Tuesday, 11 February 2014

हरीश निगम

सुख अंजुरि-भर, दुख नदी-भर
जी रहे दिन-रात सीकर!

ढही भीती, उड़ी छानी
मेह सूखे, आँख पानी
फड़फड़ाते मोर-तीतर!

हैं हवा के होंठ दरके
फटे रिश्तेगाँव-घर के
एक मरुथल उगा भीतर!

आक हो-आए करौंदे
आस के टूटे घरौंदे
घेरकर बैठे शनीचर!




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