Thursday, 4 July 2013

दो सदियों के संधिकाल के कवि इवान बूनिन


रूसी साहित्य के इतिहास में कालजयी लेखक, कवि, अनुवादक इवान बूनिन का अपना विशेष स्थान है| उन्हें “दो सदियों के संधिकाल” का लेखक माना जाता है, हालांकि उनकी साहित्यिक धरोहर का बड़ा भाग बीसवीं सदी से ही नाता रखता है| वह एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिनको 19वीं सदी के अमर लेखक तोल्स्तोय की बराबरी का माना जाता है| बीसवीं सदी के जितने भी लेखकों ने रूसी साहित्य की परम्पराओं का पालन करना चाहा, वे सभी शैली के मामले में चाहे-अनचाहे बूनिन के क़दमों पर चल निकलते थे| ऐसी क्या आकर्षण-शक्ति थी बूनिन की शैली में? उन्होंने स्वयं इस प्रश्न का यह उत्तर दिया था: “मेरा सारा जीवन-बोध एक प्रकार से भौतिक है| गंध, रंग, प्रकाश, वायु, मदिरा, भोजन – ये सब मुझे संसार का बोध कराते हैं और यह अनुभूति इतनी तीव्र, इतनी प्रबल और उग्र होती है कि पीड़ादायी हो उठती है!” बूनिन अपने रोम-रोम से जीवन को अनुभव करते थे, जीवन का उनका बोध अति सूक्ष्म और तीव्र था और यही उनकी विलक्षण शैली का राज़ था| उन्हें हर पल यह अहसास रहता था कि वह इस एकल समग्र सृष्टि का ही एक अंश हैं| यह बोध बचपन से ही उनमें आने लगा था|
इवान बूनिन का जन्म 1870 में हुआ था| ऊंचे कुल मे, पर छोटे शहर में| पैत्रिक संपत्ति का तब तक बस नाम ही बचा था, सो बचपन गरीबी में ही बीता| यहां तक कि स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं हो सकी| मगर किशोर बूनिन को पढ़ने-लिखने की लगन थी| सोलह बरस में ही साहित्य रचना करने लगे| यही उनका जीवन-मार्ग बना – इस रास्ते पर चलते हुए उन्होंने कविता भी की और गद्य भी लिखा और आखिर नोबल पुरस्कार के सबसे ऊंचे मुकाम तक जा पहुंचे| 1933 में साहित्य सृजन में उनके अद्वितीय योगदान को स्वीकारते हुए यह सम्मान उन्हें दिया गया|
बूनिन के जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव आए, पर दो घटनाओं ने उन के मन पर सबसे गहरी छाप छोड़ी| एक थी छोटी उम्र में ही इकलौते बेटे की मौत| दूसरी थी 1917 की बोल्शेविक क्रांति, जिसके कारण उन्हें अपना देश छोड़कर अंत तक प्रवासी का जीवन बिताना पड़ा| कोई भी रोग – मानव शरीर का हो या समाज का, किसी भी तरह का अन्याय – समाज की विषमता से जन्मा या युद्ध और संग्राम से - इस सब को उनका ह्रदय कतई मानने को तैयार नहीं था, क्योंकि यह सब लाता है क्षति और ह्रास, विनाश और मौत| इस सब की वेदना से उनकी अंतरात्मा विलाप करती थी| इस भावना ने उनके सृजन में बड़ी प्रबल अभिव्यक्ति पाई| प्रवासी होने की विवशता तो मरते दम तक उनके मन का रिसता घाव रही|
मातृभूमि से बिछुड़ कर, उससे दूर रहते हुए ही वह उसके बारे में, और रूसी व्यक्ति की प्रकृति के बारे में वे ऐसे सुकोमल और स्नेहमय शब्द लिख पाए, जिन्हें वह स्वदेश में रहते हुए ज़बान पर लाने में शायद झिझकते थे| उनके जीवन के अंतिम वर्ष फ़्रांस में बीते| यहीं पर उन्होंने बहुत सी ऐसी रचनाएँ लिखीं, जिनका विषय प्रेम ही था| बूनिन यह मानते थे कि सच्चा प्रेम बहुत हद तक प्रकृति में व्याप्त सामंजस्य जैसा ही है| बस इसी भावना का उन्होंने यशगान किया|
जैसा कि हमने शुरू में बताया है बूनिन का जन्म एक ऊंचे कुल में हुआ था| परंतु न तो रूस में रहते हुए, न ही विदेश में उन्होंने उच्च वंश का होने का कभी कहीं ज़िक्र होने दिया| उन्होंने कभी भी धन-दौलत को जीवन का सार नहीं माना| अपने नोबल पुरस्कार की विशाल राशि उन्होंने उन रूसी लेखकों में बाँट दी, जो उनकी ही भांति यूरोप में अभावग्रस्त प्रवासी जीवन बिता रहे थे, हालांकि स्वयं बूनिन की ज़िंदगी रईसी से कोसों दूर थी|
बूनिन यात्राओं के शौक़ीन थे, सारे यूरोप का उन्होंने भ्रमण किया, अफ्रीका भी गए| भारत तो नहीं पहुंचे, हां भारत के पास श्रीलंका तक ज़रूर गए| हिंद महासागर की भव्यता पर वह मुग्ध हो गए और उन्होंने अपनी मशहूर कविता ‘महासागर’ लिख डाली| लंका में उन्होंने पूरा एक महीना बिताया – द्वीप के हर कोने में गए| अद्भुत प्रकृति, अति प्राचीन सभ्यता, अनूठे बौद्ध स्मारक – संवेदनशील लेखक का मन क्यों न हर ले यह सब!
देखिये बूनिन ने अपनी डायरी में क्या लिखा: “किंवदंती है कि स्वर्ग यहीं था| यहां सिलोन में आदम की चोटी है और वह पुल भी है, जिस पर स्वर्ग से निकाले गए आदम और एवा भागकर भारत पहुंचे थे| हां, सच में यहाँ स्वर्ग है| बौद्ध मंदिर में पूजा ने तो सुध-बुध भुला दी| पहली बार हम जब वहाँ पहुंचे तो सांझ घिर रही थी| धूमिल सा प्रकाश, मंजीरों की झंकार, मृदंगों की धमाधम, बांसुरियों के मधुर स्वर, मदमस्त करती सुरभि फैलाते अनगिनत पुष्प और पीताम्बरधारी भिक्षु! कितना अच्छा है कि यहां वेदि पर पुष्पांजलि अर्पित होती है|”
लंका के अनुराधापुर को बूनिन ने राजाधिराज की नगरी कहा| उस पर उनकी मशहूर कहानी का एक अंश आपकी सेवा में पेश है...
क्या है अनुराधापुर? कितने ऐसे लोग हैं जो उसे जानते हैं या जिन्होंने उसका नाम सुना है? यह बौद्ध जगत का एक पवित्रतम स्थल है, सिलोन की प्राचीन राजधानी है| घने जंगलों से घिरे, भूले-बिसरे कोने में छिपे अनुराधापुर का इतिहास ढाई हज़ार साल से भी अधिक पुराना है| अब तो इसकी विगत भव्यता के अवशेष ही यहां बचे हैं| लेकिन पूरे दो हज़ार साल तक यह फलता-फूलता नगर था, जिसका नाम पूर्व के सभी देशों में आदर-सम्मान से लिया जाता था| यह उतना ही बड़ा था, जितना आज का पेरिस है| इसके भवनों का स्थापत्य, उनके संगमरमर की दूधिया सफेदी और सोने की जगमग रोम से कतई कम नहीं थी| और इसके स्तूप मिस्र के पिरामिडों को भी मात देते थे|
सिलोन की भव्य प्रकृति और उसकी प्राचीन राजधानी ने उन्हें मोह लिया, उनके मन में बस गए| परंतु वह तो एक सच्चे रूसी लेखक थे, सो उनके ध्यान का मुख्य केन्द्र-बिंदु मनुष्य ही था| सभी जगहों की भांति यहां भी वह गौर से आम लोगों की ज़िंदगी देखते रहे, उनका रहन-सहन, आचार-व्यवहार – यह सब जानते, समझते रहे| उनके साथ उठने-बैठने, मिलने-जुलने के भी वह बड़े इच्छुक रहे, मगर यहां उन्हें कुछ विचित्र ही अनुभव हुए – आम लोगों की ओर से नहीं, गोरे हुक्मरान की ओर से| ऐसे ही कुछ अनुभवों का वर्णन उन्होंने अपनी कहानी ‘थर्ड क्लास’ में किया| तो, आइये, सुनें बूनिन का अनुराधापुर की ट्रेन यात्रा का अनुभव:
थर्ड क्लास
नादान हो तुम, अगर यह सोचते हो कि जब चाहो और जहाँ चाहो तुम्हें इस थर्ड क्लास मे सफर करने का पूरा हक है|
कोलोम्बो, सिलोन, मार्च 1911| प्रातःकाल, अभी आठ भी नहीं बजे|
अभी से गर्मी जानलेवा हो गई है| सफ़ेद कपड़े और सफ़ेद हैट ताने मैं इक्के पर सवार हो गया, चल दिया स्टेशन को अनुराधापुर की गाड़ी पकडने|
लो, आगे चौक आ गया – सूना और सफ़ेद, चकाचौंध करती है उसकी सफेदी और उसके पीछे है स्टेशन की दूधिया सफ़ेद इमारत - और भी ज़्यादा चकाचौंध करती| तपिश के मारे आसमान का नीलापन धुंधला गया है इस धूमिल आकाश की पृष्ठभूमि में स्टेशन की सफेदी से आँखें चुंधियाती हैं|स्टेशन के अंदर थोड़ी राहत मिलती है – यहां गरम हवा आर-पार बह रही है|
हैट उतारकर मैं पसीने से तर बर्फीला माथा पोंछता हूं| ट्रेन तैयार खड़ी है| जल्दी से टिकटघर की ओर जाता हूं, रास्ते में ठीक उतने सिक्के जेब से निकाल लेता हूं, जितना अनुराधापुर तक थर्ड क्लास का किराया है| टिकटघर की खिड़की से झांकते अंग्रेज़ के सामने सिक्के टकटकाता हूं:
- अनुराधापुर, थर्ड क्लास!
- फर्स्ट क्लास? – अंग्रेज़ पूछता है|
- नो, थर्ड क्लास! – मैं चिल्लाता हूं|
- येस, फर्स्ट क्लास! – अंग्रेज़ भी चिल्लाकर बोलता है और
फर्स्टक्लास का टिकट मेरी ओर बढ़ा देता है|
तब मैं अपना आपा खो बैठता हूं और कुछ ऐसे चिल्लाने लगता हूं:
“सुनो मिस्टर! आई एम फेड अप! मैं यह देश देखने आया हूं, इसकी सभी खूबियां देखना चाहता हूं, इसकी सारी ज़िंदगी, इसके सभी लोगों को, उनको भी जिन को तुम गोरे “घिनौने काले” कहते हो, जो फर्स्ट क्लास मे सफर करना तो दूर, उसकी सोचने तक की ज़ुर्रत नहीं कर सकते| पर हर बार जब मैं थर्ड क्लास में बैठना चाहता हूं, तो तुम कैशियरों से जंग छिड़ जाती है! मैं साफ-साफ कहता हूं थर्ड क्लास और आप लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं:“अच्छा-अच्छा, फर्स्ट क्लास!” मैं चिल्लाता हूं, नहीं थर्ड क्लास! मगर फिर भी फर्स्ट क्लास का टिकट ही बढ़ा देते हैं, मैं उसे लौटाता हूं, तब कैशियर भौचक्का रह जाता है, हैरान – परेशान हो जाता है कि इस गोरे का सिर फिर गया है जो कालों के बीच बैठना चाहता है, वह भी चिल्लाने लगता है, मुझे डराता है कि इन कलूटों के बीच बैठकर न जाने क्या-क्या बीमारियाँ पकड़ लूँगा, ऊपर से मुझे नसीहत देने लगता है कि जनाब कोई गोरा कभी भी, किसी हालत में भी थर्ड क्लास में सफर नहीं करता, कि यह सरासर बेहूदगी है, ऐसा हो ही नहीं सकता, पागलपन है यह!”
और मैं पूरी सख्ती से मांगता हूं:
- चलो, जो मैं चाहता हूं वही करो, तुरंत थर्ड क्लास का टिकट काटो|
आखिर कैशियर हार मान लेता है, मेरा गुस्सा देखकर वह स्तब्ध रह जाता है| और आखिर थर्ड क्लास का टिकट मेरी ओर फेंक देता है|
अपनी जीत से मैं फूला नहीं समाता हूं और जाकर थर्ड क्लास के डिब्बे में विराजमान हो जाता हूं| राह देखने लगता हूं कि कब मेरे हमसफर, ये “कलूटे” डिब्बे में बैठने लगेंगे| प्लेटफार्म पर मेरे डिब्बे के आगे से दौड़ते जा रहे नंगे पांवों की सरसराहट आती रहती है|
पर सभी इस डिब्बे से आगे कहीं दौड़े जाते हैं| क्यों भला?
फिर मुझे ख्याल आता है, अरे ये गोरे आदमी के सफ़ेद हैट को देखकर सकपका रहे हैं|
मैं हैट उतार देता हूं, एक कोने में दुबककर बैठ जाता हूं, फिर से इंतज़ार करने लगता हूं, मगर सब व्यर्थ|
“अब क्यों नहीं आ रहा कोई?” मैं सोचता हूं| “अब तो मैं किसी को दिख भी नहीं रहा|”
मैं लपककर खड़ा होता हूं, खिड़की से बाहर झांकता हूं – आखिर माजरा क्या है? तुरंत सारी बात साफ हो जाती है: मेरे डिब्बे पर किसी ने चाक से बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया है – नो सीट! मैं आकर बैठा भी नहीं कि किसी ने डिब्बे पर लिख दिया – नो सीट! लो, बड़ी ज़िद कर रहे थे न थर्ड क्लास में सफर करने की, ज़बरदस्ती टिकट कटवा लिया, तो बैठो अब यहां मूरखराज!
इस सुहावनी स्वर्गिक धरती पर आकाश से बरसती, चकाचौंध करती अथाह तपिश के बीच ट्रेन दौडी जा रही है, फलते-फूलते तरुवर पीछे छूटते जा रहे हैं, सघन कुंजों से प्रतिध्वनित हो रही ट्रेन की धुकधुक गूंज रही है|
ट्रेन रुकती है, नारियल बेचने वालों की आवाज़ें गूंजती हैं – मेरे डिब्बे के बगल से दौड़ते जा रहे नंगे पांवों की सरसराहट के बीच|
अगली बार जब ट्रेन रूकती है तो मैं चोरों की तरह दौडकर चौथे दर्जे के डिब्बे में चढ़ जाता हूं| डिब्बा खचाखच भरा हुआ है, काले और सांवले लोगों से - कोई बैठा है, तो कोई खड़ा, कमर पर बस एक धोती बांधे, जो पसीने से तर हो रही है|
तो यह था रूसी लेखक इवान बूनिन की कहानी ‘थर्ड क्लास’ का एक अंश|
‘रूसी संस्कृति की झलकियाँ’ हम आपको आगे भी दिखाते रहेंगे| (hindi.ruvr.ru)

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