भावना सक्सैना
19वीं सदी के अंत व 20वीं सदी के आरंभ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आचंलिक क्षेत्रों से रोजी-रोटी की तलाश में अनुबंधित श्रमिक के तौर पर सात समुंदर पार फीजी गए भारतीय मूल के लोगों ने आरंभ में अत्यधिक कष्ट झेले। यहाँ तक कि आज इतने वर्षों बाद भी उन्हें विदेशी, जड़विहीन और असहाय समझा जाता है। यह वेदना जब जब शब्दों में व्यक्त हुई, साहित्य का सृजन हुआ है। प्रवास की पीड़ा समेटे इस साहित्य से, इस वेदना से, फीजी के बाहर की दुनिया आज भी उतनी परिचित नहीं है। इसे विश्व के हिंदी भाषी समाज के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त डॉ. विमलेश कांति वर्मा ने।
हाल ही में डॉ. विमलेश कांति वर्मा द्वारा संपादित पुस्तक “फीजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य” भारत में साहित्य के सक्रिय विकास के लिए कार्य करनेवाली राष्ट्रीय संस्था, साहित्य अकादमी से प्रकाशित हुई। यह फीजी द्वीप समूह के प्रतिष्ठित हिंदी लेखकों की चुनी हुई रचनाओं का पहला प्रामाणिक संचयन है। यह संचयन न सिर्फ भारतीय पाठकों का फीजी के सवा सौ वर्षों के सृजनात्मक हिंदी साहित्य से परिचय कराता है अपितु हिंदी के वैश्विक विस्तार और स्वरूप को समझने में भी सहायक है। यह संचयन फीजी के हिंदी साहित्य की मूल संवेदना- ‘प्रवास की पीड़ा’ को उकेरता है । संचयन के पूर्व ग्रंथ की भूमिका के रूप में दिया गया विस्तारपूर्ण साहित्यिक विमर्श फीजी के हिंदी साहित्य की संवेदना और शिल्प निरूपण के साथ साथ फीजी के हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या और मूल्यांकन भी करता है। डॉ. वर्मा ने रचनाओं को विभिन्न काल-खंडों में बाँटकर रचना प्रक्रिया का विस्तार से मूल्यांकन किया है।
इस संकलन की विशिष्टता है फीजी के भारतवंशियों द्वारा विकसित की गई हिंदी की विदेशी भाषा शैली फीजी बात(फीजी की हिंदी) में लिखी साहित्यिक रचनाओ और गिरमिट गीतों का संकलन। यह पुस्तक अच्छे सुव्यवस्थित व संगठित रूप में प्रस्तुत की गई है और शोधार्थियों के लिए बहुत लाभदायक रहेगी। काव्य व गद्य दो खंडों में बंटा यह संचयन फीजी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों यथा राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र, अमरजीत कौर, काशीराम कुमुद, कुँवर सिंह, हजरत आदम जोगिंन्दर सिंह कंवल, ईश्वरी प्रसाद चौधरी तथा अन्य कई हिंदी रचनाकारों की रचनाओं से व परिशिष्ट में रचनाकारों से संक्षिप्त परिचय कराता है।
फीजी पर डॉ. विमलेश कांति वर्मा की यह दूसरी पुस्तक है। हिंदी के अंतरराष्ट्रीय प्रचार-प्रसार का दृढ़ संकल्प लिए डॉ. विमलेश कांति वर्मा टोरंटो विश्वाविद्यालय, कनाडा; सोफ़िया विश्वरविद्यालय, बल्ग़ारिया और साउथ पेसिफ़िक विश्वाविद्यालय, फ़िजी में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्यापन और विदेशी हिंदी शिक्षकों के प्रशिक्षण के अलावा विभिन्न विश्व हिंदी सम्मेलनों और क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलनों में सक्रिय सहभागिता कर चुके हैं। भारतीय राजनयिक के तौर पर आप फ़िजी स्थित भारतीय उच्चायोग में प्रथम सचिव (हिंदी और शिक्षा) के महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं।
पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से निरंतर अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान, कोश निर्माण, पाठालोचन, अनुवाद और सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में अपनी देश-विदेश में सशक्त उपस्थिति दर्ज़ कराने वाले डॉ. विमलेश कांति वर्मा की भारतीय लोकवार्ता और प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य के अध्ययन और अनुसंधान के अलावा विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण में विशेष रुचि रही है। डॉ. वर्मा ने विदेशियों के लिए हिंदी के विविध स्तरीय पाठ्यक्रमों का निर्माण करने के साथ-साथ प्रभावी शिक्षण विधियों का भी विकास किया और स्तरीकृत शिक्षण सामग्री भी तैयार की। आपने विशेषतः फ़िजी, मॉरिशस, सूरीनाम और दक्षिण अफ़्रीका में प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे सृजनात्मक हिंदी साहित्य की विशिष्ट भाषिक शैलियों पर गंभीर अध्ययन-अनुसंधान किया है।
अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से अलंकृत हिंदी के समर्पित शिक्षक-यायावर डॉ. विमलेश कांति वर्मा को हाल ही में 'केंद्रीय हिंदी संस्थान' ने 'महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार' प्रदान किया है।
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