Tuesday, 11 February 2014

बाबू आन्हर माई आन्हर / कैलाश गौतम


बाबू आन्हर माई आन्हर, हमै छोड़ सब भाई आन्हर
के-के, के-के दिया देखाई, बिजुली अस भौजाई आन्हर।

हमरे घर क हाल न पूछा, भूत प्रेत बैताल न पूछा
जब से नेंय दियाइल तब से निकल रहल कंकाल न पूँछा
ओझा सोखा मुल्ला पीर केकर-केकर देईं नजीर
जंतर-मन्तर टोना-टोटका पूजा पाठ दवाई आन्हर।

जे आवै ते लूटै खाय, परचल घोड़ भुसवले जाय
हँस-हँस बोलै ठोंकै पीठ, सौ-सौ पाठ पढ़वले जाय
केहू ओन‍इस केहू बीस, जोरै हाथ निपोरै खीस
रोज-रोज मुर्गा तोरत हौ, क‍इसे कहीं बिलाई आन्हर।

इनकर किरिया उनकर बात, सोच-सोच के काटीं रात
के केतनी पानी में ह‍उवै, मालुम हौ सब कर औकात
फूटल जइसे करम हमार, ओरहन सुन-सुन दुखै कपार
आपन तेल निहारत नाँही, दिया कहे पुरवाई आन्हर।

पूत जनमलैं लोलक लईया, बोवैं धान पछोरैं पा‍इया
घर-घर चूल्हा अलग करवलीं, कुल गुनवां क पाखर अ‍इया
कुछ अइसन कुन्डली बनल हौ, रस्ता रस्ता कुआँ खनल हौ
न‍इहर ग‍इल रहल मेहरारू, ले आइल महंगाई आन्हर।

हाहाकार हौ चारों ओरी, पूरुब आग त पच्छिव चोरी
ओकरे कैसे कवर घोटाई, जेकर अहरा कुकुर अगोरी
दूध क माछी नाक क बार, दूनो देखली ए सरकार
एक आँख क कवन निहोरा, जहाँ तीन चौथाई आन्हर।

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