Sunday, 30 June 2013

मैक्सिम गोर्की का रचना संसार


मैक्सिम गोर्की सोवियत संघ के प्रसिद्ध लेखक तथा राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उनका असली नाम अलेक्सी मैक्सिमोविच पेश्कोव था। उन्होने समाजवादी यथार्थवाद नामक साहित्यिक विधि की स्थापना की थी। सन् १९०६ से लेकर १९१३ तक और फिर १९२१ से १९२९ तक वे रूस से बाहर रहे। सोवियत संघ में वापस आने के बाद उन्होने उस समय की सांस्कृतिक नीतियों को स्वीकार किया किन्तु उन्हें देश से बाहर जाने की स्वतंत्रता नही थी। मक्सीम गोर्की का जन्म निज़्हना नोवगोरोद नगर में हुआ था। गोर्की के पिता बढ़ई थे। 11 वर्ष की आयु से गोर्की काम करने लगे। 1884 में गोर्की का मार्क्सवादियों से परिचय हुआ। 1888 में गोर्की पहली बार गिरफ्तार किए गए थे। 1891 में गोर्की देशभ्रमण करने गए। 1892 में गोर्की की पहली कहानी "मकार चुंद्रा" प्रकाशित हुई। गोर्की की प्रारंभिक कृतियों में रोमांसवाद और यथार्थवाद का मेल दिखाई देता है। "बाज़ के बारे में गीत" (1895), "झंझा-तरंगिका के बारे में गीत" (1895) और "बुढ़िया इजेर्गील" (1901) नामक कृतियों में क्रांतिकारी भावनाएँ प्रकट हो गई थीं। दो उपन्यासों, "फोमा गोर्देयेव" (1899) और "तीनों" (1901) में गोर्की ने शहर के अमीर और गरीब लोगों के जीवन का वर्णन किया है। 1899-1900 में गोर्की का परिचय चेखव और लेव तालस्तॉय से हुआ। उसी समय से गोर्की क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने लगे। 1901 में वे फिर गिरफ्तार हुए और उन्हें कालापानी मिला। 1902 में विज्ञान अकादमी ने गोर्की को समान्य सदस्य की उपाधि दी परंतु रूसी ज़ार ने इसे रद्द कर दिया।
गोर्की ने अनेक नाटक लिखे, जैसे "सूर्य के बच्चे" (1905), "बर्बर" (1905), "तह में" (1902) आदि, जो बुर्जुआ विचारधारा के विरुद्ध थे। गोर्की के सहयोग से "नया जीवन" बोल्शेविक समाचारपत्र का प्रकाशन हो रहा था। 1905 में गोर्की पहली बार लेनिन से मिले। 1906 में गोर्की विदेश गए, वहीं इन्होंने "अमरीका में" नामक एक कृति लिखी, जिसमें अमरीकी बुर्जुआ संस्कृति के पतन का व्यंगात्मक चित्र दिया गया था। नाटक "शत्रु" (1906) और "मां" उपन्यास में (1906) गोर्की ने बुर्जुआ लोगों और मजदूरों के संघर्ष का वणर्न किया है। यह है विश्वसाहित्य में पहली बार इस प्रकार और इस विषय का उदाहरण। इन रचनाओं में गोर्की ने पहली बार क्रांतिकारी मजदूर का चित्र दिया। लेनिन ने इन कृतियों की प्रशंसा की। 1905 की क्रांति के पराजय के बाद गोर्की ने एक लघु उपन्यास - "पापों की स्वीकृति" ("इस्पावेद") लिखा, जिसमें कई अध्यात्मवादी भूलें थीं, जिनके लिये लेनिन ने इसकी सख्त आलोचना की। "आखिरी लोग" और "गैरजरूरी आदमी की जिंदगी" (1911) में सामाजिक कुरीतियों की आलोचना है। "मौजी आदमी" नाटक में (1910) बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का व्यंगात्मक वर्णन है। इन वर्षों में गोर्की ने बोल्शेविक समाचारपत्रों "ज़्वेज़्दा" और "प्रवदा" के लिये अनेक लेख भी लिखे। 1911-13 में गोर्की ने "इटली की कहानियाँ" लिखीं जिनमें आजादी, मनुष्य, जनता और परिश्रम की प्रशंसा की गई थी। 1912-16 में "रूस में" कहानीसंग्रह प्रकाशित हुआ था जिसमें तत्कालीन रूसी मेहनतकशों की मुश्किल जिंदगी का प्रतिबिंब मिलता है।
"मेरा बचपन" (1912-13), "लोगों के बीच" (1914) और "मेरे विश्वविद्यालय" (1923) उपन्यासों में गोर्की ने अपनी जीवनी प्रकट की। 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद गोर्की बड़े पैमाने पर सामाजिक कार्य कर रहे थे। इन्होंने "विश्वसाहित्य" प्रकाशनगृह की स्थापना की। 1921 में बीमारी के कारण गोर्की इलाज के लिये विदेश गए। 1924 से वे इटली में रहे। "अर्तमोनोव के कारखाने" उपन्यास में (1925) गोर्की ने रूसी पूँजीपतियों और मजदूरों की तीन पीढ़ियों की कहानी प्रस्तुत की। 1931 में गोर्गी स्वदेश लौट आए। इन्होंने अनेक पत्रिकाओं और पुस्तकों का संपादन किया। "सच्चे मनुष्यों की जीवनी" और "कवि का पुस्तकालय" नामक पुस्तकमालाओं को इन्होंने प्रोत्साहन दिया। "येगोर बुलिचेव आदि" (1932) और "दोस्तिगायेव आदि" (1933) नाटकों में गोर्की ने रूसी पूँजीपतियों के विनाश के अनिवार्य कारणों का वर्णन किया। गोर्की की अंतिम कृति- "क्लिम समगीन की जीवनी" (1925-1936) अपूर्ण है। इसमें 1880-1917 के रूस के वातावरण का विस्तारपूर्ण चित्रण किया गया है। गोर्की सोवियत लेखकसंघ के सभापति थे। गोर्की की समाधि मास्को के क्रेमलिन के समीप है। मास्को में गोर्की संग्रहालय की स्थापना की गई थी। निज़्हनीय नावगोरोद नगर को "गोर्की" नाम दिया गया था। गोर्की की कृतियों से सोवियत संघ और सारे संसार के प्रगतिशील साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। गोर्की की अनेक कृतियाँ भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। महान् हिंदी लेखक प्रेमचंद गोर्की के उपासक थे।
असमर्थ युग के समर्थ लेखक के रूप में मैक्सिम गोर्की को जितना सम्मान, कीर्ति और प्रसिद्धि मिली, उतनी शायद ही किसी अन्य लेखक को अपने जीवन में मिली होगी। वे क्रांतिदृष्टा और युगदृष्टा साहित्यकार थे। जन्म के समय अपनी पहली चीख के बारे में स्वयं गोर्की ने लिखा है- 'मुझे पूरा यकीन है कि वह घृणा और विरोध की चीख रही होगी।'
इस पहली चीख की घटना १८६८ ई. की 28 मार्च की 2 बजे रात की है लेकिन घृणा और विरोध की यह चीख आज इतने वर्ष बाद भी सुनाई दे रही है। यह आज का कड़वा सच है और गोर्की का शाब्दिक अर्थ और कड़वा है। नोजनी नोवगोद ही नहीं विश्व का प्रत्येक नगर उनकी उस चीख से अवगत हो गया है।
अल्योशा मैक्सिम मेविच पेशकोफ मैक्सिम गोर्की पीड़ा और संघर्ष की विरासत लेकर पैदा हुए। उनके पिता लकड़ी के संदूक बनाया करते थे और माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल विवाह किया था, किंतु मैक्सिम गोर्की सात वर्ष की आयु में अनाथ हो गए। उनकी 'शैलकश' और अन्य कृतियों में वोल्गा का जो संजीव चित्रण है, उसका कारण यही है कि माँ की ममता की लहरों से वंचित गोर्की वोल्गा की लहरों पर ही बचपन से संरक्षणप्राप्त करते रहे।
साम्यवाद एवं आदर्शोन्मुख यथार्थभाव के प्रस्तोता मैक्सिम गोर्की त्याग, साहस एवं सृजन क्षमता के जीवंत प्रतीक थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि व्यक्ति को उसकी उत्पादन क्षमता के अनुसार जीविकोपार्जन के लिए श्रम का अवसर दिया जाना चाहिए एवं उसकी पारिवारिक समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वेतन या वस्तुएँ मिलना चाहिए। कालांतर में यही तथ्य समाजवाद का सिद्धांत बन गया। गोर्की का विश्वास वर्गहीन समाज में था एवं इस उद्देश्य- पूर्ति के लिए वे रक्तमयी क्रांति को भी उचित समझते थे।
उनकी रचनाएँ, यथार्थवादी संदेश केवल रूस तक ही सीमित नहीं रहे। उनके सृजनकाल में ही उनकी कृतियाँ विश्वभर में लोकप्रिय होना प्रारंभ हो गईं। भारत वर्ष में तो 1932 से ही उनकी रचनाओं ने स्वातंत्र्य संग्राम में पहली भूमिका संपादित की। उनकी रचनाओं के कथानक के साथ-साथ वह शाश्वत युगबोध भी है, जो इन दिनों भारत की राजनीतिक एवं साहित्यिक परिस्थिति में प्रभावशील एवं प्रगतिशील युगांतर उपस्थित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
उनका क्रांतिकारी उपन्यास 'माँ' जिसे ब्रिटिश भारत में पढ़ना अपराध था, यथार्थवादी आंदोलन का सजीव घोषणा-पत्र है। माँ का नायक है पावेल ब्लासेव, जो एक साधारण और दरिद्र मिल मजदूर है। पात्र के चरित्र में सबलताएँ और दुर्बलताएँ, अच्छाइयाँ और बुराई, कमजोरियाँ सभी कुछ हैं। यही कारण है कि पावेल ब्लासेव का चरित्र हमें बहुत गहरे तक छू जाता है। गोर्की ने अपने जीवन चरित्रके माध्यम से तत्कालीन संघर्षों एवं कठिनाइयों का समर्थ छवि अंकन किया है। मेरा बचपन इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है। अपने अंतिम वृहद उपन्यास 'द लाइफ ऑफ क्लीम सामगिन' में लेखक ने पूँजीवाद, उसके उत्थान और पतन का लेखा प्रस्तुत किया है और इस प्रणाली के विकासका नाम दिया है, जिसके कारण रूस का प्रथम समाजवादी राज्य स्थापित हुआ। लेखक ने इस उपन्यास को 1927 में प्रारंभ किया और 1936 में समाप्त किया। गोर्की ने अपने देश और विश्व की जनता को फासिज्म की असलियत से परिचित कराया था, इसलिए ट्रांटकी बुखारिन के फासिस्ट दलों ने एक हत्यारे डॉक्टर लेविल की सहायता से 18 जून 1936 को उन्हें जहर देकर मार डाला। गोर्की आज हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके आदर्श हमारे बीच जीवित हैं। मानववाद के सजीव प्रतिमान, क्रांतिदृष्टा, कथाकार और युगदृष्टा विचारक के रूप में मैक्सिम गोर्की आने वाली कई पीढ़ियों तक स्मरण किए जाते रहेंगे।

मुझे नहीं मालूम आज कितने
पाठक ‘माँ’ पढ़ते हैं : विष्णु खरे
मक्सिम गोर्की की कालजयी कृति ‘माँ’ को मैंने पहली बार आधी सदी पहले पढ़ा था. मुझे अब यह याद नहीं है कि उसका हिंदी अनुवाद किसने किया था लेकिन उसकी पठनीयता मुझे अब भी चमत्कृत करती है. यह शायद पहला उपन्यास था जिसमें एक युवक नायक तो था किंतु उसकी नायिका दरअसल इस युवक पावेल की विधवा माँ पेलागेइया निलोव्ना व्लासोबा थी जो पहले तो अपने निकम्मे बेटे से निराश थी और ईश्वर और ईसाइयत में आस्था रखती थी. लेकिन जब पावेल गुंडागर्दी छोड़कर कम्युनिस्ट बन जाता है तब उसकी यह माँ भी धीरे-धीरे अपने बेटे की राजनीतिक आस्था और उसकी ख़तरनाक गुप्त, क्रांतिकारी गतिविधियों में विश्वास करने लगती है. अनुवाद में भी गोर्की की भाषा अदभुत है.  गोर्की की ‘माँ’ मुझे हमेशा भारत की लाखों-करोड़ों माँएं लगी है और कहीं यह भारत और रूस के संस्कृति-साम्य की ओर भी संकेत करता है. एक भोली-भाली घरेलू वृद्धा का इस तरह महान रूसी क्रांति की विराट प्रक्रिया में शामिल हो जाना एक रोमांचक, प्रेरक कथानक है. ‘माँ’ गोर्की की कल्पना का अविष्कार नहीं थी-वे अन्ना ज़ातोमोवा नामक एक औरत को जानते थे जो अपने क्रांतिकारी बेटे की गिरफ़्तारी के बाद सारे रूस में बग़ावत के पर्चे बाँटती घूमती थी. निस्संदेह गोर्की ने अपने बचपन और कैशोर्य के अनुभवों का भी ‘माँ’ में इस्तेमाल किया है. मैं रूसी नहीं जानता लेकिन बाद में मैंने ‘माँ’ का अंग़्रेजी अनुवाद भी पढ़ा किंतु हिंदी अनुवाद ने जो गहरा प्रभाव मुझपर छोड़ा वह अमिट है. एक रचना में तो मैंने बाकायदा ‘माँ’ का उल्लेख किया है. यदि आज भी साम्यवाद में मेरी आस्था है तो उसके पीछे गोर्की की कई रचनाएं और विशेषतः ‘माँ’ का योगदान है. सच तो यह है कि पहली बार ‘माँ’ की अंतिम पंक्तियाँ पढ़कर मैंने रो दिया था और आज भी इस अमर माँ के अंतिम शब्द मुझे उसी तरह विचलित करते हैं.यह सच है कि अब पावेल और व्लासोवा जैसे पात्र वास्तविक जीवन में नहीं हैं और सामाजिक परिस्थितियाँ भी बहुत बदली हैं लेकिन मानव संघर्ष का अंत अब भी नहीं हुआ है. हॉवर्ड फ़ास्ट आजीवन ‘माँ’ के भक्त रहे और स्वयं लेनिन ने इसे ‘बहुत ज़रूरी’ और ‘बहुत मौज़ूँ’ किताब कहा था. मुझे नहीं मालूम आज कितने पाठक ‘माँ’ पढ़ते हैं किंतु यह अकारण नहीं है कि ‘आर्तामोनोफ़’, ‘मेरे विश्वविद्यालय’ और विशेषतः ‘माँ’ को विश्व-संहिता में कालजयी कृति का दर्ज़ा दिया जाता है. मेरे लिए तो वह वैसी ही है.

वह कभी न भूलने वाली ‘मां’
मनोज कुमार
साहित्यिक जगत में जब भी ‘मां’ शब्द का जिक्र होता है, तो सबसे पहले ध्यान आता है- महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के कालजयी उपन्यास ‘मां’ का. ‘मां’, एक ऐसा उपन्यास, जिसने रूस की एक पूरी पीढ़ी के असंतोष तथा आकांक्षाओं को न सिर्फ बयां किया, बल्कि जिसने उन्हें लड़ने और दुनिया को बदलने की प्रेरणा भी दी. इस उपन्यास में दर्ज मां के चरित्र से रूबरू कराता आलेख.
मक्सिम गोर्की रूसी क्रांति के महानतम प्रवक्ताओं में से हैं. गोर्की के लेखन में मानवता करवट लेती दिखाई देती है. इतिहास बदलता हुआ दिखाई देता है. उपेक्षित शोषित मजदूर उनके उपन्यासों , कहानियों एवं नाटकों के पात्र बन जाते हैं. बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्ष कई क्रांतियों और तीखे संघर्षो के वर्ष थे.
कारखानों में काम करने वाला मजदूर वर्ग समाजवादी क्रांति के लिए काम करने वाला दस्ता बन चुका था. मैक्सिम गोर्की ने इसी पृष्ठभूमि में ‘मां’ उपन्यास की रचना की. यह उपन्यास 1907 में प्रकाशित हुआ था. ‘मां’ उन महानतम उपन्यासों में शामिल है, जिसने कई पीढ़ियों को मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन से परिचित कराया. इसे पढ़ कर न जाने कितने लोग समाजवादी आंदोलन में शामिल हुए.
मां का रिश्ता दुनिया का सबसे भावनात्मक रिश्ता है. हर समाज, हर संस्कृति में इसका महत्व है. गोर्की अपने उपन्यास में इस मानवीय रिश्ते को और गहराई एवं सार्थकता प्रदान करते हैं. ‘मां’ के चरित्र को सामाजिक एवं राजनीतिक आधार देकर. लेखक के अनुसार उपन्यास की घटनाएं 1902 के मजदूर आंदोलन एवं सोर्मोवो पार्टी संगठन की गतिविधियों पर आधारित है. उनके मूल पात्रों के प्रेरणा स्नेत जालोमोव एवं उनकी मां हैं. इन पात्रों को उन्होंने नयी और नाटकीय परिस्थितियों में डाल कर कहानी को विस्तार दिया है. ‘मां’ उपन्यास का मूल नायक पावेल है. पेलागेला निलोवना उसकी मां है. दरअसल, पेलागेला उन सबकी मां है जो सामान्य मानवता , प्रेम एवं सम्मान में यकीन करते हैं. मजदूरों के समाजवाद में यकीन करते हैं. ‘मां’ पेलागेला निलोवना एक सामान्य मजदूर मिखाइल ब्लासोव की पत्नी है. बेहद सामान्य स्त्री. वह अपने पति द्वारा पीटी जाती है, भूख, प्यास और गरीबी में जीने को विवश है. उसकी जिंदगी बस वैसे ही बसर होती है, जैसे जारशाही के दिनों में किसी भी मजदूर की पत्नी की बीता करती थी. उसकी जिंदगी में परिवर्तन तब आता है जब उसके पति की मृत्यु हो जाती है और उसका एकमात्र बेटा पावेल क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन के संपर्क में आ जाता है. मां को लगता है कि उसका बेटा और युवाओं से अलग-सा होता जा रहा है. वह शराब नहीं पीता, उसकी आंखों में गंभीरता आ गयी है और कम बोलने लगा है. मां ने ध्यान दिया-‘वह किताबें घर लाने लगा है. वह चोरी-चोरी पढ़ता है और पढ़ने के बाद किताबों को छिपा देता. कभी कभी वह किताब का कोई टुकड़ा नकल करता है और उस कागज को छिपा देता है.’ एक दिन पावेल उसे बताता है कि वह गैर कानूनी किताबें पढ़ता है. गैर कानूनी इसलिए कि उसमें मजदूरों के बारे में सच्ची बातें लिखी हैं. अगर उसके पास ये किताबें पकड़ी गयीं तो उसे जेल में डाल देंगे. धीरे-धीरे मां पावेल और उसके अन्य मजदूर आंदोलन के साथियों से परिचित होती है. वह उनकी बातों को, बहसों को ध्यान से सुनती है, उनके लिए चाय बनाती है और समोवार गरम करती है. वह उन लोगों की बातें भी सुनती है जो पावेल को गुमराह कहते हैं. उसे कोई बताता है कि एक दिन पावेल एवं उसके साथियों को पुलिस पकड़ कर ले ही जाएगी.
मगर तमाम अफवाहों एवं डर के बावजूद मां को लगता है कि बच्चे कुछ गलत नहीं कर रहे. उसकी और उसके पति कि जिंदगी तो दुख, तकलीफ, अभाव ङोलते बीत गयी पर ये बच्चे अपनी जिंदगी को बदल कर मानेंगे. पावेल को जेल हो जाने के बाद मां अकेली रह जाती है. अब वह एक फर्क महसूस करती है. जब पावेल और उसके साथी धार्मिक विचारों एवं विश्वासों की आलोचना करते थे, तो उसे गुस्सा आता था. वह असहाय महसूस करने लगती थी. लेकिन अब उसका चर्च जाने का दिल नहीं होता. अब वह महसूस करती है कि ‘तब मैं अपने दिल की बातें उससे खुलकर नहीं कह सकती थी. पर अब मैं हमेशा सबसे दिल खोलकर बात कहती हूं. ऐसी बातें कर जाती हूं, जिनकी मैं पहले स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकती थी. मां का घरेलू दब्बू व्यक्तित्व धीरे-धीरे खुलकर, मजबूत होकर सामने आता है. वह दुनियाभर के आंदोलनकारियों की मां, उनकी प्रेरणास्नेत बन जाती है. मां के इस चरित्र का सबसे उज्ज्वल पक्ष उपन्यास के अंत में सामने आता है. पावेल को सदा के लिए साइबेरिया निर्वासित किया जाने वाला है. पावेल के विचारों को पर्चे की शक्ल में मजदूरों के बीच बांटने के लिए कोई नहीं है. साथी या तो जेल में हैं या पुलिस की कड़ी निगरानी में. ऐसे में मां यह जिम्मा उठाती है. उसे कोई राजनीतिक अनुभव नहीं. उसने कभी किसी राजनीतिक मुहिम में हिस्सेदारी नहीं की है. पर उसे विश्वास है कि वह किसी तरह इस काम को पूरा कर ही लेगी. वह स्टेशन पर है. हाथों में पर्चो से भरा सूटकेस. पुलिस की नजर उस पर पड़ जाती है. डरी हुई वह एक बार सोचती है कि सूटकेस छोड़ के भाग जाये. लेकिन ठीक उसी पल दूसरा विचार उसकी सोच पर हावी होता है -क्या? अपने बेटे के शब्दों को इस तरह छोड़ जाऊं? उन्हें ऐसे हाथों में सौंप जाऊं? पुलिस के जासूस द्वारा तमाचे मारे जाने और धक्का दिए जाने से सूटकेस खुल जाता है.
वह वहीं पर्चा बांटना शुरू कर देती है. सुनो! सुनो! सब लोग सुनो! उसने चिल्लाकर कहा और पर्चे की एक गड्डी अपने सिर के ऊपर हिलाने लगी. वह देखती है कि लोग पर्चे लेते हैं और जेबों में छुपा लेते हैं. उसे जोश आता है और वह गरीबी, बदहाली पर भाषण देने लगती है. पुलिस मां को बेरहमी से पीट रही है. पर वह लोगों को संबोधित करना जारी रखती है-‘हमारी जिंदगी एक लंबी अंधेरी रात की तरह है..किसी बात से डरना नहीं! तुम्हारी जिंदगी जैसी आज है उससे बदतर और क्या हो सकती है..लोगों, एक होकर जबरदस्त शक्ति बन जाओ. वह कुछ समय के लिए बेहोश हो जाती है. होश आने पर लोगों की तरह-तरह की आवाजें सुनती है. लोग पुलिसवालों से उलझ रहे हैं, मां को चोटों से बचाने के लिए. कोई कहता है वे हमारी चेतना पर तो खून नहीं उड़ेल सकते!’ इस प्रकार मां एक प्रतीक बन जाती है, अंतरराष्ट्रीय मानवतावाद का. वह क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन और अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ संघर्ष की प्रतीक बन जाती है. प्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार हावर्ड फास्ट ने मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘मां’ पर आज से करीब 65 साल पहले यादगार टिप्पणी की थी. फास्ट ने लिखा है, ‘मैंने आज से करीब 16 साल पहले मैक्सिम गोर्की का उपन्यास मां पढ़ा था. लेकिन अभी तक वह अनुभव मेरे जेहन में ताजा है. यह एक तरह से एक ऐसी वाइन के स्वाद जैसा था, जिसे मैंने आज तक कभी नहीं चखा था.
मैं किताबें किसी योजना से नहीं पढ़ता. मेरे सामने जो किताब आ जाये, मैं उसे पढ़ डालता हूं और उसके नशे में गोते लगाता रहता हूं. इसी क्रम में गोर्की की ‘मां’ मेरे हाथ लगी. यह गोर्की की कोई पहली रचना थी, जिससे मेरा साक्षात्कार हुआ था. और इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इससे पहले मैंने जो कुछ भी पढ़ा था वह इसकी तुलना में कितना सतही और बेस्वाद था. हां मैं यह बात एक लेखक के तौर पर ही कह रहा हूं. गोर्की ने मुझे किसी भी विदेशी लेखक की तुलना में कहीं गहरे तक प्रभावित किया. सबसे बड़ी बात यह है कि इसने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया. वह महान आदमी था, एक कद्दावर शख्स था, साहस, प्रेम और आशा से भरा हुआ. उसने प्रेमिकाओं, राजकुमारियों के बारे में नहीं लिखा, बल्कि उस सर्वहारा-मजदूर वर्ग के बारे में और उसके नायकों के बारे में लिखा. प्रदर्शनकारियों और शिक्षकों के बारे में लिखा, जो आज दुनिया भर के इनसानों की इच्छाओं और आशाओं के प्रतीक बन गये हैं. जैसे ही मैं मां उपन्यास पढ़ता हूं ‘रूस’ शब्द स्त्री और पुरुषों का प्रतीक बन जाता है, न कि किसी विचारधारा का. ये रूसी कामगार थे जिन्हें अक्तूबर की क्रांति करनी थी. यहां उनकी आशा थी और अकथ संघर्ष था, जो सभी इनसानों की आशा और संघर्ष का रूप ले चुका है. यहां शब्दों में बयान न होने वाली गरीबी और शर्म थी जो हर इंसान की गरीबी और शर्म थी. इस उपन्यास में पहली बार मैंने ये शब्द पढ़े- मां एक यूक्रेनी युवक से कहती है, ‘अर्मेनियाई, यहूदी, ऑस्ट्रियाई सभी तुम्हारे साथी हैं, कामरेड हैं. तुम जब बात करते हो तो सबके बारे में बात करते हो. तुम्हारा दुख सभी के लिए है, तुम सबके लिए खुश होते हो.’ इस पर जवाब आता है, हां मां सभी के लिए. यह दुनिया हमारी है. कामगारों की है. हमारे लिए कोई राष्ट्र नहीं है, कोई नस्ल नहीं है.
हमारे लिये सभी या तो साथी हैं, या दुश्मन. मां उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि इसमें मां- पेलागेला निलोवना का किरदार है. इसी किरदार के कारण हम बार-बार इस उपन्यास तक लौट कर आते हैं. इस किरदार के सहारे हम देखते हैं कि किस तरह एक साधारण शख्स धीरे-धीरे, एक -एक सीढ़ी चढ़कर न्याय के लिए लढ़ने वाला योद्धा बन जाता है. इसमें कुछ भी गोपनीय नहीं है. लेकिन गोर्की के अलावा कोई और इसे इस रूप में चित्रित नहीं कर पाया. यह बदलाव बेहद मूलभूत और मौलिक इंसानी जज्बात के सहारे आता है. इसकी शुरुआत एक मां की अपने बेटे के प्रति चिंता से होती है और धीरे-धीरे इसका प्रसार सभी इनसानों के प्रति चिंता तक हो जाता है. वह मां के रूप में अपने जज्बातों के सहारे ही न्याय की वास्तविकता तक पहुंचती है. जैसा कि 1907 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी समीक्षा में लिखा था, हम मां के साथ एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं. वह गुपचुप तरीके से क्रांति के पर्चे बांटती है और इस तरह से लोगों में सत्य की आंच जगाती है और उनकी आकांक्षाओं को आलोड़ित करती है. और पूरी एक पीढ़ी के बाद इस किताब को पढ़ते हुए यह सच्चई किसी तरह से कम रोशन नहीं हुई है. अगर कुछ अपने आकार और महत्व में बढ़ता है, तो वह है इंसानों की आशाओं और क्षमताओं का लाजवाब दस्तावेजीकरण. मैक्सिम गोर्की ने मां को नयी अर्थवत्ता दी है- सत्य और न्याय के रूप में. गोर्की ने लिखा है-वास्तव में ही तुम लोग साथी हो,सब एक खून के रिश्ते से बंधे हो,सब एक ही मां की संतान हो और वह मां है सत्य!

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