Wednesday 10 July 2013

देश के पहले आदिवासी उपन्यासकार मेनस ओड़ेया


संजय कृष्ण


  •  प्राचीन मुंडारी में उपन्यास 'मतुराअ: कहनि'


मेनस ओड़ेया देश के पहले आदिवासी उपन्यासकार थे मेनस ओड़ेया (1884-1968) और पहला उपन्यास है 'मतुराअ: कहनि'। उपन्यास प्राचीन मुंडारी में 1920 के आस-पास लिखा गया। हालांकि यह बीसवीं शताब्दी के पिछले दशक में यानी 1984 में प्रकाशित हुआ, लेकिन लिखा गया बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में। एक लंबा अंतराल लिखने और छपने के बीच रहा। कारण, 1700 पृष्ठों का होना और भाषा मुंडारी। कोई प्रकाशक तैयार नहीं। कैसे छपे उपन्यास। कौन थे मेनस और कहां से मिली उपन्यास लिखने की प्रेरणा?  कहानी बड़ी दिलचस्प है।
मेनस ओड़ेया 'इनसाइक्लोपीडिया आफ मुंडारिका' के संकलनकर्ता फादर हाफमैन के स्टेनो थे। करीब पांच हजार पेजों की सामग्री उन्होंने टंकित की थी। टंकण के समय ही यह विचार आया, क्यों न इन सामग्रियों से एक उपन्यास की रचना कर दूं, उनकी भाषा में उनके लिए। इसी बीच विश्वयुद्ध छिड़ गया। फादर जर्मन थे।
सो, अंग्रेजों ने उन्हें अपने वतन लौटने का हुक्म सुना दिया। फादर जर्मनी अपने गांव लौट गए और वहीं से सामग्री रांची भेजते फिर पटना जाता छपने के लिए। कहते हैं, फादर अंतिम दिनों में गठिया से ग्रसित हो गए थे और उन्हें टाइप करने में काफी दिक्कत होती थी। एक छोटी सी हथौड़ी के सहारे वे टाइप करते। एक अक्षर टाइप करने में कई मिनट लग जाता। फिर भी, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। यह संयोग देखिए कि इनसाइक्लोपीडिया का अंतिम भाग डिस्पैच जिस दिन भेजा, उसके दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने अंतिम डिस्पैच करते समय लिखा, 'ईश्वर को धन्यवाद कि अब मुझको टाइप नहीं करना पड़ेगा।' रांची छोड़ने से पहले फादर सर्वदा मिशन खूंटी में रहते थे और यहीं पर मेनस भी उनके साथ रहते थे। एक बार भगवान बिरसा ने इस मिशन पर हमला कर दिया था। सौभाग्य से दोनों बच गए। उस समय भगवान बिरसा का आंदोलन चरम पर था।
मेनास ने भगवान के आंदोलन को भी नजदीक से देखा था। वे खुद भी मुंडा थे। सो, अपने समाज के बारे में जानते थे। रही-सही कसर फादर के शोध अध्ययन से पूरा कर लिया। यहीं से उपन्यास का बीज पड़ा- 'मतुराअ: कहनि'। इस उपन्यास के केंद्र में नायक मतुरा है। मतुरा खूंटी के पास एक नई बस्ती बसाता है। उस बस्ती में एक ही गोत्र के लोग रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे गोत्र के लोग भी पहुंचते हैं और बस्ती बड़ी होने लगती है। अब नई बस्ती की जरूरत पड़ती है। पाहन पहाड़ों से पत्थरों को लुढ़काता है। गांव का सीमांकन किया जाता है। मुंडा गांवों को ससनदिरि (श्मशान का पत्थर) ही विभाजित करता है। यहीं से कहानी शुरू होती है। हिंदी-मुंडारी भाषा के विद्वान और इस उपन्यास को प्रकाशित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रो दिनेश्वर प्रसाद ने इस कृति के बारे में लिखा है, 'मथुरा की कहानी मुंडा जीवन का महाभारत है। महाभारत के विषय में कहा जाता है, यन्न भारते तन्न भारते। यानी जो महाभारत में नहीं, वह भारत में भी नहीं। यह उपन्यास भी कुछ ऐसा ही महत्व रखता है। यह उपन्यास की शक्ल में मुंडा जीवन का विश्वकोश है। इसमें मुंडा समाज, संस्कृति एवं इतिहास की प्रत्येक जानकारी उपलब्ध है।' मेनस का अंतिम दिन कष्ट में बीता। वे लोगों के स्नायु और हड्डी जोड़ आदि बीमारियों का इलाज कर अपना जीवन यापन करते थे। लंबा कद और गठा शरीर था। खैर, उनके जीते जी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी। 1934 में फादर पोनेट रांची आए। इन्होंने भी मुंडारी भाषा पर काफी काम किया। बहुत प्रयास किया इसके प्रकाशन के लिए, पर वे अपने जीवन के अंतिम काल में ही इसे प्रकाशित करवा सके कैथोलिक प्रेस से। फिलहाल, इसके हिंदी अनुवाद को लेकर प्रो दिनेश्वर प्रसाद और अश्विनी कुमार पंकज सक्रिय हैं।

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