अखिलेश शुक्ल
वर्तमान युग सूचना प्रौद्योगिकी का युग है। इसमें मोबाईल, इंटरनेट, कम्प्यूटर, टी.व्ही. का बोलबाला है। आज कहा जा रहा है कि लोगों को किताबों की नहीं कम्प्यूटर की ज़रूरत है। लेकिन दिमाग़ी पोषण के लिए अच्छी पुस्तकों की माँग हमेशा बनी रहेगी। भविष्य में पुस्तकों की आवश्यकता में कमी आने की संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है। आज से 100 वर्ष पूर्व पुस्तकें जितनी ज़रूरी थी उतनी ही आज भी है। आज से 100 वर्ष पश्चात भी उनकी आवश्यकता उतनी ही होगी।
भारत में पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय पचास हज़ार करोड़ रूपये से अधिक का है। देश की लगभग 70 प्रतिशत साक्षर जनता के लिए हिंदी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित की जाती है। वर्तमान में हिंदी पुस्तकों का प्रतिशत अँगरेज़ी के प्रकाशनों की संख्या से कुछ ही अधिक है। देश में अँगरेज़ी अच्छी तरह जानने समझने वालों की संख्या 4 से 4.5 करोड़ है। भारत में पेन्गुईन, हॉरपर कॉलीन, रूपा पब्लिकेशन सहित अनेक प्रकाशन अँगरेज़ी में पुस्तकों का प्रकाशन करते हैं। इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की गुणवत्ता उच्च कोटि की होती है। इनकी प्रिटिंग क्वालिटी, कागज़, बाइंडिंग आदि सहज ही पाठक को अपनी ओर आकर्षित करती है। अँगरेज़ी पुस्तकों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी कम कीमत है। जिसकी वजह से ये आम अँगरेज़ी पाठक की पहुँच में है। इनका अशुद्धि रहित नयनाभिराम मुद्रण इन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। देश भर में अँगरेज़ी में प्रकाशित पुस्तकों का वितरण तंत्र बहुत मजबूत है। ये पुस्तकें बस स्टेण्ड, रेलवे, एयरपोर्ट, के बुक स्टालों सहित देश भर के प्रमुख पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ ख़रीदने के लिए सहज उपलब्ध है।
वही दूसरी ओर हिंदी साहित्य में पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय अभी असंगठित अवस्था में है। हिंदी प्रकाशकों का 60 प्रतिशत से अधिक नई दिल्ली में केन्द्रित है। शेष अन्य छोटे बड़े कई प्रकाशक देश भर में फैल हुए हैं। लेकिन हिंदी के प्रकाशक अभी भी बाबा आदम के जमाने की तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं। हिंदी में आज भी हार्ड बाउंड पुस्तकें ही अधिक प्रचलित हैं। राजकमल, वाणी, राजपाल तथा भारतीय ज्ञानपीठ जैसे कुछ प्रकाशकों को छोड़ दिया जाए तो शेष प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित पुस्तकें अनेक कमियों से युक्त हैं। इनमें प्रूफ तथा व्याकरण सम्बंधी त्रुटियाँ खटकती हैं। इस त्रुटि के सम्बंध में प्रकाशक व लेखक एक दूसरे पर दोषारोपण कर पता नहीं किसका हित साध रहे हैं? यह वे ही जाने। इन पुस्तकों की घटिया व अनआकर्षक प्रिटिंग, कागज़ क्वालिटी व बाइंडिंग देखकर चाहते हुए भी इन्हें ख़रीदने का मन नहीं होता है। समझ नहीं आता कि आख़िर क्यों हिंदी के प्रकाशक नई तकनीकों का प्रयोग नहीं करते? वे हार्ड बाउंड़ की अपेक्षा पेपर बैक पुस्तकों का प्रकाशन प्रमुखता से क्यों नही करते हैं। वहीं इनकी अत्यधिक क़ीमत पाठकों की पहुँच से इन्हें दूर कर देती है। इस सम्बंध में राजपाल प्रकाशन के प्रमुख सुरेश शर्मा कहते हैं कि राजपाल की किताबें ख़रीदी जाती है। वे लेखकों से अपेक्षा करते हैं कि अच्छा साहित्य लिखे जिसे प्रकाशित किया जा सके। उनकी विचारों में दम है जब तक अच्छा लिखा नहीं जाएगा तक तक उसे प्रकाशित करने का जोख़िम असंभव होगा।
दरअसल सच कहा जाए तो हिंदी क्षेत्र में प्रकाशन का माफ़िया काम कर रहा है। प्रत्येक नामी गिरामी से लेकर आम प्रकाशक इनके चंगुल में कैद है। चूँकि प्रकाशकों के पास साहित्य की समझ का अभाव है। इसलिए उनके पास स्थित सलाहकार मंड़ल जिस लेखक को चाहे उसे उपकृत करता रहता है। इस स्थिति में दोयम दर्जे की इन पुस्तकों की सरकारी ख़रीद ही हो सकती है। आम पाठक में कम से कम इतनी समझ तो है कि उसे क्या ख़रीदना है व पढ़ना है।
हिंदी साहित्य के प्रकाशकों द्वारा किसी भी पुस्तक की अधिक से अधिक 500 प्रतियाँ ही प्रकाशित की जाती हैं। इन मोटी व हार्ड बाउंड पुस्तकों को सरकारी लाइब्रेरियों व ग्रंथालयों को मोटे कमीशन के आधार पर टिकाया जाता है। ग्रंथालयों में भी पाठकों की अपेक्षा इनपर दीमकों का अधिकार ही अधिक रहता है। ख्यात लेखक व साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र परदेसी कहते के अनुसार आज लेखकों में ‘यश की कामना’ है जिसकी वजह से साहित्य में कूड़ करकट ही अधिक आ रहा है। लोग लिखते कम हैं और प्रकाशित अधिक कराना चाहते हैं। उनकी चाह होती है कि जो कुछ लिख डाला है उस पर तुरत फुरत कोई पुरस्कार मिल जाए। इस तरह का साहित्य पाठकों का रूचि परिष्कार नहीं कर सकता है। अतः साहित्य में लोगों की रूचि घटने की भी यह एक वजह है। हिंदी प्रकाशनों के साथ सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि इनकी मलाई तो प्रकाशक तथा खुदरा वितरक खाते हैं एवं लेखक के हाथों खुरचन तक नहीं आती है। खुदरा वितरक को 35 से 60 प्रतिशत तक कमीशन दिया जाता है। वही मात्र चंद हज़ार रूपयों की रायल्टी के लिए लेखक को परेशान होना पड़ता है। इसकी ओर न तो प्रकाशक का ध्यान है और न ही प्रशासन के पास कोई ठोस कानूनी प्रावधान है जिससे लेखक को उसका हक़ मिल सके।
ख्यात समीक्षक डॉ. कश्मीर उप्पल कहते है कि आजकल लेखक खुद अपने व्यय पर पुस्तकें प्रकाशित करवाने लगे हैं। इस तरह के प्रोडेक्ट को आख़िर क्यों कोई ख़रीद कर पढे़गा? यदि इसे समीक्षा के लिए किसी समीक्षक के पास भी भेजा जाएगा तो उसकी समीक्षा करने का कोई ओचित्य नहीं है। उस पुस्तक की समीक्षा न करना भी अपने आप में एक समीक्षा ही होगी। वे आगे जोड़ते हैं कि ये प्रिटर (प्रकाशक नहीं) साहित्य की समझ के बगैर जो प्रकाशित कर रहे हैं उससे समाज को कोई विचारधारा नहीं मिल रही है और न ही अच्छा साहित्य ही पढ़ने के लिए उपलब्ध हो पा रहा है।
इस तरह की प्रवृत्ति वास्तव में हिंदी के लिए घातक है। कुछ तथाकथित प्रकाशक पुस्तक प्रकाश में लाने के नाम पर लेखक से अच्छी खासी रकम झटक लेते हैं। उसके ऐवज में लेखक को 50-60 प्रतियाँ पकड़ा दी जाती हैं। यह समझ से परे है कि इस तरह की लूटमार पर आख़िर कब प्रतिबंध लगाया जाएगा। इस तरह से कुछ भी उल जलूल लिखना और किसी मंत्री अथवा राजनीतिज्ञ से विमोचन करा कर साहित्यकार बनने के रोग से मुक्त होना साहित्य की भलाई के लिए बेहद ज़रूरी है। इस प्रदूषण से मुक्त होने के लिए दूर दराज के क्षेत्र में स्थिति लेखकों पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। उनका अनुभवी लेखन प्रकाश में लाया जाकर पाठकों को उपलब्ध कराने पर देश का भी भला होगा। समसामयिक व तात्कालिक विषयों पर लेखन आज समय की माँग है। ऐसे कई विषय हैं जिन पर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं ज़रूरत है तो बस सकारात्क सोच के साथ सधे हुए लेखन की। साथ ही उन्हें प्रकाशित करने के लिए जागरूक प्रकाशक की।
जयपुर की पत्रकार व लेखिका उमा के अनुसार हिंदी साहित्य व भाषा की पुस्तकों की कोई सुनियोजित विज्ञापन व्यवस्था नहीं होने के कारण ये आम पाठक की पहुँच से दूर रहती हैं। आज हिंदी का पाठक कविता कहानी की अपेक्षा अपने आस पास के बारे में जानना समझना चाहता है। उसे वह साहित्य उपलब्ध कराया जाना चाहिए जो अँगरेज़ी साहित्य की पुस्तकों के स्तर के अनुरूप हो। उनके अनुसार पुस्तक में वह सब होना चाहिए जो हमारे आसपास गुज़र रहा है। उसे चाहे यथार्थ कहा जाए अथवा समय की माँग लेकिन जब तक साहित्य में उसकी मौजूदगी नहीं होगी तब तक हिंदी की किताबें उस तरह से नहीं पढ़ी जाएँगी जिस तरह से अरविंद अडिगा की ‘द व्हाइट टाईगर’ पढ़ी जा चुकी है या तस्लीमा की अन्य पुस्तकें। पुस्तकें रियलिस्टिक हो तो हर कोई उन्हें हाथों हाथ लेगा इसमें कोई शक़ नहीं है।
वर्तमान में हिंदी की पुस्तकों का वितरण तंत्र भी लचर अवस्था में है। उनकी उपलब्धता छोटे मोटे स्थानों की बात तो दूर महानगरों तक में नहीं है। इस स्थिति से हिंदी के 70 करोड़ जानने समझने वालों को उबारा बेहद ज़रूरी है। इसके लिए आवश्यक है कि पुस्तकें विश्व स्तरीय हो, उनकी कीमत कम हो व वे सहज ही उपलब हों। प्रकाशक, वितरक, लेखक व समीक्षक मिलकर इस ओर ध्यान दें तब ही हिंदी की किताबें भी अँगरेज़ी पुस्तकों के समान पाठकों के दिलो दिमाग पर राज कर सकेंगी।
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