Wednesday, 10 July 2013

विदेशी विद्वानों का आकर्षण हैं हिंदी साहित्य



  • ‘विदेशी विद्वानों का हिन्दी प्रेम’ - जगदीश प्रसाद बरनवाल 


हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत में भले ही उपेक्षित हो लेकिन इस जबान का जादू पूरी दुनिया के लगभग हर भाषा के विद्वानों और साहित्यकारों के सिर चढ़ कर बोलता है। हिन्दी साहित्य के पाश में बंधे विदेशी विद्वानों ने इस भाषा की रचनाओं पर अपनी कलम खूब चलाई है।
आजमगढ़ के साहित्यकार जगदीश प्रसाद बरनवाल द्वारा रची गई पुस्तक ‘विदेशी विद्वानों का हिन्दी प्रेम’ दुनिया के 34 देशों के 500 विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा पर किए गए कार्यों का संग्रह है।
यह किताब विदेशी विद्वानों के हिंदी के प्रति प्रेम का दस्तावेजी रूप है और यह दूसरे देशों में हिंदी की धमक का एहसास भी कराती है। भारतीय भाषाओं के प्रति विदेशी साहित्यकारों के आकर्षण पर अपना अभिमत देते हुए बरनवाल कहते हैं कि भारत के नागरिकों से संबंध स्थापित करने के लिए भाषाई और धर्म प्रचार के उद्देश्य ने पहले तो विदेशियों को इस देश के साहित्य का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया और फिर अध्ययन से उपजी आत्मीयता और हिन्दी साहित्य की समृद्धि ने उन्हें कलम चलाने को मजबूर किया।
उन्होंने कहा कि इस विषय पर होने वाला विमर्श आज तब तेज हो रहा है जब आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली के महाकाव्य ‘प्रिय प्रवास’ के रचयिता और आजमगढ़ के निवासी रहे अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की एक प्रमुख पुस्तक ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ के चेक भाषा में अनुवाद का शताब्दी वर्ष चल रहा है।
बरनवाल ने बताया कि करीब 100 वर्ष पूर्व 1911 में इस साहित्यकार की पुस्तक का चेक विद्वान वित्सेंत्स लेस्नी ने अनुवाद किया था और पुस्तक का नाम देव बाला रखा गया। यही नहीं इतालवी विद्वान एलपी टस्सी टरी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस पर सबसे पहले शोध करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी।
रूसी विद्वान एपी वारान्निकोव ने वर्ष 1948 में श्रीरामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ। वारान्निकोव ने मुंशी प्रेमचन्द की रचना ‘सौत’ का भी यूक्रेनी भाषा में अनुवाद किया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि स्थल पर रामचरितमानस की पंक्ति ‘भलोभला इहि पैलहइ’ अंकित की गई है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास भी विदेशी साहित्यकारों के लिए शोध का विषय रहा है। बरनवाल बताते हैं कि फ्रांस के विद्धान गार्सा दत्तासी ने सबसे पहले हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था। उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक ‘इस्त्वार वल लिते रत्थूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी (हिंदूई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) है। इसका प्रथम संस्करण ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को 15 अप्रैल 1839 को समर्पित किया गया था जिसमें हिन्दी और उर्दू के 738 साहित्यकारों की रचनाओं एवं जीवनियों का उल्लेख है।
बेल्जियम के विद्वान फादर कामिल बुल्के यहां आए तो ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए थे लेकिन हिन्दी साहित्य ने उन्हें इस कदर अपना दीवाना बनाया कि वह भारत में ही बस गए और दिल्ली में अंतिम सांस ली। उन्होंने ‘रामकथा, उत्पत्ति और विकास’ पुस्तक को चार भागों और इक्कीस अध्यायों में लिखा। (भाषा)

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