Thursday, 4 July 2013

उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखक लेव तालस्तोय


लेव तालस्तोय उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में से एक हैं। उनका जन्म रूस के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने रूसी सेना में भर्ती होकर क्रीमियाई युद्ध (1855) में भाग लिया, लेकिन अगले ही वर्ष सेना छोड़ दी। लेखन के प्रति उनकी रुचि सेना में भर्ती होने से पहले ही जाग चुकी थी। उनके उपन्यास युद्ध और शान्ति (1865-69) तथा आन्ना करेनिना (1875-77) साहित्यिक जगत में क्लासिक रचनाएँ मानी जाती है। धन-दौलत व साहित्यिक प्रतिभा के बावजूद तालस्तोय मन की शांति के लिए तरसते रहे। अंततः 1890 में उन्होंने अपनी धन-संपत्ति त्याग दी। अपने परिवार को छोड़कर वे ईश्वर व गरीबों की सेवा करने हेतु निकल पड़े। उनके स्वास्थ्य ने अधिक दिनों तक उनका साथ नहीं दिया। आखिरकार 20 नवंबर 1910 को अस्तापवा नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर इस धनिक पुत्र ने एक गरीब, निराश्रित, बीमार वृद्ध के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया।
इनका जन्म मास्को से लगभग 100 मील दक्षिण मैत्रिक रियासत यास्नाया पौल्याना में हुआ था। इनकी माता पिता का देहांत इनके बचपन में ही हो गया था, अत: लालन पालन इनकी चाची तत्याना ने किया। उच्चवर्गीय ताल्लुकेदारों की भॉति इनकी शिक्षा के दीक्षा के लिये सुदक्ष विद्वान् नियुक्त थे। घुड़सवारी, शिकार, नाच-गान, ताश के खेल आदि विद्याओं और कलाओं की शिक्षा इन्हें बचपन में ही मिल चुकी थी। चाची तात्याना इन्हें आदर्श ताल्लुकेदारों बनाना चाहती थी और इसी उद्देश्य से, तत्मालीन संभ्रात समाज की किसी महिला को प्रेमपात्री बनाने के लिये उसकाया करती थीं। युवावस्था में तॉलस्तॉय पर इसका अनुकूल प्रभाव ही पड़ा। पर तॉलस्तॉय का अंत:करण इसे उचित नहीं समझता था। अपनी डायरी में उन्होंने इसकी स्पष्ट भर्त्सना की है। 1844 में तॉलस्तॉय कज़ान विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए और 1847 तक उन्होनें पौर्वात्य भाषाओं (eastern languages) और विधिसंहिताओं (कानून) का अध्ययन किया। रियासत के बँटवारे का प्रश्न उपस्थित हो जाने के कारण स्नातक हुए बिना ही इन्हे विश्वविद्यालय छोड़ देना पड़ा। रियासत में आकर इन्होंने अपने कृषक असामियों की दशा में सुधार करने के प्रयत्न किए और सुविधापूर्वक उन्हें स्वतंत्र भूस्वामी हो जाने के लिये कतिपय शर्तें उपस्थित कीं, परंतु असामी वर्ग आसन्न स्वतंत्रता की अफवाहों से प्रभावित था, अत: उसने तॉलस्तॉय की शर्ते ठुकरा दीं। पर यह अफवाह अफवाह ही रही और अंतत: कृषकों को पश्चाताप करना ही हाथ लगा। उनकी कहानी "ए लैंड औनर्स मोर्निग" (1856) इसी घटना पर आधृत है। 1851 में तॉलस्तॉय कुछ समय के लिये सेना में भी प्रविष्ट हुए थे। उनकी नियुक्ति कोकेशस में पर्वतीय कबीलों से होनेवाली दीर्घकालीन लड़ाई में हुई जहाँ अवकाश का समय वे लिखने पढ़ने में लगाते रहे। यहीं पर उनकी प्रथम रचना चाइल्डहुड 1852 में निर्मित हुई जो एल0 टी0 के नाम से "टि कंटेंपोरेरी" नामक पत्र में प्रकाशित हुई। उस रोमैंटिक युग में भी इस नीरस यथार्थवादी ढंग की रचना ने लोगों को आकृष्ट किया और उसके रचनाकार के नाम के संबंध में तत्कालीन साहित्यिक तरह तरह के अटकल लगाने लगे थे।
1854 में तॉलस्तॉय डैन्यूब के मोर्चे पर भेजे गए; वहाँ से अपनी बदली उन्होने सेबास्तोपोल में करा ली जो क्रीमियन युद्ध का सबसे तगड़ा मोर्चा था। यहाँ उन्हें युद्ध और युद्ध के संचालकों को निकट से देखने परखने का पर्याप्त अवसर मिला। इस मोर्चे पर वे अंत तक रहे और अनेक करारी मुठभेड़ों में प्रत्यक्षत: संघर्षरत रहे। इसी के परिणामस्वरूप उनकी रचना "सेबास्टोपोल स्केचेज" (1855-56) निर्मित हुई। युद्ध की उपयोगिता और जीवन पर उसके प्रभावों को निकट से देखने समझने के यथेष्ट अवसर उन्हें यहाँ मिले ओर इन उपलब्धियों का यथोचित उपयोग उन्होंने अपनी अनेक परवर्ती रचनाओं में किया। 1855 में उन्होने पीटर्सवर्ग की यात्रा की जहाँ के साहित्यिकारों ने इनका बड़ा सम्मान किया। 1857 ओर 1860-61 में इन्होंने पश्चिमी यूरोप के विभिन्न देशों का पर्यटन किया। परवर्ती पर्यटन का मुख्य उद्देश्य एतद्देशीय शिक्षापद्धतियों और दातव्य संस्थाओं के संघटन और क्रियाकलापों ही जानकारी प्राप्त करना था। इसी यात्रा में उन्हे यक्ष्मा (टीबी) से पीड़ित अपने बड़े भाई की मृत्यु देखने को मिली। घोरतम यातनाओं के अनंतर होनेवाली यक्ष्माक्रांत भाई की मृत्यु का तॉलस्तॉय पर मर्मातक प्रभाव पड़ा। वार ऐंड पीस, अन्ना कैरेनिना और दि डेथ आव इवैन ईलियच में मृत्यु के जो अत्यंत मार्मिक चित्रण मिलते हैं, उनका आधार उपर्युक्त घटना ही रही है।
यात्रा से लौटकर उन्होंने अपने गाँव यास्नाया पोल्याना में कृषकों के बच्चों के लिये एक स्कूल खोला। इस विद्यालय की शिक्षा पद्धति बड़ी प्रगतिशील थी। इसमें वर्तमान परीक्षाप्रणाली एवं इसके आधार पर उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण कारने की व्यवस्था नहीं रखी गई थी। विद्यालय बड़ा सफल रहा जिसका मुख्य कारण तॉलस्तॉय की नेतृत्व शक्ति और उसके प्रति हार्दिक लगन थी। विद्यालय की ओर से, गाँव के ही नाम पर ""यास्नाया पोल्याना"" नामक एक पत्रिका भी निकलती थी जिसमें प्रकाशित तॉलस्तॉय के लेखों में विद्यालय ओर उसके छात्रों की विभिन्न समस्याओं पर बड़े ही सारगर्भित विचार व्यक्त हुए हैं। 1862 में तॉलस्तॉय का विवाह साफिया बेर्हस नामक उच्चवर्गीय संभ्रांत महिला से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन का पूर्वाश तो बड़ा सुखद रहा पर उत्तरांश कटुतापूर्ण बीता। तॉलस्तॉय के वैवाहिक जीवन में गृहिणी का आदर्श पूर्णत: भारतीय गृहिणी का सा था: पर तत्कालीन रूसी संभ्रांत समाज के विचार बिल्कुल भिन्न थे। 1863 से 1869 तक तॉलस्तॉय का समय "वार ऐंड पीस" की रचना में एवं 1873 से 76 तक का समय "अन्ना कैरेनिना" की रचना में बीता। इन दोनों रचनाओं ने तॉलस्तॉय की साहित्यिक ख्याति को बहुत ऊँचा उठाया। वे मनुष्यजीवन का रहस्य और उसके तत्वचिंतन के प्रति विशेष जागरूक थे। 1875 से 1879 तक का समय उनके लिये बड़ा निराशजनक था- ईश्वर पर से उनकी आस्था तक उठ चुकी थी ओर आत्महत्या तक करने पर वे उतारू हो गए थे। पर अंत में उन्होंने इसपर विजय पाई। 1878-79 में इन्होने "कनफेशन" नामक अपनी विवादपूर्ण कृति की रचना की। इसके क्रांतिकारी विचार ऐसे हैं जिनके कारण रूस में इसके प्रकाशन की अनुमति भी नहीं मिली और पुस्तक स्विटलरलैंड में प्रकाशित हुई। इस समय की उनकी अन्य कई रचनाएँ इसी कोटि की हैं और वे सब स्विटजरलैंड में छपी हैं। 1878 से लेकर 1885 तक की अवधि में फलात्मक साहित्य सृजन की दृष्टि से तॉलस्तॉय निष्क्रिय रहे। उनकी अंतर्वृति मानव जीवन के रहस्य की खोज में उलझी रही। अंबतक की समस्त रचनाएँ उन्हें व्यर्थ प्रतीत होने लगीं। पर 1886 में वे पुन: उच्चकोटि के सिद्धहस्त उपन्यास लेखक के रूप में सामने आए और इसी वर्ष उनकी महान् उपन्यासिक रचना ""डि डेथ आव इवैन ईल्यिज"" प्रकाशित हुई। उनके आचार संबंधी विश्वासों के प्रति अब सारा संसार आकृष्ठ हो चुका था, और यास्नाया पोल्याना ग्राम की मान्यता उत्कृष्ट तीर्थस्थली के रूप में जगद्धिख्यात हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस समय युवक थे। इन्हीं दिनों उन्होंने तॉलस्तॉय की रचनाएँ रुचिपूर्वक पढ़ी थीं और उनकी ओर आकृष्ट हुए थे। 19वीं शताब्दी का अंत होते होते दरिद्रों और असहायों के प्रति तॉलस्तॉय की सेवावृति यहाँ तक बढ़ी कि उन्होने अपनी रचनाओं से रूस देश में होनेवाली अपनीं समस्त आय दान कर दी। अपनी पत्नी को मात्र उतना अंश लेने की उन्होंने अनुमति दी जितना परिवार के भर पोषण के लिये अनिवार्य था। "रिसरेक्शन" (1899) नामक अपने उपन्यास की समस्त आय उन्होंने रूस की शांतिवादी जाति दुखेबोर लोगों को रूस का परित्याग कर कैनाडा में जा बसने के लिये दे दी। 1910 में सहसा उन्होंने अपने पैत्रिक ग्राम "यास्नाया पोल्याना" को सर्वदा के लिये परित्यक्त करने का निश्चय किया। 10 नवंबर 1910 को अपनी पुत्री ऐलेक्लेंड्रा के साथ उन्होनें प्रस्थान किया, पर 22 नवबंर 1910 को मार्ग के स्टेशन ऐस्टापोवो में अकस्मात् फेफड़े में दाह होने से वहीं उनका शरीरांत हो गया।
उनकी धर्मभवना बड़ी उदार और व्यापक थी। तत्कालीन ईसाई धर्म के प्रति उनकी स्पष्टत: विरोधी भावना थी। अपने विचारों से वे एक प्रकार के सर्वदेववादी प्रतीत होते हैं। मृत्यु को वे शरीर की अंतिम ओर अवश्यंभावी परिणति मानते थे। मनुष्य को वे शरीर की अंतिम और अवश्यंभावी परिणति मानते थे। मनुष्य के संपर्क में आनेवाली प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता के मानदंड से आँकना वे उचित समझते थे और इसी कारण जीवन की सोद्देश्यता के प्रति वे सर्वदा जिज्ञासु बने रहे। निरुद्देश्य, विचारहीन ओर आत्मकेंद्रित जीवन को वे एक प्रकार का पाप मानते थे; यहाँ तक कि संभोग को वे केवल संतानोत्पत्ति के उद्देश्य से ही विहित मानते थे। मनोवैज्ञानिक रचनाओं में दोस्तोव्स्की ही तॉलस्ताय के समकक्ष ठहरते हैं। गाल्स्वर्दी, टामस मान, जूल्स रोम्याँ आदि महान् लेखकों पर तॉलस्तॉय का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है। परवर्ती रूसी लेखकों को भी तॉलस्तॉय ने यथेष्ट प्रभावित किया है।

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