Wednesday 10 July 2013

मेरी प्रिय पुस्तकों पर काकू का प्रलय-स्नान


जयप्रकाश त्रिपाठी

वह नन्ही सी है अभी डेढ़-दो साल की। फुदर-फुदर पूरे घर को सिर पर उठाये हुए-सी। कभी  टीवी पर हाथ मारना, तार निकाल कर बाहर कर देना, कभी दवा, ट्रे में रखे पानी गिलास और टोकरी की सब्जियां जहां तहां बिखेर देना और इतना ही नहीं क्रिकेट का बैट सो रहे घर के किसी भी प्राणी के सिर पर सुबह-सवेरे दे मारना.....

मेरी व्यक्तिगत क्षति करने वाली काकू की एक अलग कहानी है, जितनी दुखदायी, उतनी ऊटपटांग सुखदायी।

मैं अपनी आंखों के सामने अपनी घरेलू नन्ही-सी हजार-पांच सौ किताबों वाली लायब्रेरी को तहस-नहस होते हुए देख रहा हूं, कुछ नहीं कर पा रहा हूं क्यों कि काकू की इस प्रलय-क्रिया में व्यवधान डालने का मतलब है पड़ोस के सभी मकानों तक का उसकी चीखों से चौंक उठना।

यद्यपि मैं निचली रैक से अति महत्व की पुस्तकों को निकाल कर उसके कद से काफी ऊपर आखिरी की दो रैक में पहुंचा चुका हूं, फिर भी उसके लिए नीचे की दो रैक में भी किताबें होना जरूरी है, और वे भी मेरे लिए उतनी ही प्यारी हैं, जितनी कि ऊपरी रैक में भरी किताबें। नीचे की दो रैक खाली-खाली पाकर भी काकू अपने प्रलय नाद से आसमान सिर पर उठा लेगी, इसलिए उसे खाली रखना भी कुछ कम जोखिम का काम नहीं।

तो काकू निचली रैक से एक एक किताब उठा रही है। इत्मीनान से निहार रही है। पहल कवर पेज फाड़ती है, फिर जमीन पर पटक पटक कर उसके पन्ने-पन्ने उधेड़ती है और उसी पर बैठ कर रैक से दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठवीं.... किताबे खींचती है, उनकी कपाल क्रिया करती है और चिंदी चिंदी बिखेरती जाती है.....

मैं उकसता, अकुलाता, छटपाता, झींकता, तनता, लुढकता असहाय से मन मसोसते-मसोसते न जाने कैसे मन ही मन मुसकरा उठता हूं। अपनी इस मुसकान की विडंबना पर भीतर तक थरथराता हूं। जी करता है, तेज डपट दूं, हाथों में कंपन होता है, हथेलियों में खुजली। जी करता है थप्पड़ जड़ दूं, तभी तुतला उठती है वह नन्ना ये, नन्ना ये। मेरी सबसे बेटी की ये नन्ही जान, मुझे अभी नाना नहीं कह पाती है, सो नन्ना, नन्ना....

और मैं उसके तोतले वात्सल्य में निमग्न हो लेता हूं निष्प्राण-निस्पंद-सा...

काकू के हाथो एक दिन की पुस्तक-कपाल क्रिया कुछ इस तरह....

निचली रैक से वह जाने कितनी ताकत लगा कर वेदांत दर्शन की मोटी सी पुस्तक खींच लेती है और उसके कवर पेज के अनगिनत टुकड़े, जैसे कड़ाही में भुन जाने के बाद दलिया के एक-एक दाने छिन्न-भिन्न....

ये स्वामी विवेकानंद साहित्य श्रृंखला का खंड-एक, पेपर बैक में, काकू कर चुकी है उसका खंड-खंड, इस समय दूसरे खंड पर लपकती हुई। किताब ज्यादा वजनी नहीं है उसके लिए, खींच चुकी है, पटक चुकी है, फाड़ने ही वाली है

इससे पहले भूलवश नीचे की रैक में छूट गयीं 'एक पुस्तक माता-पिता के लिए' (लेखक-अंतोन मकारेंको), 'य़ुद्ध और शांति' (टॉलस्टोय) का तीसरा खंड, डॉ.हरदेव बाहरी का अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश का पोस्टमार्टम हो चुका है..... सब-की-सब पुस्तकें अपनी ऐसी गति पर चिंदी-चिंदी बिसूरती हुई....

मेरी सबसे प्रिय पुस्तकों 'आग्नेय वर्ष' (कोन्स्तांतिन फेदिन), 'तरुण गार्ड' (अलेक्सांद्र फदेयेव) और 'मेरा बचपन' (गोर्की) की कपाल क्रिया के लिए रैक के उस तरफ वह लपकने ही वाली है कि मैं भी विद्युत वेग से उसी ओर झपटता हूं और अत्यंत दयनीय मुखमुद्रा में अपने शरीर की ओट देकर वहीं धम्म से बैठ जाता हूं किंकर्तव्यविमूढ़, महामूढ़ सा....

और काकू का महा आर्तनाद, पूरा घर झनझना उठता है, जो जहां है, वहीं से दौड़ा हुआ आ जाता है इस ओर, किसी के हाथ में अखबार, कोई कटोरी, चम्मच, कोई हाथो में चाय भरा कप लिये हुए, अभी अभी सुबह हुई है सो सबसे पहले चारपाई छोड़ कर मेरी लायब्रेरी को किताबों के कोप भवन में तब्दील कर चुकी काकू को आंसू-हिचकियों के साथ फर्श पर फड़फड़ाते पन्नों पर लोटते-पोटते देख सबके चेहरे हंसी से खिल जाते हैं और मैं एक बार फिर अपने अंदर के कर्फ्यू से हांफ उठता हूं, जैसे जुबान सील दी गयी हो, कंठ अपंग-अवरुद्ध सा, परिजनों की हंसी मुझे रत्ती भर रास नहीं आती है......
   
घर वालों की अनायास की मौजूदगी से मानो काकू के हाथ फिर चार सौ चालीस वोल्ट के वेग से  'तरुण गार्ड' को रैक से घसीट ही लेते हैं, नाचने को उकसाते संपेरे ... और दूसरे ही पल वह अपनी नानी की कांपती उंगलियों में कसे चाय भरे कप पर झपट्टा मारती है...... अंतिम संस्कार हो रहा हो, मानो मनोहरश्याम रंग में 'कुरु-कुरु स्वाहा'

.....किताबें, न-न्ना..न ना नाआआआ

काकू को भला क्या मालूम, मैंने कैसे अपनी गृहस्थी के पेट काट कर कहां कहां से ढोकर लाये हैं ये किताबें, और इनकी ये गति, दुर्गति, अंतिम गति।


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