजनीतिज्ञों की सीमा रेखा मिटती जा रही है। यह ट्रक भारत के 'लोकतंत्रा' का मखौल उड़ाता है जिसमें अव्यवस्था और अराजकता हावी है। इस लोकतंत्रा में जंगल राज है जो जितना मजबूत, जो जितना प्रभावशाली, जो जितना दबंग उसकी उतनी ही चलती है।

शिवपालगंज आधुनिक युग का मध्ययुगीन संस्करण है। यह सब कुछ मध्ययुगीन है खासतौर पर मानसिकता। शिवपालगंज का थाना इसका जीता जागता उदाहरण हैः ''आराम कुर्सी ही नहीं, सभी कुछ मध्यकालीन था। तख्त, उसके ऊपर पड़ा हुआ दरी का चीथड़ा, कलमदान, सूखी हुई स्याही की दावातें, मटमैले, मुड़े हुए कोनों वाले रजिस्टर-सभी कुछ कई शताब्दी पुराने दिख रहे थे। ...थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फेंक दिया है।''

शिवपालगंज में 'शतरंज के खिलाड़ी' की सी मस्ती है। सब खेल तमाशे में मस्त हैं। राष्ट्र कि चिंता किसी को नहीं है। सारा शिवपालगंज मस्ती में डूबा हुआ है। सिपाही से लेकर सिपहसालार तक और संतरी से लेकर मंत्राी तक सब अलमस्त, मदमस्त। देश की चिंता से महरूम वैद्य जी के दरबार में भंग द्घुटती है। क्योंकि ''असली शिवपालगंज वैद्य जी की बैठक में था। ...यह शिवपालगंज का नं.१० डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन है और यह मकानों के नहीं ताकतों के नाम हैं।''
शिवपालगंज भूदान और सहकारिता की ही खिल्ली नहीं उड़ाता बल्कि आजादी के बाद हुए 'ग्रामीण विकास' की भी औकात बताता है। शिवपालगंज गाँधी चबूतरे के पास फैली हुई 'बू' है। शिवपालगंज के लोग गंजहा के नाम से प्रसि( हैं। गंज में रहने वाला गंजहा परंतु यहाँ गंजहा परले दर्जे के कमीनेपन और काइंयेपन का पर्याय है।

गंजहों के बारे में प्रसि( था-रंगनाथ की मानें तो ''तुम इसके मुँह न लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गंजहा है।'' रंगनाथ से ट्रक ड्राइवर ने २ रुपए ऐंठ लिए- यह बहस का मुद्दा बन जाता है क्योंकि वहाँ और कोई मुद्दा है ही नहीं। मुद्दा है तो स्वार्थ का, मुद्दा है तो कब्जा जमाने का, मुद्दा है तो सब कुछ हड़प लेने का, मुद्दा है तो हुक्मरान बनने की तिकड़मों का। तिकड़मों के सिरमौर हैं वैद्य जी, जिनका परिचय व्याख्या की गुंजाइश नहीं छोड़ता क्योंकि वैद्य जी व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति हैं, प्रतीक हैं वैद्य जी थे, हैं और रहेंगे। अंग्रेजों के जमाने में वे अंग्रेजों के लिए श्र(ा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्र(ा दिखाने लगे।

वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायु( के दिनों में, जब देश को जापान से खतरा हो गया था, उन्होंने सुदूर-पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराए। अब जरूरत पड़ने पर रातोंरात वे राजनीतिक गुट में सैकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज के इजलास में जूरी और अफसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सुपुर्ददार होकर और गाँव के जमींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोऑपरेटिव यूनियन के मैनैजिंग डाइरेक्टर और कॉलेज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंेिक उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्रा में जिम्मेदारी के इन कामों को निभाने वाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे। इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को संभालना पड़ा था।''

'राग दरबारी' का राजनीतिक कटाक्ष सनीचर की कथा के माध्यम से आगे बढ़ता है। सच कहें तो सनीचर की कथा से ही राजनीतिक रूपक का ताना-बाना खड़ा होता है और भारतीय लोकतंत्रा और राजनीति के 'जनतंत्राीकरण' की असलियत से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है पर एक नए अंदाज में। यह भारतीय लोकतंत्रा पर नहीं अपने कलेजे पर कशाद्घात है क्योंकि हमने ही तो इस लोकतंत्रा को सींचा और पल्लवित-पुष्पित किया। सनीचर, यानी श्री मंगल प्रसाद इस लोकतंत्रा का प्रमुख पहिया है जिसकी धुरी वैद्य जी हैं। सत्ता किस प्रकार बाजार से जुड़कर मुनाफा कमाने में जुट जाती है, इसका खुलासा करता है सनीचर जिसे वैद्य जी गाँव का परधान बना देते हैं ''देखे जाओ, रंगनाथ बाबू, कुछ दिन में अच्छा लगने लगेगा।

पहले राजा-महराजा तथा तल्लुकेदारों का जमाना था। अब देखना, दुकानदारी का ही बोलबाला होगा। इस वक्त भी है।'' यह यही भी कहता है-''जानते हो ? वहाँ का चलन है कि जिसके हाथ में ओहदा हो वह खुद व्यापार नहीं करता। व्यापार करने के लिए भाई-भतीजों को लगाने का चलन है। वे मुँह लटकाकर व्यापार करते रहते हैं। राजनीति के चक्कर में अपना समय नहीं खराब करते। जिसके हाथ में ओहदा है, वह उनसे अलग रहकर चुपचाप अपना ओहदा संभाले रहता है। चाहे चुंगी का चुनाव हो चाहे असम्बली का- हर एक के बाद चुनाव की लड़ाई से थके-थकाए भाई-भतीजे बेचारे एक कोने में बैठकर इसी तरह चुपचाप व्यापार करने लगते हैं।''

सनीचर का प्रधान बनना दलितों के राजनीति में प्रवेश करने की कहानी है क्योंकि अब दलित भी सचेत होने लगे हैं और वे पहले की तरह 'गार्ड ऑफ ऑनर' नहीं देते। सनीचर एक प्रवृत्ति है भारतीय राजनीति की जिसमें दलितों को मुखौटा बनाया गया पर शासन अगड़ों के हाथ में ही रहा। सनीचर स्वीकार करता हैः
''प्रधान कौन साला बनता है? सनीचर ने जोर से रंगनाथ की बात काटी, हम तो बैद जी को ही प्रधान मानते हैं। समझ लो यह दुकान उन्हीं की है। बैठ मैं रहा हूँ। समझ लो, मैं उनका ८िाम्मी हूँ।''
जिसे सनीचर सहजता से स्वीकार कर लेता है वह भारतीय राजनीति का बहुत बड़ा यथार्थ था, अब नहीं है, हालाँकि अभी भी यह पूरी तरह समाप्त नहीं हो सका है। पर ८िाम्मी की परम्परा अभी जारी है ''..यही हमारी परम्परा है। रामचन्द्र की खड़ाऊँ पूज कर भरत ने उनके नाम से चौदह साल हुकूूमत चलाई थी।''

आज भी यह सच भारतीय राजनीति में प्रखरता और प्रचंडता के साथ मौजूद है। अधिकांश राजनीतिक दलों में यह खड़ाऊँ पूजा जारी है उदाहरण देने की जरूरत नहीं।
खड़ाऊँ पूजन ही लोकतंत्रा है क्योंकि हमारा लोकतंत्रा 'सामंती लोकतंत्रा' है। हर दल के नेता सामंत और बाकी उसके ८िाम्मी। भारतीय लोकतंत्रा का ऐसा बेबाक चित्राण अभी तक मुझे किसी भी भारतीय उपन्यास में नहीं मिला। भारतीय राजनीति का इससे बेहतर रूपक हो ही नहीं सकता। भारतीय राजनीति का यह आख्यान यहीं की जमीन पर खड़ा है, यहीं से उसे रस पानी मिला है और इसीलिए इतना मजबूत और टिकाऊ है। जब तक भारतीय राजनीति और भारत राष्ट्र स्वार्थपरता, लोलुपता, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद से मुक्त नहीं होता तब तक यह कथा प्रासंगिक रहेगी और यह उपन्यास कालजयी और क्लासिक रचनाओं की क़तार में अग्रणी बना रहेगा।

'राग दरबारी' औपनिवेशिक और सामंती मानसिकता तथा व्यवस्था के खिलाफ शंखनाद है। भारत अभी तक औपनिवेशिक गुलामी में ही जी रहा है। भारतीय न्याय व्यवस्था इसका जीता जागता उदाहरण है जो औपनिवेशिक काल में बनाए गए कानून पर द्घिसट रही है। भारतीय अदालतें फैसले के स्थगन के लिए विख्यात हैं और इसी सच का बयान है लंगड़ की कथा। लंगड़ अदालत से नकल निकलवाने के लिए अदालत के दरोदीवार की एक-एक ईंट से सिर लड़ा चुका है पर उसे नकल नहीं मिलती क्योंकि वह रिश्वत नहीं देने का हठ कर बैठता है क्योंकि वह 'सत्त की लड़ाई' लड़ रहा है। 'नकल न मिलना' 'राग दरबारी' में एक महत्वपूर्ण मुद्दा और बहस का विषय बन जाता है और लंगड़ 'नकल न मिलने' का पर्याय। लंगड़, शरीर से तो विकलांग है ही निर्धन और दलित भी है, जिसे 'औपनिवेशिक अदालत' से न्याय नहीं मिलता।

बु(जिीवी, शिक्षक तथा शिक्षा व्यवस्था किसी भी आधुनिक समाज और राष्ट्र की नींव होते हैं। भारत की नींव को खोखला बनाने में इनका योगदान सर्वोपरि मानते हुए श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में इनकी जमकर खिंचाई की है। छंगामल विद्यालय इंटरमीडिएट कॉलेज, शिवपालगंज, को श्रीलाल शुक्ल अस्तबल, दुकान, गुमटी, सामुदायिक मिलन केंद्र जैसे नायाब विशेषणों से नवाजते हैं, जहाँ शिक्षा के अलावा सब कुछ हासिल किया जा सकता है। कॉलेज का प्रिंसिपल शोले का जेलर है जो ''मैं अंग्रेज के जमाने का जेलर हूँ'' के मानिंद विदूषक के रूप में चित्रिात है। यह कॉलेज कथा के केंद्र में बना रहता है। इस कॉलेज पर वैद्य जी का कब्जा है। प्रिंसिपल वैद्य जी का एक प्रमुख दरबारी है जिसे कभी रूप्पन बाबू लतियाते हैं तो कभी बद्री गरियाता है। पर वह पिल्ले की तरह कें-कें करता हुआ वैद्य जी की धोती में द्घुसा रहता है।

साइंस टीचर मोतीराम साइंस कम पढ़ाते हैं अपनी आटा चक्की के नफे-नुकसान की पिफक्र उन्हें ज्यादा सताती है। खन्ना इतिहास के मास्टर हैं पर अंग्रजी पढ़ाते हैं यानी जिस शिक्षा व्यवस्था पर पूरे देश का भविष्य टिका है उसे भी राजनीतिज्ञों ने किस प्रकार ध्वस्त किया है इसका नजारा छंगामल महाविद्यालय में देखने को मिलता है। राजनीतिक दांवपेंच और औपनिवेशिक मानसिकता के कांटे में फंसी शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त होते दिखाया गया है। इस उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने इस पर जम कर प्रहार किया है। गौरतलब है कि व्यंग्य से मजबूत प्रहार कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि यह भितरद्घात करता है और छाती बेध डालता है। गौरतलब है कि व्यंग्य इतना तीक्ष्ण और मारक होता है कि यह महाभारत की नींव भी बन सकता है। प्रेमचंद ने भी कई स्थानों पर और खासकर 'बड़े भाई साहब' में औपनिवेशिक और अंग्रेजी शिक्षा प(ति की आलोचना की है और उसी को आगे बढ़ाते हुए श्रीलाल शुक्ल ने उसकी ताबूत में कील जड़ दी है।

जब पीड़ा द्घनीभूत हो जाती है तो व्यंग्य का जन्म होता है। व्यंग्य अग्निगर्भा है जिसकी आंच और ताप का दायरा विस्तृत और बहुआयामी होता है। 'राग दरबारी' द्घनीभूत वेदना से जन्मा उपन्यास है जो व्यंग्य के लावे के रूप में फूटा है। हमने अपनी और अपने देश की जो दुर्गत कर ली है उसी पर हल्ला बोलती है यह कृति। राजनीति, शिक्षा व्यवस्था, पुलिस, नौकरशाही आदि तो हैं ही निशाने पर विकृत हो रहा व्यक्तिगत और सामाजिक संबंध भी लहूलुहान दिखाई पड़ते हैं। वैद्य जी के पुत्रा हैं रूप्पन बाबू। ये नई पीढ़ी के प्रतीक हैं जिन्हें श्रीलाल शुक्ल ने प्रिंसिपल की ही तरह विदूषक बनाकर प्रस्तुत किया है। 'राग दरबारी' में विदूषकों की भरमार है, ऐसा लगता है कि यही विदूषक समाज को ';कुद्ध राह' पर ले जा रहे हैं। रूप्पन बाबू का चरित्रा हास्यास्पद है पर अपने पिता के प्रति उनका जो 'रागात्मक' संबंध है, वह पिता के अपमान के रूप में प्रकट होता है। रूप्पन बाबू के खानदान में कुसहर प्रसाद के परिवार की तरह बाप को पीटने की परम्परा तो नहीं थी पर इससे बिखरते पारिवारिक संबंधों की झलक तो मिलती है जो मात्रा स्वार्थ और बाप की मिल्कियत हथियाने पर टिका है।

भारत में प्रेम करना आज भी दुस्साहस माना जाता है। प्रेमी प्रेमिकाओं को सरेआम मारे जाने की खबर अखबारों में छपती रहती है। भारत में अभी भी प्रेम करने को नैतिक मान्यता प्राप्त नहीं है। महानगरों में भी प्रेम संबंध नजरें तो उठावा ही देता है, भले ही सार्वजनिक रूप से कोई टिका-टिप्पणी न करे। छोटे शहरों, कस्बों और गाँव में तो यह बड़ा 'स्कैंडल' बन जाता है और कभी-कभी प्रेमी-प्रेमिका को जान से हाथ धोना पड़ता है। इसी भारतीय मानसिकता पर रूप्पन-बद्री-बेला के त्रिाकोणीय प्रेम प्रहसन द्वारा चोट की गई है। भारतीय परंपरा के अनुसार अंततः बेला ही बदनाम होता है रूप्पन बद्री एक दूसरे को संदेह से देखते हुए बेदाग निकल जाते हैं। अंत में यह खबर गौरतलब हैः ''उसी के दूसरे दिन शिवपालगंज में कई खबरें फैलीं। एक खबर यह थी कि खन्ना मास्टर के दल के किसी लड़के ने बेला को एक प्रेम-पत्रा लिखा है और उसमें झूठमूठ रूप्पन का नाम जोड़ दिया है।

दूसरी खबर यह थी कि बेला ने रूप्पन को एक प्रेम-पत्रा लिखा था जिसका जवाब रूप्पन ने भेजा था। पर यह जवाबी पत्रा गयादीन के हाथों पकड़ा गया और बेइज्जती से मारा गया।
तीसरी खबर, जो सबसे ज्यादा प्रसि( हुई, यह थी कि बेला एक बदचलन लड़की है। साम्प्रदायिकता एक बड़ा रोग है जो भारत की नस-नस में बसा है। इस वायरल की कोई दवा नहीं। श्रीलाल शुक्ल कबीर और प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं जो धर्म का मजाक उड़ाने का साहस रखते हैं। बदरी पहलवान के मंदिर दर्शन प्रहसन में धार्मिक ढकोसले की पोल खुलती है और पुजारियों की प्रतिक्रिया उनकी स्वार्थपरता को उजागर करती है। क्योंकि धर्म उनका धंधा है और रंगनाथ उनके पेट पर ही लात मारना चाहता है और यहाँ रूप्पन बाबू की टिप्पणी सटीक बैठती है ''...कसूर तुम्हारा नहीं, तुम्हारी पढ़ाई का है। ...पढ़ लिखकर आदमी पढ़े-लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है।'' अंधविश्वास और अंधआस्था पर श्रीलाल शुक्ल का यह जबरदस्त व्यंग्य प्रहार एक ऐसा आधुनिक लेजर ऑपरेशन है कि कब छुरी चली पता ही नहीं चला क्योंकि इसमें हास्य रस का एनिस्थिसिया लगा होता है।

गाँधी के नाम पर जो भी अनाप शनाप काम आजादी के बाद हुआ और अब भी हो रहा है उसे गुंडागिरी की तर्ज पर श्रीलाल शुक्ल ने गाँधीगिरी कहा है-''महाराज, यह ज्ञान अपने पास रखो। यहाँ खून की नदी बह गई और तुम हम पर गाँधीगिरी ठांस रहे हो। यही बद्दरी पहलवान तुम्हारी छाती पर चढ़ बैठे तो देखूँगा, इश्लोक बाँचकर कैसे अपने मन को समझाते हो'' गाँधी के विचारों के अवमूल्यन को दर्शाने के लिए यहाँ 'गाँधीगिरी' का इस्तेमाल लोक गृहीत है। यह पूरा उपन्यास ही जनता की आवाज है जो केवल गाँधी के विचारों के ही अप्रासंगिक बना दिए जाने की बात नहीं करता बल्कि सहकारिता जैसे ग्रामीण विकास योजनाओं के भहराने के कारणों की तफ्‌तीश करता है और पाता है कि रूप्पन बाबू के शब्दों में ''यह सब पालिटिकल है।''

द्घूस लेना प्रतिष्ठा का मानदंड है, गबन करने से महिमा बढ़ती है, पिता को पीटना सम्मान की बात है, भूदान के नाम पर छल करना अभिमान माना जाता है। यहाँ कालिका प्रसाद जैसे लोग हैं जो ग्रांट का ग्रांट गड़प लेते हैं और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में शुमार होते हैं। यह है भारत का असली चेहरा जहाँ प्रजातंत्रा रिरिया रहा है और सनीचर की तरह वैद्य जी के चौखटे पर नाक रगड़ रहा है, चिरौरी कर रहा है।

श्रीलाल शुक्ल ने सनीचर का चरित्रा रच के गढ़ा है। वह प्रजातंत्रा है, वह वैद्य जी का गुलाम है। उसके तार-तार कपड़े प्रजातंत्रा की दुर्दशा का बयान है, ग्राम पंचायत वैद्य जी की दास है। अदालत अमीरों की पैरोकार है। चुनाव फर्जी है। यहाँ शिक्षा के नाम पर लूट है, रिसर्च के नाम पर द्घास खुदौअल। 'राग दरबारी' आज का भारत है जो भूमंडलीकरण, उदारीकरण और बाजारीकरण की चक्की में पिस रहा है। यहाँ इंडिया है, यहीं भारत है। 'राग दरबारी' में बाजारीकरण की पदचाप स्पष्ट सुनाई देती है। रूप्पन बाबू, वैद्य जी, प्रिंसिपल साहब का बाजार भ्रमण इसी ओर इशारा करता है और कथाकार का कथन हैः
''आज भी हिन्दुस्तानी शहरों में दो तरह के बाजार होते हैं। एक काले यानी नेटिव लोगों का और दूसरा गोराशाही बाजार।''

आज गोरा बाजार इतना पसर गया है कि नेटिव बाजार को अजगर की तरह निगल रहा है।
रोज-रोज खुल रहे मॉल इसी गोरा बाजार का संस्करण है जहाँ एक खास तबके के लोग ही खरीदारी करने जाते हैं। यह इंडिया का बाजार है।
'राग दरबारी' मध्ययुगीन मानसिकता पर आद्घात करता है और भारत को आधुनिक बताने के पाखंड पर चोट है। जिस देश में करोड़ों लोगों को शौच करने की सुविधा नहीं वह देश तो मध्ययुगीन ही होगा। लोगों के और खासकर महिलाओं के खुले में शौच करने का दृश्यांकन इस लिहाज से 'क्लासिक' है कि इसमें भारत की भारतीयता और इसकी महानता पर प्रश्न चिह्‌न लगता है। इस या इस प्रकार के वर्णनों को पढ़कर संभ्रांत और कुलीन आलोचकों/पाठकों को भदेसपन की बू आ सकती है पर जब यही सच है तो है, जिनके द्घर में पाखाने हैं वे तो नाक भौं सिकोड़ेंगे ही। जिन्हें बरसात में द्घर से बाहर शौचादि के लिए निकलना पड़ता है उनका ही दर्द इस उपन्यास में व्यक्त हुआ है और भलेमानुस की भलमनसियत की मलामत की गई है।

'राग दरबारी' अतिशयोक्ति में लिखा गया उपन्यास है। क्योंकि यह 'ग्राम कथा' है और गाँव की जुबानी यह कहानी कही गई है। क्योंकि ग्रामीण भांजू भी होता है और ज्यादातर अतिशयोक्ति में बात करता है गाली गलौज, नित्य क्रियाओं, तथाकथित अश्लील शब्दावलियों का प्रयोग धड़ल्ले से करता है। इसे 'सभ्य' समाज में 'भदेस' माना जाता है पर भारत में इसी 'भदेस' से लोक बनता है। इन्हीं से निकलती हैं लोकोक्तियां और मुहावरे। ग्रामीण भाषा के इस रूप का सर्जनात्मक प्रयोग राही मासूम रजा के उपन्यास 'आधा गाँव' ;१९६६द्ध और श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' में हुआ है।

संयोग से दोनों ही उपन्यासों का रचना काल और विवेच्य काल लगभग एक ही है। 'आधा गाँव' और 'राग दरबारी' दोनों ही उपन्यासों पर अश्लीलता का आरोप लगा पर ये दोनों ही उपन्यास अपनी दृष्टि और कथ्य में इतने बड़े हैं कि इन्हें अश्लील कहने वाले ही ओछे और छोटे नजर आने लगते हैं। अश्लीलता का मानदंड शिष्ट समाज करता है जो अश्लीलता को पर्दे के पीछे ले जाता है और उसे ढांप-तोपकर रखता है और उसका मनमर्जी उपयोग करता है। ग्रामीण मन खुलेआम और सहज रूप से अपने को अभिव्यक्त करते हैं। इसलिए वे अश्लील माने जाते हैं। गालियाँ मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है जिसके साथ कई गुबार निकल जाते हैं।

गालियाँ यौनाकांक्षा की अभिव्यक्ति है, गालियाँ अपने को उन्मुक्त करने का प्रयास है। महिलाओं द्वारा शादी विवाह के अवसरों पर गालियाँ गाना इसी मनोवृत्ति का उच्छवास है। गालियाँ मन के गंदलेपन को, कुंठा को, दबी भावनाओं को निकालने का एक 'सेफ्रटी वाल्व' है जिससे मन तनाव मुक्त हो जाता है। निश्चित रूप से गालियां किसी भी समाज में 'सभ्य' नहीं मानी जातीं पर यह 'असभ्य अभिव्यक्ति' हर सभ्यता, हर संस्कृति का एक हिस्सा है। वैसे ही जैसे खजुराहो के मंदिरों में उत्कीर्ण यौन क्रीड़ाओं का दृश्यांकन। एक नजर से वह भी अश्लील है क्योंकि सभ्यता यौन क्रिया को निजी दायरे में रखने की मांग करती है।

पिफर यौन क्रियाओं के इस सार्वजनिक प्रदर्शन को किस रूप में व्याख्यायित करें? इसलिए गालियों और अश्लीलता के नाम पर इन उपन्यासों की महत्ता कम नहीं हो जाती बल्कि इससे इन कथाकारों के साहस का परिचय मिलता है जिन्होंने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए और अपनी बात पाठक तक पहुँचाने में कोई लुका छिपी नहीं खेली। जो जैसा है उसे उसी रूप में पेश ही नहीं किया। सच को ऐसा तरकश बनाया कि अंदर तक बिंध गया।

इसी कारण 'राग दरबारी' का एक-एक प्रसंग, एक-एक वाकया, एक-एक कथन ऐसे नुकीले और धारदार हैं कि छलनी-छलनी कर देते हैं पर 'वे कत्ल भी करते हैं और चर्चा नहीं होती' क्योंकि उनके पास व्यंग्य बाण है जिसका संधान सात्विक क्रोध और बेचैनी के धनुष से होता है। व्यंग्य हँसकर समस्याओं को टालता नहीं बल्कि उन्हें तीक्ष्ण और बेधक बनाकर पेश करता है। व्यंग्य हास्य तो पैदा करते हैं पर हास्यास्पद नहीं होते।

'राग दरबारी' में कई बार ऐसा लगता है कि इस प्रकार के प्रसंग की क्या जरूरत है जैसे वैद्य जी का प्रजातंत्रा का सपनाः ''थोड़ी देर शांति रही, पर कुछ देर बाद ही पेट के अंदर हवा ने क्रांति मचानी शुरू कर दी। जिस्म के ऊपरी और निचले हिस्सों से यह बार-बार विस्फोटक आवाजों में निकलने लगी। उन्होंने लिहाफ दाबकर करवट बदली और अंत में क्रांति का एक अंतिम विस्फोट सुनते हुए वे पिफर तन्द्रालीन हो गए। देखते-देखते क्रांति की हवा कुतिया की तरह दुम हिलाती हुई सिपर्फ उनके नथनों से खर्राटों के रूप में आने लगी, जाने लगी। वे सो गए। तब उन्होंने प्रजातंत्रा का सपना देखा।'' प्रजातंत्रा की दुर्गति का इससे बेहतरीन चित्राण हो सकता है क्या?

'राग दरबारी' प्रहसन, रामलीला, भड़ैत, नौटंकी, जैसी लोक नाट्यशैलियों का समुच्चय है। इसमें कई 'प्रहसन' एक के बाद एक चलते हैं और मिलकर एक 'महानाट्य' तैयार होता है, जो अंततः राष्ट्रीय रूपक में तब्दील हो जाता है। रूप और संरचना की दृष्टि से 'राग दरबारी' हिन्दी का अप्रतिम और अकेला उपन्यास है जिसमें लोक नाट्य रूपों को महारूपक और महाआख्यान में रूपांतरित किया गया है।
'राग दरबारी' में खड़ी बोली, अवधी और भोजपुरी मिश्रित हिन्दी का विस्फोटक उपयोग और प्रयोग किया गया हैे। व्यंग्य को भाषा में ढालना बड़ा कठिन होता है।

इसका आसानी से फूहड़ मजाक में तब्दील होने का खतरा बना रहता है। पर यदि कथ्य और दृष्टि में गहराई हो, उसमें कोई चिंता और सरोकार हो उसका कोई लक्ष्य हो, तो पिफर फूहड़ता उसमें से छू मंतर हो जाती है। इसलिए 'राग दरबारी' के फूहड़ से लगने वाले प्रसंग भी गहरी अर्थवत्ता दे जाते हैं क्योंकि यह एक बड़े दृष्टिकोण, चिंता और सरोकार से संपृक्त है और यह है राष्ट्र निर्माण की चिंता, राष्ट्र को जर्जर होने से बचाने की चिंता। किसी को तो बताना ही पड़ेगा कि 'राजा नंगा है' किसी को तो पर्दाफाश करना ही होगा कि 'अंधेर नगरी है' और यह बात अभिधा में तो नहीं कही जा सकती है, इसके लिए तो व्यंजना की संजीवनी चाहिए जो केवल व्यंग्य के पास है।

'राग दरबारी' जैसी महान कृतियाँ बार-बार पुनर्पाठ की मांग करती हैं क्योंकि यह हर युग में प्रासंगिक होती हैं। यह कृति एक पतनोन्मुख और हृासोन्मुख व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की 'करुण गाथा' है जिसे बड़े दर्द, पीड़ा और क्रोध के साथ प्रस्तुत किया गया है और जिसका विस्फोट व्यंग्य के रूप में हुआ है। व्यंग्य को इतने बड़े फलक पर संभाल कर रखना भी अपने आप में एक मिसाल है। वक्रोक्ति और उलटबांसी शैली में लिखा यह उपन्यास भारतीय मानसिकता को सही परिप्रेक्ष्य में और पूर्णता में परोसता है। यह एक राजनीतिक व्यंग्य रचना है जो इस प्रहसन के साथ समाप्त होती हैः

''इसके बाद वार्ता में गतिरोध पैदा हो गया। मदारी, जहन्नुम में जाने के बजाए, वहीं पर जोर-जोर से गाने लगा था और उसकी डुगडुगी अब एक नई ताल पर बज रही थी। कुछ दूरी पर कुत्ते दुम हिलाते, कमर लपलपाते, भूंक रहे थे। लड़के द्घेरा बाँधकर खड़े हो गए थे। दोनों बंदर मदारी के सामने बड़ी गंभीरता से मुँह फुलाकर बैठे हुए थे। और लगता था कि जब वे उठेंगे तो भरतनाट्यम से नीचे नहीं नाचेंगे।''

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