Wednesday 10 July 2013

धार्मिक असहिष्णुता के दौर में मंटो


प्रभाकर/ईशा भाटिया

धार्मिक असहिष्णुता के मौजूद दौर में सआदत हसन मंटो पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक हैं. यह बात अलग है कि मौजूदा दौर में मंटों को भी अपनी बोल्ड रचनाओं के लिए काफी जिल्लतें झेलनी पड़तीं. मंटो को पढ़कर इस बात का अहसास होता है कि हमारा समाज अभी कहां पहुंचा है. 'सदाबहार मंटो' शीर्षक एक विमर्श में जावेद अख्तर कहते हैं, "मंटो एक प्रगतिशील रचनाकार थे. उनके इस दुनिया के जाने की आधी सदी के बावजूद अगर हम उनकी चर्चा कर रहे हैं तो साफ है कि मौजूदा दौर में भी वह प्रासंगिक हैं. मंटो को हमेशा एक तुच्छ लेखक समझा गया. लेकिन हकीकत यह है कि वह अपने समकालीन लेखकों के लिए एक चुनौती बन गए थे. मंटो ने अपनी लेखनी के जरिए समाज के आम लोगों का दुख-दर्द बयान किया था. मैं इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि मंटो ने अगर अपनी साहसिक रचनाएं मौजूदा दौर में लिखी होंती तो क्या होता. उस दौर में मौजूदा दौर के मुकाबले लिखना या अपनी कलात्मकता को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करना कहीं ज्यादा आसान था.देश में कट्टरवाद के इस दौर को पराजित करना जरूरी है. वह अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक हैं. लेकिन कोई भी आजादी बिना शर्त नहीं होती. मैं अपने पड़ोसी के खिलाफ कुछ भी नहीं लिख सकता. हम एक से दूसरी जगह जाने के लिए आजाद हैं. लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि सड़क के किस ओर चलना है. इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए दोनों पक्षों को आत्मावलोकन करना होगा. कट्टरपंथ के खिलाफ देश भर में उठने वाली आवाजें राहत देने वाली हैं, ऐसी आवाजें ही कट्टरपंथ को पराजित कर सकती हैं."
उपन्यासकार फारूखी कहते हैं कि इतने अरसे बाद भी अगर मंटो को याद किया जाता है तो इसकी वजह उनकी रचनाशीलता की ताकत है. मंटो की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनकी कहानियों के पात्र झूठ बोलने के अलावा बेईमानी भी करते हैं. इसके बावजूद वह समाज के बिंब के तौर पर उभरते हैं. अली सेठी कहते हैं कि, "मंटो की कहानियां पचास साल पहले जितनी प्रासंगिक थी, मोजूदा दौर में उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं. उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की जिन विसंगितयों का चित्रण किया था वह अब भी जस की तस हैं. अमूमन मंटो की कहानियों की तो बहुत चर्चा होती है, लेकिन शिल्प पर खास चर्चा नहीं होती, उनकी रचनाओं का शिल्प गौण हो जाता है जबकि यह बहुत सहज और जीवन के करीब था. 'टोबा टेक सिंह' और 'ठंडा गोश्त' जैसी कहानियां इंसान को समाज का आइना दिखा देती हैं. यह कहानियां कई सवाल उठाती हैं क्योंकि उन्होंने भोगे हुए यथार्थ को कागज पर उतारा है, कहीं और से पढ़कर या सुनकर नहीं, "टोबाटेक सिंह कहानी को मौजूदा संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. कट्टरवाद के इस दौर को पराजित करना जरूरी है"

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