Tuesday, 11 February 2014

सुधांशु उपाध्याय

आओ छत पर पानी छिड़कें,  दरी बिछा कर बैठें,
चाँद झर रहा और चाँद से पीठ सटा कर बैठें।

छोटे-छोटे पल भी दुनिया बड़ी बनाते हैं
वैसे तो हालात हमें बस घड़ी बनाते हैं
कुछ पत्तों का हिलना देखें चेहरों पर
चाँदनी मलें और बल्ब बुझा कर बैठें।

बहुत पास से ट्रेन गुज़रती हाथ हिलाती है
भूले-छूटे रिश्तों को वह याद दिलाती है
किसी जगह का सपना देखें पुल का धीमें
कंपना देखें, इस छत को ही नदी
समझ लें, नदी जगा कर बैठें।

खिड़की का वह हिलता परदा राज़ बताता है
कैसे घर के भीतर कोई आग छिपाता है
देखें थोड़ा पार घरों के खोल तोड़ते हुए डरों के
चाँदी के ये फूल उड़ रहे फूल सजाकर बैठें।



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