सोपान जोशी
युद्ध की हिंसा से तो जोसेफ बच गए पर अपनी अंतरआत्मा से नहीं। उन्हें ये मंजूर नहीं था कि उनकी कमाई से वसूले कर का इस्तेमाल अमेरिकी सरकार युद्ध के लिए करे। उन्होंने गरीबी में रहने का प्रण लिया ताकि उन्हें सरकार को कर चुकाना ही न पड़े। सिर पर स्लेट पत्थर की छत और पांव के नीचे अपने ही मल-मूत्र से बनी जमीन! जोसेफ जेंकिन्स का बस ही तो है संक्षिप्त परिचय। श्री जोसेफ ने पन्द्रह साल पहले एक पुस्तक लिखी थी ‘द स्लेट रूफ बाइबल’। 17 साल पहले लिखी थी ‘द ह्यूमन्योर हैंडबुक’। दोनों किताबों ने हजारों लोगों को प्रभावित किया है, प्रेरणा दी है। वे दूसरों को बताते नहीं हैं कि उनकी नीति क्या होनी चाहिए, उन्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए। वे खुद ही वैसा जीवन जीते हैं और अपने जीवन की कथा सहज और सरल आवाज में बताते जाते हैं।
जोसेफ जेंकिन्स की अहिंसक यात्रा एक युद्ध से ही शुरू हुई थी। उनके पिता अमेरिकी सेना में काम करते थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद वे जर्मनी में तैनात थे। वहीं श्री जोसेफ का जन्म सन् 1952 में हुआ था। सेना की नौकरी। हर कभी पिताजी का तबादला हो जाता। बालक जोसेफ हर साल-दो-साल में खुद को एक नए शहर में पाता, नए लोगों के बीच, नए संस्कारों में। होश संभालने के साथ जोसेफ को अमेरिका के विएतनाम पर हमले और कई साल से चल रहे युद्ध का भास होने लगा था। अमेरिकी सरकार स्कूल की पढ़ाई पढ़कर निकले हजारों किशोरों को लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने अनिवार्य या कहें जबरन सैनिक सेवा में विएतनाम भेज रही थी। जोसेफ कहते हैं वह युद्ध अमेरिकी सामूहिक पागलपन था। उस युद्ध की वजह से कई लाख लोग अपनी जान गंवा बैठे थे। कई लाख एकड़ जमीन ‘एजेंट ऑरेंज’ नाम के जहर से बर्बाद की गई और उस जहर की वजह से आज भी विएतनाम में कई बच्चे पैदाइशी अपंग और मंदबुद्धि हैं। वह युद्ध बहुत बड़ा झूठ और अन्याय था और अमेरिकी समाज ने आज तक उसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं दी है।
18 साल की उमर होने पर जोसेफ की भी नौबत आनी थी सेना में भर्ती होने की। वे पेंसिलवेनियां राज्य में डॉक्टरी की शुरुआती पढ़ाई कर रहे थे और साल था सन् 1972 । एक दिन कॉलेज की कैंटीन में उन्हें एक अनजान आदमी ने जोसेफ से बस एक फार्म भरवाया और युद्ध के लिए उसे जबरन भर्ती से बचा लिया। लेकिन अगले ही साल सरकार ने इस नियम को खारिज कर दिया। इस तरह जोसेफ बाल-बाल बचे थे विएतनाम युद्ध से। वे आज भी उस अंजान फरिश्ते का आभार मानते हैं।
युद्ध की हिंसा से तो जोसेफ बच गए पर अपनी अंतरआत्मा से नहीं। उन्हें ये मंजूर नहीं था कि उनकी कमाई से वसूले कर का इस्तेमाल अमेरिकी सरकार युद्ध के लिए करे। उन्होंने गरीबी में रहने का प्रण लिया ताकि उन्हें सरकार को कर चुकाना ही न पड़े। वे कहते हैं कि इस घटना के 40 साल बाद आज भी अमेरिकी सरकार अपने नागरिकों से वसूल किए गए कर से निर्दोष लोगों को मारने वाले युद्ध अफगानिस्तान और ईराक में लड़ रही है।
अपने ही देश अमेरिका से उखड़े, चिढ़े हुए वे यात्रा पर पड़ौसी देश मेक्सिको की ओर निकल पड़े, यह समझने कि वहां जीवन काट सकेंगे या नहीं। छह महीने बाद ही वे वापस अपने घर पेंसिलवेनियां के एक छोटे से कस्बे में लौट आए। पेशे की डॉक्टरी करने के लिए स्नातकोत्तर पढ़ाई नहीं करने का निर्णय तो वे पहले ही ले चुके थे। एक परिचित ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वे गांव में 212 एकड़ की उनकी जमीन संभाल लें। वीरान पड़ी जमीन पर रहने के लिए एक टूटा-फूटा घर तो था पर उसकी मरम्मत जरूरी थी। उस साल जोसेफ ने गर्मी में एक बड़ा बगीचा लगाया। इस जमीन से एक साल में ही उनका दाना-पानी उठ आया था।
इसी दौरान श्री जोसेफ के पास छतों की मरम्मत करने के प्रस्ताव आने लगे। यह काम उन्होंने 16 साल की उमर में ही सीख लिया था, स्कूल की एक छुट्टी के दौरान। साल था 1968 और उनके पड़ौस के एक घर में सीमेंट का बना पक्का आंगन तोड़ कर मलवा हटाने की जरूरत थी। युवक जोसेफ अपना जेब खर्च कमाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हथौड़ा संभाला और देखते-देखते काम पूरा कर दिया। घर की मालकिन उनकी मेहनत से बहुत प्रभावित हुईं। उनके पिता थे पीट ओडरे, जिनका जमा-जमाया और प्रसिद्ध कारोबार था छत बनाने का। बेटी ने अपने पिता को बताया इस मेहनती युवक के बारे में।
उन्होंने जोसेफ को अपने साथ रख लिया और उन्हें काम सिखाने लगे। इस दौरान जोसेफ ने अमेरिकी घरों में लगने वाली तरह-तरह की छतें बहुत करीब से देखीं और उन पर काम भी किया। उन्होंने पाया कि छत बनाने में इस्तेमाल होने वाला ज्यादातर माल पर्यावरण को दूषित तो करता ही था, ज्यादा समय चलता भी नहीं था। जैसे डामर या एसबेस्टस। इनसे कई तरह के रोग होने का खतरा भी रहता है। इन चीजों से काम करना जोसेफ को कतई नहीं भाया।
फिर वे याद करते हैं वह दिन जब उन्होंने पहली बार स्लेट पत्थर से ढली एक छत देखी। जी हां, वही स्लेट का पत्थर, जिससे एक समय लिखने की पट्टी बनती थी। यूरोप और अमेरिका में बहुत पहले से कई जगह स्लेट पत्थर और कवेलू से छतें बनती रही हैं। हमारे देश के भी अनेक पहाड़ी हिस्सों में स्लेट पत्थर की खदानें हैं और उनसे निकली स्लेटों का यहां भी वैसा ही सुंदर उपयोग होता रहा है। स्लेट के टुकड़े सालों साल जमे रहते हैं और उनकी छत बहुत लंबी चलती हैं। एक छत से निकाल कर स्लेट पत्थरों को दूसरी छत पर लगाना भी सरल होता है। पीढ़ियां चली जाती हैं, स्लेट पत्थर वही रहता है, वहीं रहता है! शायद इसलिए विज्ञापन और नएपन की लकदक में चलने वाली हमारी खरीद-फेंक की नई दुनिया को ऐसा टिकाऊ पदार्थ पसंद नहीं आता।
स्लेट के कई गुण तो जोसेफ को बहुत बाद में समझ आए, पहले तो उन्हें यही दिखा कि इस पत्थर से बनी छतें दूसरी चीजों से बनी छत से कहीं ज्यादा सुंदर दिखती हैं। वे कहते हैं स्लेट के सौंदर्य का उन पर ऐसा जादू हुआ कि उसी दिन तय किया कि जब कभी अपना घर बनाएंगे उसमें छत स्लेट की ही ढालेंगे। ये मौका उन्हें 11 साल बाद सन् 1969 में मिला, कुछ पुराने घरों से निकाली हुई स्लेटों से। इस बीच बहुत कुछ और भी हुआ। उन्हें छत का काम सिखाने वाले पीट ओडरे चाहते थे इस मेहनती युवक को तैयार कर उसे अपना कारोबार सौंपना। पर दो साल छुट्टियों में उनका साथ देकर सन् 1970 में जोसेफ डॉक्टरी की पढ़ाई पढ़ने विश्वविद्यालय चले गए। वहां कॉलेज की फीस जुटाने के लिए उन्होंने घरों की मरम्मत करने का एक छोटा-सा कारोबार चलाया। फिर वे विएतनाम जाते-जाते बचे और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गरीबी में रहने का प्रण ले बैठे।
वापस सन् 1975 में घर आए तो उनके शहर के लोग उस मेहनती युवक को भूले नहीं थे जो कारीगर पीट ओडरे का शागिर्द था। उनके पास स्लेट की छतें ठीक करने का काम आने लगा। जल्दी ही उनके पैर जम गए और उनका कारोबार चल निकला। सन् 1979 में उन्होंने सात एकड़ जमीन खरीदी और उस पर अपना घर बनाया, स्लेट की छत वाला। लेकिन पूर्वोत्तर अमेरिका की बर्फीली ठंड में ये कारोबार रुक जाता है। तो उस दौरान श्री जोसेफ ने लिखना शुरू कर दिया। लिखा भी किस पर? स्लेट की छत पर।
इस किताब के छपने के बाद श्री जोसेफ के काम की खूब शोहरत फैली और उनके पास पुरानी तरह की स्लेटेट छत बनवाने और सुधरवाने का ढेर सारा काम आने लगा। उन्होंने सन् 2005 में छतों का काम करने वाले कारीगरों का एक सामाजिक संगठन भी बनाया। आज यह खूब फल-फूल रहा है।
पांच साल के शोध के बाद सन् 1997 में उन्होंने अपनी किताब ‘द स्लेट रूफ बाइबल’ खुद ही छापी। लिखने की दुनिया में वे नए थे इसलिए उसमें कमियां भी रह गईं थीं। अपने लिखे की मरम्मत करके उस किताब का दूसरा संस्करण सन् 2002 में छापा। तब से अब तक इसकी 20,000 प्रतियां बिक चुकीं हैं और इसका इंटरनेट संस्करण तो और भी चला है। इस किताब के छपने के बाद श्री जोसेफ के काम की खूब शोहरत फैली और उनके पास पुरानी तरह की स्लेट छत बनवाने और सुधरवाने का ढेर सारा काम आने लगा। उन्होंने सन् 2005 में छतों का काम करने वाले कारीगरों का एक सामाजिक संगठन भी बनाया। आज यह खूब फल-फूल रहा है। संगठन एक पत्रिका भी निकालता है पारंपरिक छत बनाने पर। यह परंपरा खत्म होती जा रही थी। जोसेफ के काम से इसे संबल मिला है, स्लेट का उपयोग बढ़ा है। गरीबी में रहने का प्रण और डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ने वाले इस सिरफिरे को आज, 60 साल की उमर में एक सफल व्यक्ति माना जाता है।
अपनी जीवन यात्रा की बात करते हुए जोसेफ डॉक्टरी की पढ़ाई की निर्थकता की बात करते हैं। कहते हैं- ”प्री-मेडिकल पढ़ाई में हमें खान-पान और स्वास्थ्य के संबंध पर कुछ भी नहीं पढ़ाया गया। मैं इतना अनाड़ी था कि मुझे तो पता भी नहीं था कि इन दोनों का कोई संबंध है।“ कॉलेज से पास होने के बाद उन्होंने खुद से इस विषय पर पढ़ाई की और इससे आकर्षित होते चले गए। अपना भोजन उन्होंने खुद उगाना और पकाना शुरु किया। यह काम आज भी रोज होता है। हर रोज उन्हें कुछ नई और उपयोगी बातें समझ आती हैं। वे कहते हैं कि कॉलेज की पढ़ाई में उन्हें यह सब कभी समझ नहीं आया। तरह-तरह की जड़ी बूटियों के प्रयोग से उनके उपयोग भी समझ में आने लगे।
एक और यात्रा रही है जोसेफ की। उसकी शुरूआत हुई थी सन् 1975 में, जब वे डॉक्टरी शिक्षा छोड़ 212 एकड़ के खेत पर एक साल रहे। टूटे-फूटे घर को तो उन्होंने रहने लायक बना लिया था पर यह पहली दफा था कि वे ऐसे घर में रह रहे थे जिसके शौचालय में पाइप से आता पानी नहीं था। वे शौच जाते बाहर बने झोपड़ीनुमा शौचालय में, जिसमें एक गड्ढा भर था। चाहे कोई भी समय हो, मौसम कितना भी खराब हो, बारिश हो, बर्फबारी हो। गड्ढे में उनका रोज मुकाबला होता कई तरह के कीड़ों से। ततैया, मकड़ी, मक्खी और ढेर-सी दुर्गंध से। इसका समाधान उन्होंने निकाला एक ढक्कनयुक्त चीनी मिट्टी के एक कमोड से। इसे खराब मौसम में घर के भीतर रखा जा सकता था। जब कमोड भर जाता तब उसे बाहर ले जाकर खाली कर देते लेकिन घर के भीतर बदबू आती थी। उसका उपाय भी पास ही मिला। खेत पर लकड़ी चीरने से निकला ढेर सारा बुरादा पड़ा था। जोसेफ ने पाया कि लकड़ी के बुरादे को ऊपर डालने से दुर्गंध चली जाती थी। इस तरह से ग्रामवास का उनका पहला साल बीत गया।
उनके अगले घर में भी पानी और बिजली की कोई व्यवस्था नहीं थी। कोई नल नहीं, पाइप नहीं। वहां उन्होंने एक प्लास्टिक के डिब्बे को शौचालय बना दिया और वही लकड़ी के बुरादे का इस्तेमाल करने लगे। लेकिन समय-समय पर डब्बा खाली करने के लिए उस घर के बाहर कोई गड्ढे वाला शौचालय भी नहीं था। गर्मी के मौसम में जोसेफ ने पास की जमीन पर बगीचा लगाया था और तीन और बगीचे लगाने का सोच रहे थे। इसके लिए पत्ते वगैरह सड़ा कर खाद बनाने के लिए उन्होंने एक ढेर लगा रखा था। कोई और समाधान था नहीं तो डब्बे की टट्टी और पेशाब को भी वे इसी ढेर में डालने लगे। वे कहते हैं उन्हें कुछ ठीक से पता नहीं था। केवल सामने जो मुश्किल आई, उसका व्यवहारिक हल खोज रहे थे।
यह बात सन् 1977 की है। तब से आज तक श्री जोसेफ हर साल बगीचा भी लगाते हैं और उसमें जो खाद डालते हैं, वह उनके मल से तैयार होती है।
उनके बगीचे में कई तरह की फसलें लगती हैं, कई तरह का खानपान उनसे बनता है। खाद शब्द का खाद्य से संबंध उन्हें इन 35 सालों के प्रयोगों से बखूबी समझ में आ गया है। वे आज विशेषज्ञ माने जाते हैं खाद के। उस खाद के जिसने कई सदियों से हमारे खेत उपजाऊ रखे हैं, लेकिन जिसे हमारे दूषित शब्दकोश में ‘जैविक खाद’ जैसी अटपटी संज्ञा दी जाती है।
इस जानकारी को जोसेफ ने और बढ़ाना चाहा विश्वविद्यालय में जाकर। उन्हें विज्ञान की बुनियादी समझ तो थी ही। दुनिया भर के वैज्ञानिक शोध को वे कॉलेज की लाइब्रेरी के जरिए पढ़ सकते थे। इस जानकारी का उपयोग उन्होंने अपने प्रयोगों में किया ही था। सन् 1990 के दशक की शुरुआत तक उनका स्लेट छत का कारोबार अच्छा चल चुका था। तब वे ‘द स्लेट रूफ बाइबल’ लिखने की तैयारी में थे।
फिर वैज्ञानिक शोध ठीक हो भी तो उस पर ध्यान कौन देता है? वे बताते हैं कि 1950 और 1980 के दशक में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टट्टी पेशाब से खाद बनाने पर बहुत बढ़िया शोध करवाया था। पर किताबी ज्ञान का कोई मतलब नहीं होता जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाए। इस सब शोध को बारीकी से समझ कर उसे सरल शैली में वे लिखते गए। शुचिता, स्वास्थ्य, शरीर, पानी, जीवाणु और रोगाणु, भूजल, प्रदूषण, जमीन की उर्वरता, हर जटिल से जटिल विषय को सरल अंदाज में समझाते गए। लेकिन ऐसी किताब को कोई प्रकाशक छापना नहीं चाहता था। श्री जोसेफ ने अपनी किताब की 600 प्रतियां खुद ही छापीं 1995 में। उन्हें उम्मीद नहीं कि इतनी प्रतियां भी बिक सकेंगी।
नतीजा था ‘द ह्यूमन्योर हैंडबुक’ जिसके तीन संस्करणों की 60,000 प्रतियां आज तक बिक चुकी हैं। दुनिया की 15 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।
दुनिया भर के पुरस्कार, प्रशंसा और प्रेम साथ में। कई सौ पाठकों ने धन्यवाद की चिट्ठियां लिखी हैं। किताब खुद लेखक के जीवन से निकली है इसलिए बोझिल प्रवचन से वह मुक्त है। कई विद्वानों ने कहा है कि भगवद्गीता भी हमारे यहां इतनी लोकप्रिय इसलिए है क्योंकि वह कर्मक्षेत्रा के बीच से निकली बात है, और ऐसी बात का प्रभाव स्थूल पोथियों से ज्यादा होता है। जोसेफ कहते हैं कि लोग पीने योग्य पानी में शौच निपटते हैं, जबकि पानी की कमी के बारे में सब जानते हैं। किताब व्यावहारिक तरीके बताती है सूखे शौचालय बनाने के, जिनसे हमारा मल-मूत्र बजाए पानी को दूषित करने के जमीन को उपजाऊ बनाता है।
अपनी बात को वे कभी किसी सरकारी और अकादमिक तामझाम में नहीं फंसने देते हैं। उनकी कतई ऐसी रुचि नहीं है कि सरकारें उनके लिखे अनुसार अपनी नीति बदलें या उनके विचारों पर रातों-रात क्रांति हो जाए। उनका आग्रह हमेशा व्यावहारिक रहता है। कोई भी एक विचार में सारे समाधान नहीं मिल सकते और उनके बनाए सूखे शौचालय हर किसी के काम के नहीं हैं, ऐसा वे कहते हैं। लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि पीने के पानी से चलने वाले फ्लश के शौचालय दुनिया के हर हिस्से में काम नहीं कर सकते हैं। इसे चलाने जितना पानी और बिजली हमारे पास है ही नहीं। किन मलमूत्र तो सब जगह मिलता है। और उससे खाद बनाने, उससे खाद्य बनाने के लिए न पानी चाहिए, न बिजली।(Hindi.indiawaterportal.org से साभार)
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