- जाति का जहर बोवो और वोट की फसल काटो
जयप्रकाश त्रिपाठी
जाति, धर्म, भाषा, नस्ल और लिंग यह सब लोगों को आपस में बांटते हैं। हमारे देश की विभिन्नता राजनेताओं की हिंसक (भावनात्मक हिंसा) हरकतों से हमारी ताकत बनने की बजाय हमारी कमजोरी बनती जा रही है। वे अलगाव का बीज बोने का कोई भी अवसर चूकना नहीं चाहते हैं। कट्टर जातिवादी सपा, बसपा, रालोद तो हैं ही, भाजपा, कांग्रेस समेत अन्य दल भी टिकट बंटवारे के समय जाति की लहलहाती फसल काटने पर लोमड़ी-दृष्टि रखते हैं। दरअसल, इन सबका उद्देश्य एक है, जाति का जहर बोवो और वोट की फसल काटो। किसी को दलितों का वोट बैंक सहेजना है, किसी को यादवों और मुसलमानों का, किसी को ब्राह्मणों में गणित फिट करना है तो किसी को राजपूतों, पिछड़ों, आदिवासियों का। चुनाव वस्तुतः लोकतंत्र की ताकत नहीं, अपराधियों को राजनेता बनाने का माध्यम हो गये हैं। ये अपराधी संसद और विधानसभाओं में पहुंच कर देश चलाने के लिए कानून बनाने की कैसी मंशा रखते होंगे, पूरे सिस्टम को पता है। हजारों उदाहरण सामने हैं। हर भले मानुस, हर आम आदमी लाचार है और गुंडे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। सरकारी धन और बहू-बेटियों ही नहीं पूरे लोकतंत्र की इज्जत लूट रहे हैं। डंके की चोट पर। स्विस बैंक जैसे दुनिया भर के बटमार मुल्क की तिजोरियों में घुसे चले आ रहे हैं। कोई धर्म और आयुर्वेद के नाम पर द्वीपों पर अपनी अलग दुनिया बसाने की जुगत में है, कोई गुजरात में कत्लेआम कराने के बाद देश को उपदेश बांटता डोल रहा है।
सत्तापक्ष और विपक्ष दोनो ही कारपोरेट और औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मजबूत लाबी की तुष्टिकरण की नीतियों को बढ़ावा देने में लगे हैं, जिससे आम आदमी के हितों की बली चढ़ रही है। राजनीतिक विचारधारा इस कदर राह भटक चुकी है कि अपराधियों को पानी पी-पीकर अपशब्द बोलने और गांधी की सौगंध खाने वाले टिकट वितरण के समय तमाम आदर्श, सिद्धांत और शुचिता भूलकर बाहुबलियों को छांट-छांटकर टिकट देते हैं। इस मामले में कोई भी पार्टी दूध की धुली नहीं है। कथनी और करनी का फर्क चुनाव में दिखाई देता है। सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दल साम-दाम-दण्ड और भेद की राजनीति करने से गुरेज नहीं करते हैं। राजनीति का चरित्र केवल सत्ता प्राप्ति हो गया है और सत्ता प्राप्ति की राह में मूल्य बुरी तरह रौंदे जाते हैं। जाने-माने पत्रकार अनिल चमड़िया सही सवाल उठाते हैं कि 'सचेत और अचेत जातिवाद की पहचान कैसे की जाए? हमारे समाज में जातिवादी, सांप्रदायिक होने के कई तौर-तरीके उपलब्ध हैं। कई नेता ऐसे हो सकते हैं, जो नास्तिक हों और हिंदुत्व की राजनीति करते हों। जिन्ना भी नास्तिक थे और वे इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान की वकालत करने लगे। गांधी वर्णवादी थे, लेकिन छुआछूत का विरोध करते थे। वे खुद को हिंदू भी कहते थे और धर्मनिरपेक्षता की बात भी करते थे। जातिवादी भी धर्मनिरपेक्षता की वकालत करते दिख सकता है। उसी तरह धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाला भी जातिवादी हो सकता है।' इसके साथ यह सवाल भी लाजिमी हो सकता है कि आजादी के आंदोलन के दौरान ही एक धड़े को अंबेडकर, दूसरे धड़े को गांधी और तीसरे धड़े को जिन्ना की बातें समझ में नहीं आती थी। तभी से बोया जाने लगा था जाति का जहर। अपने-अपने कुटुंब की फसलें बोने-काटने की बिसातें बिछायी जा रही थीं। व्यक्ति के जातिवादी होने और जातीय भावना के बीच एक फर्क करना जरूरी लगता है। आज आरक्षण का पक्ष-विपक्ष क्या है? वह क्यों इतना दुरंगा हो गया है, कोई निरपेक्ष (मनुष्य का) पक्ष नदारद क्यों हो चुका है, इन तरह तरह के प्रश्नों के बीच जातिवादी राजनेताओं की कामयाबियां सिर्फ इतनी हैं कि हमारा सिर शर्म से झुक जाये और मुट्ठियां गुस्से से तन जाएं।
उत्तर प्रदेश की जातिवादी राजनीति को सत्येंद्र रंजन इस तरह कोट करते हैं- 'दलित गोलबंदी के जरिए मजबूत वोट आधार तैयार करने के बाद जब चुनावी राजनीति में इस रणनीति की सीमा साफ होने लगी, तब मायावती ने खुलकर सवर्ण जातियों को लुभाने का तरीका अपनाया। अब चूंकि वे अगले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी हैं, तो उनकी पार्टी ने एक बार फिर जातीय सम्मेलनों के आयोजन की राह पकड़ी है. खास नजर ब्राह्मणों पर है, पर कोशिश तमाम सवर्ण जातियों को संदेश देने की है।' कुछ यही तरीका सपा का है। आजकल यूपी पुलिस का हर थानाध्यक्ष जाति विशेष का! और निगाहें यादव-मुस्लिम फैक्टर पर। विकास की कहानी ये है कि अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री सिर्फ सैफई (इटावा) ने नहीं, पूरे प्रदेश ने बनाया था। चौबीस घंटे बिजली रायबरेली, इटावा, कन्नौज में दी जाती है तो बाकी जिलो की जनता पूछ कर खामोश हो लेती है कि हम क्या पाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए मतदान करने गये थे! बिजली क्या सोनिया गांधी, मुलायम सिंह और मायावती के पैसे से पैदा होती है, जो उनके निर्वाचन क्षेत्रों में चौबीसो घंटे सप्लाई होगी और बाकी प्रदेश तड़पता रहे। सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दलों ने "सोशल इंजीनियरिंग के बहाने जातिवाद को आधार बनाया, तो रातोरात जातिगत महासभाएं, उनकी सेनाएं आ गईं और उनके रहनुमा खडे हो गए। राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए जातिगत संगठनों से सौदाबाजी में फंस रहे हैं। वोट की राजनीति जातिवाद को बढा रही है, जिससे सामाजिक समरसता, राष्ट्रीयता की भावना व लोकतंत्र की अवधारणा को पलीता लग रहा है। भ्रष्टाचार का बोलबाला होने लगा, तब कहा गया कि यह "कास्ट" और "करप्शन" मुल्क को ले डूबेगा और आज इतनी भयानक स्थिति सबके सामने है कि न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। जातियों के रहनुमा जातियों का भी कितना भला करते हैं और कितना अपने घर-परिवारों का, नंगा नाच कहीं भी देखा जा सकता है। और लालू संसद में ललकारते हैं- ‘अन्ना हजारे और उनकी टीम एक पार्टी बना लें और चुनाव लड़ें, फिर देखें कि चुनाव क्या होता है। देश में मतदान सिर्फ जाति के आधार पर ही होता है न कि किसी विचार, योजना अथवा काम पर। पूरे देश में चुनाव का आधार सिर्फ जातिवाद ही है।’
न्यायपालिका ने आज बिल्कुल सही हस्तक्षेप किया है, लेकिन ये सवाल फिर भी लाजवाब कर जाता है कि क्या बच्चा पैदा होने के बाद अस्पताल में और तीन-चार साल का हो जाने के बाद स्कूलों में उसके नाम के साथ जाति का टाइटल लगाने पर रोक का फरमान भी कभी जारी होगा। प्रवेश पत्रों में एक कॉलम ये भी होता है- आप हिंदू हैं कि मुस्लिम! इसलिए लगता है कि इस तरह भी जाति जाएगी नहीं। क्योंकि किसी को सवर्ण होकर नौकरी में प्रमोशन पाना है और किसी को दलित होकर नौकरी पानी है। इसलिए फिर भी जाति जाएगी नहीं कि जिस देश में गंगा बहती है, उसके महा महान पुरखे भी वर्णाश्रम व्यवस्था का जहर बो गये हैं।
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