Tuesday, 11 February 2014

विजय किशोर मानव

हँसने के दिन झरने लगे,
देह में तपन भरने लगे।
बैराए पाँव, नाव के गदराए स्वर बहाव के
उड़ते को मन करने लगे।
साँसों में यादें बाँधे, जाने क्या लादे काँधे
सपनों में रंग भरने लगे।

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