गॉड पार्टिकल
दुनिया के सबसे बड़े प्रयोग के दौरान हिग्स कण के संकेत मिलने के बाद नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों का मानना है कि अब नयी भौतिकी लिखने का वक्त आ गया है। इसका मतलब यह हुआ कि किताबों के उन पन्नों को हटाना होगा, जो इस नतीजे से गलत साबित होंगे। वर्ष 2004 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक डेविड जे. ग्रॉस इस पड़ाव को भौतिकी के एक युग का अंत और शुरुआत दोनों बताते हैं। उनका कहना है, ‘हम आज तक हिग्स के बारे में पता लगाने में नाकाम रहे थे, लेकिन आखिरकार करीब 30 साल की मेहनत के बाद हमारी कोशिश पूरी हो गई दिखती है। इसे लेकर जो उम्मीदें बनी थीं, वे अब साकार हो गई हैं। हम कह सकते हैं कि एक युग पूरा हुआ, लेकिन यह एक शुरुआत भी है। भौतिकशास्त्र की सीमाएं बदलने वाली हैं, नयी खिड़कियां खुलने वाली हैं। नयी गणनाएं सामने आने वाली हैं। यह नयी फिजिक्स के स्वागत का समय है। हमें तय करना होगा कि किन थ्योरियों को फेंक दिया जाए और कौन-सी नई चीजों को शामिल किया जाए।’
अमेरिकी विज्ञानी और 1988 में नोबेल पुरस्कार जीत चुके लियोन लेडरमन ने 1990 के दशक में हिग्स कण पर किताब लिखी थी। उनका कहना है कि उन्होंने हिग्स बोसोन को गॉड्स पार्टिकल कहा, क्योंकि यह भौतिकी की बुनियाद से जुड़ा तत्व है और फिर भी विज्ञान की पहुंच से बाहर है। हालांकि उन्होंने मजाकिया लहजे में यह भी कहा कि वह इसका नाम ‘गॉडडैम पार्टिकल’ रखना चाहते थे, लेकिन प्रकाशक इस नाम से किताब छापने को तैयार नहीं थे।
कई बार वैज्ञानिक चीजों को समझाने के लिए मुहावरों का, रूपक या उपमाओं का इस्तेमाल करते हैं। ठीक ऐसा ही इस नाम के साथ हुआ। दूसरी बात यह है कि जिस हिग्स बोसोन कण की हम बात कर रहे हैं, इसमें हिग्स का नाम तो पीटर हिग्स से है, लेकिन जो बोसोन है वो भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर है, पर इसकी चर्चा न के बराबर ही हो रही है।
दिलचस्प बात तो यह है कि प्रोफेसर हिग्स नास्तिक हैं इसीलिए वो इस कण का नाम ईश्वर-कण पुकारे जाने का विरोध करते हैं। अगर हम दुनिया बनाने वाले की कल्पना करते भी हैं तो यह महत्वपूर्ण जरूर है, लेकिन यह मात्र एक कण है और सिर्फ इसी ने दुनिया नहीं बनाई। दुनिया प्राकृतिक नियम और सिद्धांतों से चलती है, ये नियम या सिद्धांत मनुष्य ने नहीं बनाए। विज्ञान तो मात्र इन नियमों या फिर इन सिद्धांतों की व्याख्या करने का काम करता है।
हालांकि अभी हमारे पास सिर्फ शुरुआती नतीजे हैं और हमें दावे के साथ नहीं कहना चाहिए कि यह वाकई हिग्स कण ही हैं। वैज्ञानिकों का भी कहना है कि इन गणनाओं को पूरा करने में कम से कम तीन महीने लगेंगे। ऐसा लगता है कि भौतिकशास्त्र की बुनियादी चीजों का पता लग गया है और अब प्रकृति को ही तय करना है कि आगे क्या होगा।
विज्ञान जगत लगभग एक दशक तक इस कण पर बहस करता रहा है और आखिरकार 30-40 साल पहले इस कण को खोजने की पहल हुई। सर्न की महाप्रयोगशाला में जब इस महाप्रयोग की शुरुआत हुई, तो पूरी दुनिया में हाहाकार मचा कि इसकी वजह से ब्लैक होल बनेगा और दुनिया खत्म हो जाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि इससे दुनिया के बनने की वजह पता लगती दिख रही है। इस पूरे प्रयोग के दौरान भारतीय विज्ञानी सत्येंद्रनाथ बोस के अलावा पाकिस्तान के अब्दुस सलाम का नाम भी हिग्स बोसोन के प्रयोग में बेहद अहम है। पाकिस्तान के लिए विज्ञान का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले सलाम ने 1960 के दशक में ही तय कर दिया था कि प्रोटोन को तोड़ा जा सकता है, जिसमें हिग्स कण का जिक्र था।
नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्रियों का कहना है कि सर्न का यह प्रयोग बेहद एहतियात के साथ पूरा किया गया है और इस बात में कोई शक नहीं कि उन्होंने सभी गणनाओं को बेहद बारीकी के साथ पूरा किया है। प्रयोग में लार्ज हेड्रन कोलाइडर में दो प्रयोग एक साथ चल रहे थे और इसमें 10,000 से ज्यादा विज्ञानी लगे थे। दोनों के नतीजे लगभग मिलते-जुलते आए हैं।
दरअसल, हिग्स कण का सिद्धांत 1964 में एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रोफेसर पीटर हिग्स ने दिया था। अपने पांच सहयोगियों के साथ उन्होंने यह दावा किया था। प्रोफेसर पीटर हिग्स ने तब कहा था कि एक दिन विज्ञान हिग्स तत्वों की खोज तक पहुंच जाएगा। इस नयी खोज के साथ कुछ पुराने दावों पर भी निगाह पड़ रही है। वैज्ञानिक यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस नए कण को हिग्स बोसोन ही कहा जाए या नहीं। या फिर इसे हिग्स का ही एक रूप या फिर एक नया ही कण कहा जाए। अगर इसे नया कण माना गया तो हर चीज के बुनियादी ढांचे को लेकर बनाए गए वैज्ञानिक सिद्धांत गड़बड़ा सकते हैं।
वैसे इस सदी की सबसे बड़ी खोज को नोबेल पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए। लेकिन नोबेल जीत चुके विज्ञानियों का कहना है कि फिलहाल सब्र की जरूरत है। प्रयोग के नतीजे ही शुरुआती दौर में हैं और अभी इसकी गणना की जानी बाकी है, उसके अलावा कुछ तकनीकी पहलू भी हैं।
यह एक ऐसा कण है जिसके बारे में वैज्ञानिक सिद्धांत रूप में तो जानते हैं और यह मानते हैं कि इसी की वजह से कणों का द्रव्यमान होता है। सर्न परियोजना में कार्यरत अकेली भारतीय महिला वैज्ञानिक अर्चना शर्मा से जब बीबीसी ने पूछा कि आखिर इस प्रयोग की जरूरत क्या थी, तो उन्होंने कहा, ‘हम विज्ञान के कगार पर हैं और अब आगे बढऩा चाहते हैं, ब्रह्मांड को समझना चाहते हैं।’ वे कहती हैं कि इस प्रयोग से कई और नयी जानकारियां निकलकर सामने आएंगी।
इस लार्ज हैड्रन कोलाइड की परिकल्पना 1980 में की गई थी और वर्ष 1996 में इस परियोजना को मंजूरी मिली। शुरुआती अनुमान 2.6 अरब डालर की तुलना में चार गुना अधिक पैसा लग गया।
इस परियोजना में मूल रूप से यूरोपीय संघ के 20 देश और छह गैर-सदस्य देश मिलकर काम कर रहे हैं। वैसे इस पूरे प्रयोग से कोई सौ देशों के हजारों वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इन प्रयोगों के परिणामों से क्या-क्या हासिल होगा, यह बताना कठिन है, क्योंकि बहुत से नतीजों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। (श्याम माथुर)
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