Tuesday, 23 July 2013

शिवमूर्ति: हमें नयी पीढ़ी के लेखन पर विश्वास रखना होगा


वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार शिवमूर्ति से बातचीत

प्रभात- आपकी लगभग सारी कहानियॉ, तीनों उपन्यासों का परिवेश ग्रामीण है। हिन्दी में कौन लेखक आपको दिखाई देते हैं जिनके लेखन में गांव का यह परिवेश विश्वसनीय तरीके से आया है? किनको आप अपना पूर्वज मानते हो?
शिवमूर्ति- उस रूप में तो प्रेमचन्द और रेणु ही प्रमुख दिखाई देते हैं। बाद की पीढ़ी में कई हैं। रेणु का कहने का तरीका बहुत आकर्षित करता है। मैला आंचल को अगर आप देखें तो उसके सारे अध्याय चार-साढ़े चार पेज के हैं और अपने-आपमें पूर्ण हैं। ऐसा नहीं है कि कोई अध्याय 5 पेज का है और कोई दस पेज का। उसी में जो कहना है पूरा कह देते हैं। एक डायलॉग में बहुत सारी चीजें कह देते हैं। उनमें जो कौशल है, जो लाघव है उसे एक लेखक के तौर पर उनसे सीखा जा सकता है।
प्रभात- रेणु के बारे में कहा जाता रहा है कि उनमें राजनीतिक चेतना का अभाव था। गांव का जीवन तो उनकी रचनाओं में है लेकिन उसका तनाव उनकी रचनाओं में दिखाई नहीं देता। एक प्रकार का भोलापन दिखाई देता है।
शिवमूर्ति- ऐसा नहीं है। रेणु के साहित्य में राजनैतिक चेतना पर्याप्त है। चाहे मैला आंचल में देखिए चाहे परती परिकथा में, जुलूस में या कहानी आत्मसाक्षी में। केवल जातीय संघर्ष या जातिवाद ही नहीं है गांव में। बहुत कुछ सकारात्मक भी है जिस पर रेणु की नजर गयी है। उनके साहित्य में जीवन के बहुरंगी पक्ष को अभिव्यक्ति मिली है। वे विचारधारा की संकीर्णता से भी थोड़ा ऊपर थे। रचना विचारधारा का स्थूल विज्ञापन नहीं होना चाहिए। विचारधारा की उपस्थिति रचना में उसी प्रकार होना चाहिए जैसे शरबत में चीनी। अदृश्य फिर भी मिठास से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हुई। शोषक और शोषित की परिभाषा भी बदलती रहती है। जो जाति जहाँ बलवान हो जाएगी वहीं शोषक बन जाएगी। शोषक और शोषित के लिए अलग-अलग जातियों का होना भी जरूरी नहीं है। इसी नजरिए से देखना चाहिए। जो लोग यांत्रिक वर्गीकरण कर देते हैं वे हकीकत से दूर हो जाते हैं। रेणु के यहां ऐसा नहीं है कि वे किसी शोषक का समर्थन कर रहे हैं या किसी के शोषण में मजा ले रहे हैं।
प्रभात- कहा जाता है कि गांव के जीवन का यथार्थ चित्रण रेणु के साहित्य में नहीं है।
शिवमूर्ति – गांव का असली परिवेश, पार्टीबन्दी, जातिवादी सोच परती परिकथा में उभर कर आया है। जित्तन, ताजमणि, और लुत्तो सम्बन्धी विवरणों में आप उसे देख सकते हैं। मैला आंचल में भी है। उस जमाने में हिन्दी में जाति-पांति के जहर पर सीधे-सीधे लिखने वाला कोई नहीं था। रेणु ने एक अलग ढंग से इसकी शुरूआत किया। मेरी नजर में रेणु प्रेमचंद के आगे की परम्परा के लेखक हैं। प्रेमचंद सामाजिक मर्यादा में जीने वाले लेखक थे। मर्यादित ढंग से साहित्य भी लिखते थे। जीवन में दिखाई देने वाले राग-रंग के चटक और खुले चित्रण से बचते थे। लेकिन रेणु रसिक हैं, जिन्दादिल हैं, कवि भी हैं। इसलिए जीवन में जैसा राग-रंग दिखाई देता है वैसा ही लिखते हैं। रेणु के बाद उस तरह का कलम का धनी मुझे नहीं दिखाई देता। विचारधारा के अतिरेक पर जोर देने वालों में रेणु को लेकर जो असंतोष है वह धीरे धीरे कम हो जायेगा। रेणु का महत्व समय के साथ बढ़ेगा।
प्रभात- आपने मैं और मेरा समय में लिखा है कि आप आरम्भ में प्रेम वाजपेयी, कुशवाहा कांत, गुलशन नन्दा जैसे लोकप्रिय लेखकों के उपन्यास पढ़ा करते थे और वे आपको पसंद भी आते थे। क्या-क्या पढ़ा उस दौर में... कुछ याद आता है?
शिवमूर्ति- एक तो प्रेम वाजपेयी के उपन्यास की याद है। उपन्यास का नाम तो याद नहीं। हां, उसका एक कैरेक्टर था मंगली डाकू। आज तक याद है। वह रात के अंधेरे में निकलता था और अत्याचारियों का सफाया करता था। उनके उपन्यासों में भी गरीबी-अमीरी की खाई उसी तरह होती थी। बस उनमें औदात्य नहीं होता था, गहराई नहीं होती थी। लेकिन उनका उस उम्र में आकर्षण तो था ही। मैं तो इतना प्रभावित था कि प्रेम वाजपेयी से कि मिलने दिल्ली चला गया।
प्रभात- संजीवजी ने लिखा है कि जब आप रेलवे में था तब आपने भी इस तरह का उपन्यास लिखा था?
शिवमूर्ति- हाँ, इस नौकरी में आने से पहले मैं पंजाब में रेलवे में नौकरी करता था। वहीं मेरा एक उपन्यास आया था पतंगा। पंजाब केसरी में धारावाहिक छपा था-बीस बाईस किस्तों में। उस पर मेरे पास एक बोरा चिट्ठियां आई थी। कहीं घर में होंगी।
प्रभात- उसको पुस्तक के रूप में आपने नहीं छपवाया?
शिवमूर्ति- नहीं। वह वैसा ही था जैसा प्रेम वाजपेयी लिखा करते थे। उसके छपने तक मेरी साहित्यिक यात्रा आगे बढ़ गयी। लेकिन बड़ा अपीलिंग था। दो प्रेमियों की कहानी थी। उनकी शादी नहीं हो पाती है तो वे जान दे देते हैं। जहां नदी में डूबकर मरते हैं वहां दो पेड़ उगते हैं- एक पीपल का, एक पाकड़ का। दोनों एक दूसरे से लिपटे हुए रहते हैं। ऐसी ही कहानी थी।
प्रभात- आप किस कहानी से अपनी साहित्यिक यात्रा का आरम्भ मानते हैं?
शिवमूर्ति- छपने के लिहाज से कसाईबाड़ा से, जो जनवरी 1980 के धर्मयुग के ग्राम-कथा विषेषांक में छपी थी। यद्यपि पंजाब में रहते हुए कसाईबाड़ा से भी पहले मैने भरतनाट्यम लिखी थी 1975 में। कसाईबाड़ा 1976 में लिखी थी। लिख तो लिया लेकिन कहीं भेजी नहीं। जब इस नौकरी में कानपुर में पोस्टिंग हुई तो वहां बलराम मिल गये। वहीं मैंने बलराम को दोनों कहानियां दी। बलराम ने बाद में कसाईबाड़ा को धर्मयुग में भेज दिया और जब सारिका में उप सम्पादक हुए तो भरत नाट्यम को 1981 में सारिका में छापा।
प्रभात- आपकी पहली ही कहानी कसाईबाड़ा गांव के बारे में एक नया सच सामने रखती है जो भयानक खबर की तरह है। कहानी में पंक्ति आती है- यह पूरा गांव कसाईबाड़ा है। पाठकों-लेखकों की कैसी प्रतिक्रिया रही?
शिवमूर्ति- बहुत ही उत्साहवर्धक। एक साल तक धर्मयुग में इसके बारे में चिठ्ठियां छपती रहीं. फिर सारिका में रिपोर्ट आयी कि मनहर चौहान 75 लोगों की एक टीम बनाकर कसाईबाड़ा का मंचन कर रहे हैं और देश भर की 150 जगहों पर इसका मंचन करने की योजना है। इस पर फिल्म बनने के अलावा न केवल हिन्दी में बल्कि अनूदित भाषाओं में भी इसके मंचन की खबरे आती रहती हैं। शायद ही कोई महीना ऐसा जाता हो जिस महीने इसके मंचन की खबर न आये। इसको मैं अपनी सफल कहानी मानता हूँ। यद्यपि ज्यादातर लोग, जैसे संजीव आदि भरत नाट्यम को इससे अच्छी कहानी मानते हैं।
प्रभात- गांव का बदलता हुआ यथार्थ आपकी कहानियों-उपन्यासों के केन्द्र में रहा है। कसाईबाड़ा में दिखता है कि सारा गांव शोषण तंत्र में शामिल हो गया है, त्रिशूल में गांव का खराब होता धार्मिक माहौल है, तर्पण में एक दूसरी तरह का जातीय उभार है। आखिरी छलांग तक आते-आते लगता है कि शहरी संस्कृति के सामने गांव ने सरेन्डर कर दिया है?
शिवमूर्ति- गांव का यथार्थ इतना बहुविध, बहुस्तरीय है कि एक ही रचना में सारा कुछ नहीं आ सकता। इसीलिए त्रिशूल में जातिवाद और साम्प्रदायिकता को, तर्पण में दलित अस्मिता को, और आखिरी छलांग में पूरे ग्रामीण समाज पर समग्रता में छा रहे संकट को विषय बनाया है। गॉव में बहुविधि परिवर्तन हो रहा है। अच्छी और बुरी दोनों दिशाओं में। भ्रष्टाचार और जातीय युद्ध बढ़ रहे हैं और इनसे लड़ने वाले भी पैदा हो रहे हैं। गांव में लिखने के लिए इतना कुछ है कि सैकड़ों लोग लिखे जायेंगे फिर भी बहुत कुछ छूट जायेगा।
प्रभात- कोई विदेशी लेखक जिसने आपको प्रभावित किया हो?
शिवमूर्ति- कई हैं। लेकिन यदि केवल एक नाम लेना हो तो मैं जैक लंडन का नाम लूंगा। उनकी वर्णन क्षमता का कोई जवाब नहीं। उनका जीवन भी विचित्र था। वे जारज संतान थे। बचपन में समुद्री डाकू बन गये। १५ साल की उम्र में अपने प्रतिद्वन्दी समुद्री डाकू को हराया और उसकी बेटी से, जो उससे १ साल बड़ी थी, विवाह किया। डकैती के दौरान पकड़े जाने पर जेल में बन्द हुए तो पढ़ना शुरू किया। उनका उपन्यास द काल आफ दि वाइल्ड पढ़िए तो रोंगटे खेड़े हो जायें। कुत्ते की कहानी है। भुवनेश्वर की जो कहानी है भेडिए उसको पढ़िए तो आश्चर्यजनक साम्य मिलता है। जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी जैक लंडन ने 41 साल की उम्र में। लेखन और जीवन दोनों में अदभुत। जब उपन्यासों की रायल्टी से खूब पैसा कमा लिया तो अपनी नौका खरीद कर दूर दूर तक यात्रा किया फिर एक टापू पर अपना महल बनाया नाम रखा- वोल्फ हाऊस।
प्रभात- आपने मैं और मेरा समय में जंगू के बारे में लिखा है। उसके बारे में बताइए। उसके संघर्ष को आप किस तरह से देखते हैं?
शिवमूर्ति- मैं और मेरा समय कथा देश में 2003 में छपा था लेकिन उससे भी पहले 1995 में मैंने जनमत में जंगू के बारे में लिखते हुए बताया था कि कैसे वह इलाके के सताए गये लोगों के लिए राबिनहुड की भूमिका निभा रहा है। अन्यायियों, अत्याचारियों की टांग पेड़ की जड़ में फॅंसाकर तोड़ रहा है। यह भी लिखा था कि एक दिन आप सुनेंगें कि ऐसे न्यायप्रिय और शोषण के विरोधी नायक का इन्काउन्टर हो गया। वह निश्चित रूप से फर्जी इनकाउन्टर होगा। डेढ़ साल पहले जंगू का इनकाउन्टर हो गया, हम कुछ नहीं कर पाये। कितने लोग उसके डर से एरिया छोड़कर भाग गये। एक बार 95 में पकड़ा गया। उसका इनकाउन्टर होने वाला था। हमारे एक समधी उस समय उत्तर प्रदेश में बसपा के अध्यक्ष थे। तो उनके हस्तक्षेप से बच गया। इस बार उन लोगों ने उसको फर्जी मामले में फंसाया जिनकी उसने टांगें तोड़ी थी। पुलिस से मिलकर फर्जी मारपीट की एफ.आई.आर. लिखवाई, उसको घर से गिरफ्तार करवाया और चालान के लिए ले जाते समय रास्ते में गोली मार दी। प्रचारित यह किया कि रास्ते में जंगू के साथियों ने पुलिस पर हमला किया, जवाब में पुलिस ने गोली चलाई जिसमें जंगू मारा गया। हम लोग जंगू के यहां गये थे उसके इनकाउन्टर के बाद। एक छोटी बछिया बंधी थी। अंधेरा उतर रहा था। सन्नाटा था। सारे दरवाजे खुले थे। अलाव में धुआं सुलग रहा था। पुलिस आकर तोड़-फोड़ कर गयी थी। बताया गया कि पुलिस आतंक का वातावरण इसलिए बना रही है जिससे इनकाउन्टर के सम्बन्ध में होने वाली मजिस्ट्रेटी जॉच में पुलिस के खिलाफ बयान देने की कोई हिम्मत न करे। हमने पाया कि जंगू के घर की सारी प्रापर्टी- बर्तन भांड़े, अनाज, खटिया, मचिया आदि का कुल मूल्य 2-4 हजार रूपये से अधिक का नहीं रहा होगा। उसने इलाके के लोगों की टांगे इसलिए तोड़ दी क्योंकि उन लोगों ने कमजोरों, गरीबों के साथ ज्यादती किया था। उसने लूटपाट करके कोई अपना घर नहीं भरा था। एक और चरित्र था नाम था नरेश गड़रिया। मेरा नजदीकी मित्र था। उसका भी 35-36 साल पहले फर्जी इनकाउन्टर हुआ था।
प्रभात- इस तरह के चरित्रों को लेकर कुछ लिखने की योजना बनाई?
शिवमूर्ति- आखिरी छलांग में परिवर्तन-परिवर्धन करने के बाद जंगू और नरेश को मिलाकर कुछ लिखने की योजना बना रहा हूँ। जंगू जैसे लोगों की मानसिक रूप से किस तरह कंडीशनिंग होती है। ऐसे लोग इस स्तर तक कैसे पहुंचते हैं? इस पर कुछ काम करना चाहता हूँ। जरा सोचिए आखिर वह कैसा निष्कलुष-निःस्वार्थ और पवित्र मन रहा होगा जो उन अपरिचित गरीबों के लिए अपनी जान जोखिम में डालता रहा होगा जिनसे उसका कोई लेना देना नहीं था। उसने अकेले दम पर यह तय किया कि इलाके में किसी को ज्यादती नहीं करने देंगे। और जिसने किया उसकी टांग टूट गयी। आप सोचिए कि क्या यह मामूली मन-मस्तिष्क का काम है? किसके होते हैं ऐसे विचार? जिनके होते भी हैं वे भी वक्त के साथ डेबियेट कर जाते हैं। अपना स्वार्थ देखने लगते हैं। खतरे से डरने लगते हैं। निश्चित रूप से उनके अन्दर ऐसा कुछ होता है जो हम लोगों के अन्दर नहीं होता। समय और परिस्थितियॉ उनके अन्दर ऐसे रसायन पैदा करती हैं जिससे वे वैसे हो जाते हैं। परिवर्तन, की निर्माण की यह प्रक्रिया किस प्रकार अस्तित्व में आती है, इसे महसूस कीजिए और शब्द दीजिए। इस तरह से कि उनके साथ अन्याय भी न हो और लोगों को कन्वे भी हो जाये।
प्रभात- राजनीति आपके लेखन में प्रबल रही है। बदलती हुई राजनीति से ग्रामीण समाज किस तरह प्रभावित हो रहा है उसमें क्या बदलाव आ रहे हैं?
शिवमूर्ति- देखित बहुत कुछ बदल रहा है। कुछ खराब हो रहा है तो बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। लेकिन बहुत कुछ चीजें हैं जो अलार्मिंग हैं। गांव को सबसे ज्यादा खोखला कर रहा है जातिवाद और भ्रष्टाचार। लेकिन इनकी समाप्ति की कोई उम्मीद नहीं दिखती। प्राइमरी शिक्षा गॉव से जड़-मूल से समाप्त हो चली है। उसी जगह के रहने वाले अध्यापक बिना पढ़ाए वेतन लेने में किसी प्रकार का अपराधबोध नहीं महसूस करते। पांच कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मात्र एक या दो अध्यापक नियुक्त हैं उनमें से भी उनकी ड्यूटी कभी मतगणना, कभी जनगणना, कभी गरीबी रेखा के नीचे आने वाले लोगों की सूची बनाने में लग जाती है। दोपहर का भोजन देने का एक नया काम भी बढ़ा हुआ है। इस प्रकार अगर किसी काम के लिए समय नहीं है तो वह है पढ़ाई। शिक्षा का भठ्ठा बैठने का परिणाम यह है कि कल का ग्रामीण भारत पूरी तरह अंगूठा टेक होने वाला है। अंगूठा टेक कहना अगर आपको अतिशयोक्ति लग रही है तो अपढ़ और कुपढ़ कह लीजिए। अक्षर ज्ञान तक ही सीमित रह जाने वाली है अगली पीढ़ी। यह दारूण स्थिति है। अन्य संकट भी हैं। जैसे यह जो माओवादियों का उभार है इसे केवल प्रशासनिक समस्या मात्र माना जा रहा है। जबकि जिस तरह वहां के आदिवासियों के हिस्से का विकास हड़पा गया है, जिस तरह जानवर मानते हुए उनका शोषण होता रहा है, उसके खिलाफ खड़े होने की उनकी भावना देश को गृह युद्ध की ओर ले जा रही है। उनका भविष्य विलुप्त होने के अलावा और क्या है। अगर उन्हें विलुप्त होने से नहीं बचाया गया तो क्या हम अखंडित और अकंटक रह सकते हैं? मुझे लगता है कि इन सब समस्याओं पर अपनी अपनी व्याप्ति और जानकारी के अनुसार लिखा जाना चाहिए। मैने अपने उपन्यासों और कहानियों को इसी गरीब, शोषित, प्रताड़ित जन पर फोकस किया है और आगे भी मेरा यही रहेगा।
प्रभात- ऐसे में लेखकों की जिम्मेदारी को आप किस तरह से देखते हैं?
शिवमूर्ति- लेखकों की जिम्मेदारी केवल कागज काले करना भर नहीं है। अगर आप आम आदमी के सरोकार से खुद को जोड़ते हैं तो आपको सक्रिय रूप से उनकी समस्याओं में इनवाल्व होना पड़ेगा। मुझे लगता है कि जो इन्वाल्व हैं उनके मुकाबले लेखक का काम बहुत छोटा है। मेरी नजर में सामाजिक कार्यकर्ता या एक्टिविस्ट की भूमिका लेखकों की भूमिका से कई मायनों में बड़ी है। जब आँख के सामने शोषण-दमन जारी हो तो उसका प्रतिकार करने वाले लोगों मे शामिल होने के बजाय यदि लेखक यह कहता है कि वह घर चलकर इस अन्याय व शोषण पर एक कहानी लिखेगा तो इसे पलायन ही कहा जायेगा। इस रूप में एक्टिविष्ट की भूमिका सिर्फ लेखन करने वालों से निःसन्देह बड़ी है।
लेकिन अन्याय का प्रतिकार करने का साहस और इसको अपना दायित्व मानने का जज्बा युवा पीढ़ी में साहित्य पैदा करता है। वह प्रतिरोध की जमीन तैयार करता है। ऐसी स्थिति में जब आमने सामने प्रतिरोध करने की शक्ति जनता में नहीं होती तो इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए जिस आत्मबल की जरूरत होती है उसे लेखक पैदा करता है। इस प्रतिरोध के लिए बहुत ईंधन चाहिए। जब तक इतना ईंधन आप के पास नहीं है कि आप आमने-सामने का संघर्ष शुरू कर सकें तब तक भूसी ही आपके अन्दर की आग को लम्बे समय तक बुझने से बचाए रख सकती है। भूसी की आग जानते हैं? धान की भूसी बहुत धीरे धीरे सुलगती है। पहले जब माचिस नहीं होती थी गांव में या उसको खरीदने के लिए पैसा नहीं होता था तब भूसी ही आग को बचाकर रखती थी। इस भूसी की आग की तरह ही सही वक्त तक अपने अन्दर के प्रतिरोध की शक्ति को बचाने और बढ़ाने का काम करता है साहित्य।
प्रभात- बस एक सवाल और, जो इस समय बहस का मुद्दा है। कुछ वरिष्ठ व युवा कथाकारों के बीच समकालीन कथालेखन में फार्म, प्रचार व सरोकार जैसे मुद्दों पर गरमा-गरम बयानबाजी चल रही है, इस पर कुछ कहेंगे?
शिवमूर्ति- सरोकार और फार्म को लेकर जो बहस चल रही है उस पर डा. काशीनाथ सिंह, संजीवजी, चन्दन पाण्डेय तथा कुछ अन्य वरिष्ठ व युवा कथाकारों के विचार ब्लॉग और प्रिन्ट माध्यम से जानने का अवसर मिला। कथा-विधा उत्तरोत्तर विकासमान विधा है। नये फार्म आयेंगे ही। उसका स्वागत होना चाहिए। डा. काशीनाथ सिंह ने युवा पीढ़ी में प्रचार की प्यास तीव्र होने की बात कहीं है। साहित्य का उद्देश्य ही तभी सफल माना जायेगा जब वह प्रचारित हो। इसलिए इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। नई उम्र में प्रचार की प्यास कुछ अधिक होना स्वाभाविक है। जबकि कभी-कभी पुरानों में भी यह प्यास अस्वाभाविक रूप से अधिक दिखाई देती है। संजीवजी नई पीढ़ी में सरोकार या प्रतिबद्धता के अभाव को लेकर चिन्तित हैं। सरोकार वाला या प्रतिबद्ध तो लेखक होगा ही। यह और बात है कि उसका सरोकार जनहित है या केवल मनोरंजन। और अगर लेखकों का एक वर्ग इनमें से केवल कोई एक सरोकार चुन लेता है जो दूसरे वर्ग को पसन्द नहीं है तो क्या पहले वर्ग को लिखना बन्द करने की सलाह दी जा सकती है? आगे जो कुछ लिखा जाना है उसका अधिकांश नई पीढ़ी द्वारा ही लिखा जाना है। उनमें जनहित वाले भी होंगे, खिलवाड़ वाले भी। आगे की मंजिल उन्हीं को तय करनी है। तो उन पर विश्वास करना होगा। उन्हीं पर विश्वास कीजिए। वे रहेंगे तभी हम भी आगे रहेंगे।

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