Thursday 4 July 2013

पुस्तकें बुलाती हैं


प्रवीण पाण्डेय
पुस्तकों से एक स्वाभाविक लगाव है। किसी की संस्तुति की हुयी पुस्तक घर तो आ जाती है, पर पढ़े जाने के अवसर की प्रतीक्षा करती है। मन में कभी कोई विचार उमड़ता है, प्यास बन बढ़ता है, स्पष्ट नहीं हो पाता है। आधी लगी दौड़ जैसी, जब अभिव्यक्ति ठिठकने लगती है और लिखने के लिये कुछ सूझता नहीं है, तब लगता है कि अन्दर सब खाली हो चुका है, फिर से भर लेने की आवश्यकता है। एक पुस्तक उठा लेता हूँ, पढने के लिये, या कहें कि लेखक से बतियाने लगते हैं। पहले बैक कवर पढ़ते है, फिर प्रस्तावना, फिर विषय सूची, उत्सुकता बनी रही तो कुछ अध्याय भी। धीरे धीरे यही क्रम बन गया है, बहुत कम ही ऐसा हुआ है कि प्रारम्भ में रुचिकर लगी पुस्तक अन्त में बेकार निकली हो।
संस्तुति की गयी सीमित पुस्तकों में यह संभव है। उन पुस्तकों के नाम मोबाइल में रहते हैं, कभी पुस्तकों की दुकान जाना हुआ तो, वहाँ ढूढ़कर पढ़ लेते हैं। बंगलोर में यह बात बहुत ही अच्छी है कि तीन बड़े बुकस्टोर, रिलायंस टाइमआउट, क्रॉसवर्ड और लैण्डमार्क, तीनों में ही बैठकर पढ़ने की सुविधा है, शान्ति भी रहती है और कॉफी भी रहती है, आप अधिक समय तक बैठकर पढ़ सकते हैं, कोई भी आपको जाने को नहीं कहेगा, विशेषकर जब आप बहुधा वहाँ जाते हों। साप्ताहिक खरीददारी करने के क्रम में डिजिटल स्टोर और बुक स्टोर नियमित पड़ाव रहते हैं। समय कम रहा तो संस्तुति की गयी तीन चार पुस्तकें ही पढ़ पाता हूँ, अधिक समय मिलता है तो आठ दस पुस्तकें और पलट लेता हूँ। हाँ, टटोलने का क्रम वही रहता है, बैक कवर से। यह अनुभव बड़ा ही अच्छा लगता है, उन दुकानों की तुलना में, जहाँ एक एक पुस्तक माँगने पर दुकानदार आपको भारस्वरूप देखते हैं और पुस्तकें अनमने भाव से आपके सामने फेंक दी जाती हो। दो तीन से अधिक पुस्तकों के बारे में पूछने लगिये तो आपसे यह प्रश्न पूछ ही लिया जाता है कि खरीदने के लिये पैसे भी हैं जेब में?
जहाँ यह सुविधा होती है, वहाँ उसका पूरा लाभ उठाने वाले कई लोगों को यह लग सकता है, कि जब यहीं आकर पढ़ा जा सकता है, तो पुस्तक खरीदने की क्या आवश्यकता है? विचार आने से रोका नहीं जा सकता है। जब अभी तक पुस्तकों को किसी रत्न या हीरे की तरह किसी पुस्तकालय या दुकान में सजा देखा हो, तो यह विचार आने की संभावना और भी बढ़ जाती है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ, जब पहले पहले यह सुविधा मिली तो कुछ पुस्तकों के बीस तीस पन्ने वहीं पर बैठकर पढ़ डाले। लगा कि ढेरों पैसे बचा लिये, दुकान को लूट लिया। अब तीन साल बाद देखता हूँ कि पुस्तकों के संग में रहने का नशा बहुत मादक होता है, एक बार लगता है तो छूटता नहीं है। यदि उन दुकानों में बैठकर पढ़ने का अवसर नहीं पाया होता, तो इतनी पुस्तकें खरीदकर घर में नहीं लाता। लगभग हर बार यही हुआ कि कोई न कोई पुस्तक लेकर घर आ गया। अब लगता है कि इन लोगों ने चखा चखा के हमें ही लूट लिया।
बचपन में विद्यालय से जब घर आता था तो घर में बहुधा कोई नहीं मिलता था, बस समय बहुत मिलता था। भरी दुपहरियाँ, बाहर जाकर खेलना कठिन, बस पुस्तकें ही सहारा बन कर रहती थीं। पुस्तकें पढ़ने का क्रम तभी से चल पड़ा। पहले तो घर में रखी सारी साहित्यिक पुस्तकें पढ़ लीं, कहानी के रूप में लिखे ग्रन्थ पढ़ डाले, सोवियत संघ से आने वाली कई मैगज़ीन पढ़ डालीं और जब धीरे धीरे ये समाप्त हो चलीं तो अपने चाचाजी द्वारा पढ़े गये और सहेजे गये ढेरों जासूसी और चटपटे सामाजिक उपन्यास पढ़ डाले। जीवन में उतना निश्चिंत समय फिर कभी नहीं मिला। दस वर्ष की अवस्था में न यह ज्ञान था कि क्या पठनीय है, भारी भरकम तर्कों का क्या अर्थ है, और किस पुस्तक का क्या महत्व है? बस पढ़ते गये, एक नशा सा समझ कर चढ़ाते गये, एक परमहंसीय मानसिकता से पुस्तकें पढ़ीं तब।
धीरे धीरे अनुभव आया, अच्छी पुस्तकों के बारे में पता चला, किन पुस्तकों को पढ़ना समय व्यर्थ करने सा था, वह भी पता चला। यह भी पता चला कि इतनी पुस्तकें हैं जगत में कि सारी पढ़ी भी नहीं जा सकती हैं। अपनी संस्कृति से परे और भी रंग हैं पुस्तकों के इन्द्रधनुष में। अभिरुचि किसी विषय विशेष के प्रति नहीं, बस पढ़ने के प्रति बनी रही। शिक्षापद्धति के अन्तर्गत पाठ्यक्रम की पुस्तकों ने आकर डेरा जमा लिया, घर के सीमित आकार और दिन के सीमित समय को पूरा घेर लिया। कई वर्ष अपनी रुचि का ठीक से पढ़ ही नहीं पाया। विद्यालय का पुस्तकालय अधिक बड़ा नहीं था और शीघ्र ही सारी पुस्तकें पहचानी सी लगने लगीं। अस्तित्व के लिये संघर्ष ने प्रतियोगी परीक्षाओं से संबधित पुस्तकों के पढ़ने को विवश कर दिया, पढ़ने की प्यास बुझी ही नहीं, मन अतृप्त बना रहा।
आईआईटी कानपुर का पुस्तकालय, जीवन में एक श्रेष्ठ उपहार बनकर आया। इतना बड़ा पुस्तकालय पहले कभी नहीं देखा था। कोई ऐसा विषय नहीं देखा जिससे संबन्धित उत्कृष्ट पुस्तकें वहाँ उपस्थित न हों। हिन्दी, दर्शन, इतिहास, शोध का इतना बड़ा संग्रह एक आश्चर्य था मेरे लिये। विज्ञान और इन्जीनियरिंग से संबन्धित पुस्तकों के बारे में तो कहना ही क्या? बहुधा जब कल पुर्जों और उनकी गतियों से मन ऊबने लगता था तो कोई न कोई रोचक छाँह मिल जाती थी पुस्तकों की। न जाने कितने विषय पर कितनी पुस्तकें पढ़ डाली वहाँ पर। जब किसी एक अभिरुचि में बँधने का नहीं सोचा तो सारी पुस्तकें आकर्षित करती रहीं। भौतिकी से लेकर पराभौतिकी तक, विलास से लेकर अध्यात्म तक, इतिहास से लेकर भविष्य तक और दर्शन के न जाने कितने विचारपुंज, सब आँखों के सामने से निकल गये।
बहुत बार ऐसा होता था कि कोई अच्छा वाक्य पढ़ा तो उसे याद करने का मन हो उठता था। याद करना और समय आने पर उसका उपयोग कर अंक बटोर लेने की आदत वर्तमान शिक्षापद्धति के प्रभाव स्वरूप अब तक स्वभाव से बँधी हुयी थी। ऐसा करने से सदा ही पुस्तक का तारतम्य टूट जाता है। औरों के सजाये शब्द आपके जीवन में वैसे ही उतर आयेंगे, यह बहुत ही कम होता है, एक आकृति सी उभरती है विचारों की, एक बड़ा सा स्वरूप समझ का। धीरे धीरे वाक्यों को याद करने की बाध्यता समाप्त हो गयी और पुस्तकों को आनन्द निर्बाध हो गया। थककर पुस्तकालय में बहुत बार सो भी गया, भारी भारी स्वप्न आये, निश्चय ही वहाँ के वातावरण का प्रभाव व्याप्त होगा स्वप्नलोक में भी।
अब समय अपना है, कोई परीक्षा भी नहीं उत्तीर्ण करनी है, पर जीवन यापन करने में समय की कमी हो चली है। कभी कभी मन को समझाने का प्रयास करता हूँ कि कितना कुछ पढ़ लिया है, एक स्पष्ट समझ विकसित भी हो गयी है, तो और पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता? यह तर्क थोड़े समय के लिये आहत मन को सहला तो देता है पर पुस्तकों की दुकान जाते रहने से रोक नहीं पाता है। कुछ और खरीदने जाता हूँ तो पैर स्वतः ही पुस्तकों की ओर खिंचे चले जाते हैं।
पुस्तकों के बीच पहुँच कर लगता है कि विश्व के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के बीच आकर बैठ गया हूँ। वहाँ जाकर यह पता लगता है कि कितना कुछ लिखा जा रहा है, किन विषयों पर लिखा जा रहा है। यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि श्रेष्ठ मस्तिष्कों के चिन्तन की दिशा क्या है, किन संस्कृतियों में क्या विषय प्रधान हो चले हैं और किन विषयों को अब अधिक महत्व नहीं दिया जा रहा है। यह समझना और जानना धीरे धीरे एक अभिरुचि के रूप में विकसित होता जा रहा है। बैठे बैठे कइयों पुस्तकें उलट लेता हूँ, सारांश समझ लेता हूँ, अच्छी लग ही जाती हैं, खरीद लेता हूँ। बौद्धिक प्यास बुझाकर वापस आता हूँ, कि थोड़े दिन संतृप्त रहेगा मन। पर क्या करूँ, उनके आसपास से कभी निकलना होता है तो बलात खींच लेता है उनका आकर्ष। खिंचा चला जाता हूँ, जब पुस्तकें बुलाती हैं। (praveenpandeypp.com से साभार)

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