Sunday, 30 June 2013

सभ्यताओं के संघर्ष का क्लासिक उपन्यास


नाइजीरिया के लेखक चिनुआ अचीबी के मूलतः अंग्रेजी में लिखे गए उपन्यास ‘थिंग्स फाल अपार्ट’ के बारे में कहा जाता है कि उसने अफ्रीका के बारे में पश्चिमी समाज के नजरिये को सिर के बल खड़ा कर दिया. कहा जाता है कि जिस तरह से अफ्रीकी समाज की कथा इस उपन्यास में आई है इससे पहले कभी कही नहीं गई थी. जिस तरह गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालिटयुड’ के प्रकाशन के बाद लैटिन अमेरिकी समाज के बारे में लोगों की धारणा बदल गई उसी तरह का काम इस उपन्यास ने अफ़्रीकी समाज के बारे में किया. लोककथाओं की शैली में लिखे गए लोकविश्वासों के इस पाठ को जादुई यथार्थवाद का अफ़्रीकी संस्करण कहा जा सकता है. १९५८ में प्रकाशित इस उपन्यास के अब तक ४० भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं. अब ‘चीज़ें बिखरती हैं’ नाम से उसका हिंदी अनुवाद हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है. १८९० के दशक में अवस्थित इस उपन्यास की कहानी में उमुओफिया नामक गांव के जीवन के दो स्तर हैं- ईसाइयत के साथ आई पश्चिमी आधुनिकता और तथाकथित सभ्यता के आगमन के पहले और बाद का जीवन. उमुओफिया मार्केज़ के उपन्यास वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालिटयुड के मकोंदो नामक कस्बे में समानता देखी जा सकती है. उसमें कथा के दो स्तर हैं तथा इसी तरह परम्परा बनाम आधुनिकता, लोक विश्वासों के बरक्स तथाकथित पश्चिमी सभ्यता के कथासूत्र हैं. उसी की तरह ‘थिंग्स फाल अपार्ट’ को भी जातीय उपन्यास कहा जा सकता है. तर्काधारित आधुनिकता ने पारंपरिक समाजों को जो शिक्षा दी उसने उनको अपनी सभ्यता से शर्म करना सिखाया, यह सिखाया कि जो भी पश्चिमी ढंग की शिक्षा से महरूम है वह पिछड़ा है. लेकिन यह उपन्यास न केवल पश्चिमीकरण के छल की कथा कहता है बल्कि अपनी परम्पराओं पर गर्व करना भी सिखाता है.
कहानी ओकोनक्वो नामक एक पहलवान के कारनामों के इर्द-गिर्द घूमती है जो उमुओफिया के नौ गांवों में सबसे बड़ा पहलवान है. उसका पिता उनोका पुरखों की इस बात से तो वाकिफ था कि सूरज उन पर पहले चमकेगा जो खड़े होते हैं और उन पर बाद में जिन्होंने सीधे खड़े लोगों के नीचे घुटने टेक रखे होते हैं. लेकिन जब वह मरा तब तक न तो वह कोई पदवी धारण कर पाया था और बुरी तरह क़र्ज़ में डूबा हुआ था. ओकोनक्वो अपने नाकाम पिता से शर्मिन्दा तो था ही लेकिन अपने पुरखों की कहावत को न केवल अच्छी तरह जानता था बल्कि अपने कसबे की रवायत से भी अच्छी तरह वाकिफ था. उसकी खुशकिस्मती थी कि वहाँ आदमी को उसकी योग्यता के बल पर आंका जाता था उसके बाप की योग्यता के बल पर नहीं. उसने आसपास के नौ गांवों में सबसे बड़े पहलवान के रूप में ख्याति पाई, दो-दो पदवियां हासिल कीं, एक संपन्न किसान के रूप में प्रतिष्ठा पाई. कम उम्र में ही उसकी गिनती कबीले के महानतम लोगों में की जाने लगी. उसके किस्से सुने-सुनाये जाने लगे.
लेकिन इसी बीच असावधानीवश उससे हत्या हो जाती है और उसे ७ सालों के निर्वासन की सज़ा दी जाती है. इन्हीं सात सालों में वहाँ की दुनिया बदल जाती है. वहाँ इसाई आ जाते हैं, गिरजे बनाकर वे वहाँ के लोगों को सभ्य बनाने के काम में लग जाते हैं. उनके साथ सरकार आ जाती है जो वहाँ के कबीलों में न्याय का राज स्थापित करने लगती है. कबीलों की परम्पराओं के प्रति वहाँ के लोगों में संदेह का भाव भरने लगती है. कबीले के लोगों में उसको लेकर बड़ा रोष पैदा हो जाता है. लौटने पर ओकोनक्वो पूछता है- ‘क्या गोरा आदमी ज़मीन के बारे में हमारे रिवाज़ जानता है?’ जवाब मिलता है- ‘कैसे जान सकता है जब वह हमारी भाषा भी नहीं बोलता? लेकिन वह कहता है हमारे रिवाज़ खराब हैं, और हमारे अपने भाई भी, जिन्होंने उसका धर्म अपना लिया, यही कहते हैं कि हमारे रिवाज़ बुरे हैं.’ उपन्यास की कथा में परम्परा और आधुनिकता के इसी द्वंद्व के बीच कथा बुनी गई है, जो एक तरह से नाइजीरियाई समाज के रूपांतरण की कथा भी लगने लगती है, उसके बहाने पूरे अफ़्रीकी समाज के रूपांतरण की. किस तरह पश्चिमी सभ्यता ने वहाँ बांटो और राज करो की नीति अपनाते हुए समाज की अविछिन्नता को खंड-खंड कर दिया. उसके आत्मविश्वास को तोड़ कर रख दिया.
किस्सागोई के अंदाज़ में लेखक ने इस साभ्यातिक उपन्यास की कथा कही है. अकारण नहीं है कि चिनुआ अचीबी को आधुनिक अफ़्रीकी लेखन का पिता कहा जाता है. हिंदी में इस उपन्यास का प्रकाशन स्वागतयोग्य कहा जा सकता है. इसका अनुवाद करना बहुत मुश्किल काम था, जिसे अनुवादक नीलाभ ने सरल बनाने का प्रयास किया है. हालांकि कहीं-कहीं अनुवाद अर्थहीन लगने लगता है. इतना तो सच है ही कि उपन्यास हिंदी में उतना पठनीय नहीं बन पड़ा है जितना कि वह अंग्रेजी में है. लेकिन कथा संप्रेषित हो जाती है और उपन्यास के निहितार्थ भी. यही इस अनुवाद की सफलता कही जा सकती है और सार्थकता भी.
हालांकि कुछ भूलें ऐसी हैं जो खटकती हैं. जैसे १९५८ में प्रकाशित इस उपन्यास के हिंदी परिचय में इसे १९५९ का बताया गया है. इसी तरह प्रूफ की जहाँ-तहां गलतियाँ खटकती हैं. एक सलाह अनुवादक नीलाभ के लिए भी. अनुवाद हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुरूप हो तभी पाठकों को उसका आस्वाद मिल पाता है. बहरहाल, ‘चीज़ें बिखरती हैं’ का ऐतिहासिक महत्व तो है ही. (www.jankipul.com/प्रभात रंजन से साभार)

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