Tuesday, 11 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी




आधे मन में वोट है, आधे मन में चोर।
कुर्सी-कुर्सी रट रहे सारे कुर्सीखोर।

निकल पड़े हैं लूटने जनता को, बदकार,
चारो ओर चुनाव का मौसम पॉकेटमार।

अपनी-अपनी गा रहे, बाकी सबको छोड़,
हम-सबको समझा रहे बहुरूपिये, छिछोड़।

जम्हूरियत का हो गया कैसा बंटाढार,
ठग, बटमार, बहेलिये लगा रहे दरबार।

सबको हूल पढ़ा रहे कर देंगे कल्याण,
उनके सुर में गा रहे भांति-भांति के भांड़।

लोकतंत्र के घाट पर भइ चोरों की भीर,
महाचोर चंदन घिसैं, तिलक करैं धनवीर।

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