Tuesday, 11 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी

मैंने जब भी किसी को चाहा तो तौहीन हुई।
दूरियां बढ़ती गईं, टीस मुतमईन हुई।

चांद निकला भी, बार फूल बरसा किये
खो गये शब्द मगर, बात बस दो-तीन हुई।

एक खत उनका मिला, एक मैं भी लिख डाला
एक, बस एक वारदात वह संगीन हुई।

सुबहोशाम, रातोदिन उधर को जब भी गया
मैं ही क्यों, हर दरोदीवार तक गमगीन हुई।

सोचता हूं कि खुशी अब न कभी ऐसी मिले
लोग कहने लगें कि गलती बेहतरीन हुई।


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