ज्यां पाल
सार्त्र (1905-1980) समय के हाथ आया हुआ विडम्बनाओं का ऐसा गोलक थे जो घटनाओं के
दबाव में खुलता और बंद होता रहा। इसी प्रक्रिया में उनका दर्शन अर्थ प्राप्त करता
है। उनकी व्यक्तिवादी,
स्वतन्त्र,
स्वनियन्ता स्थितियों को वक्त के हाथों पूरी तरह खारिज होना था। मानव की अपने
प्रति एक अनैतिक अनास्था अन्ततः एक घोर नैतिक युद्ध में परिणित होनी थी। उन का
जीवन अभिशप्त स्थितियों के घेरों को तोड़ कर एक सक्रिय सामाजिक जुझारू बौद्धिक के
रूप में सामने आया। उद्देश्यहीनता, अर्थहीनता और
निरन्तर मृत्युबोध की स्थितियाँ कब समय की क्रूरता और अन्यायों से लड़ते लड़ते
छिन्न-भिन्न हो गईं,
सार्त्र को स्वयं
इस का अहसास तब हुआ जब उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में नाज़ियों ने बन्दी बना लिया।
कुछ हो सकने की प्रतीक्षारत रिक्तता में बैठ रहने का अस्तित्वादी दर्शन उस समय की
विस्तृत, विशाल लेकिन क्रूर ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में
प्रमाणित से अधिक खंडित ही हुआ।
सार्त्र बहुत
कम स्थितियों में अपना चुनाव स्वयं कर पाने की परिस्थिति में रहे। 3 वर्ष की आयु
में उन की दायीं आँख की रोशनी लगभग जाती रही थी। 18 महीने की आयु में उन के पिता
का देहान्त हो गया। वे बारह वर्ष के थे जब उन की माँ ने दूसरी शादी कर ली। ये ऐसी
परिस्थितियाँ थीं जिन के वे नियन्ता नहीं हो सकते थे। दो विश्वयुद्ध हुए। दूसरे
विश्वयुद्ध में उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छिन गई। इस के एक दम बाद 1950 में
कोरिया का युद्ध हुआ। फ्रांस और वियतनाम के बीच उपनिवेशिकता के विरुद्ध घोर संघर्ष
हुआ। फिर फ्रांस के विरुद्ध अल्जीरिया का स्वतन्त्रता संघर्ष चला जिस में सार्त्र
की अहम् भूमिका रही। वियतनाम पर अमरीका का साम्राज्यवादी आक्रमण हुआ। सार्त्र
अमरीका के विरुद्ध एक अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष रहे। रूस में स्टालिन
के अधिनायकवाद ने कम्यूनिस्ट पार्टी की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया। हंगरी और
चेकास्लोवालिया में रूस का सैनिक हस्तक्षेप सार्त्र को पूरी तरह निराश कर गया और
वे कम्यूनिस्ट पार्टी से विमुख हो गये। समय की इन महानियन्ता घटनाओं ने व्यक्ति के
स्वनियन्ता होने के बोध को जहां खंडित किया वहां व्यक्ति की पारस्परिक स्वतन्त्रता
के सिद्धान्त को बहुत पुष्ट भी किया। इस समस्त समय में विज्ञान और दर्शन एक
दयनीयता के शिकार हुए लेकिन सार्त्र इस संत्रास की दयनीयता से उभर कर मानव जाति के
एक राजनीतिक भविष्य में विश्वास करने लगे।
सार्त्र के
अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव उनके जीवन काल में ही झीना पड़ गया था। उन्होंने
व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी नियन्ता स्थिति के साथ सामाजिक ज़िम्मेवारी का
समावेश करके अस्तित्ववाद को मार्क्सवाद की स एक अंतर्धार के रूप में देखने की
ईमानदार कोशिश की थी। इसके फलस्वरूप वह सिरोन कीर्कगार्द के मौलिक सिद्धांतों से
दूर जा पड़े। कीर्कगार्द वस्तुतः अपनी प्रेरणाओं में पूर्णतः अनीश्वरवादी नहीं थे।
उनका विश्वास था कि ईश्वर मनुष्य से बहुत दूर है और उसे एक गहन विश्वास से ही
महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति की दैनिक वास्तिवक स्थितियों में अनिर्षित विश्वास
का बहुत परोक्ष आधार ही हो सकता है फिर भी आधार की स्वीकृति थी ही। लेकिन सार्त्र
ईश्वर की सत्ता को बिल्कुल स्वीकार नहीं करते थे। ईश्वर का अस्तित्व मानव-मात्र के
लिए पहले से ही बहुत कुछ निश्चित कर देता है। और इंसान की स्वतंत्रता तथा अपने
प्रयत्नों द्वारा अपना निर्माता होने की स्थिति को खंडित करता है। इससे एक
विचार-स्थिति और आगे जाकर सार्त्र ने अकेले व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थ
को भी संशोधित किया। वे सामूहिक स्वतंत्रता के पक्ष में रख कर ही व्यक्ति की
स्वतंत्रता को देखने लगे थे।
महज़ एक
अस्तित्ववादी,
दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार
या अन्य विधाओं के लेखक के रूप में ही नहीं, हमें
सार्त्र के राजनीतिक दर्शन और सामाजिक कर्मशीलता को भी बराबर ध्यान में रखकर ही
उनके समग्र व्यक्तित्व का जायज़ा लेना होगा। सार्त्र के अंतिम दस या कुछ अधिक वर्ष
उनकी आंतरिकता के बाह्यीकरण का इतिहास हैं। अंतिम वर्षो में उनका बिगड़ता हुआ
स्वास्थ्य उन्हें काफी सीमित करता था। इसलिए उन्होंने अलग-अलग माध्यमों द्वारा
अपने चिंतन को अंकित किया। रेडियो, टेपरिकार्डिंग, भाषणों
और विस्तृत साक्षात्कारों और अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ डायलाग के द्वारा वे
सामाजिक मुद्दों से बड़े सक्रिय रूप में जुड़े रहे। ये माध्यम उनकी लिखित वैचारिक
निधि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उनके सारे अंतर्विरोध इन माध्यमों में खुलकर
सामने आते हैं। जो बातें लेखन में अनकही, अधूरी या
अस्पष्ट रह जाती हैं,
उनकी बातचीत के
लम्बे सत्रों में इस तरह प्रकट होती हैं जैसे एक मासूम व्यक्ति कई तरह से अपनी बात
समझाने की कोशिश करता है। लेकिन फिर भी जैसे सब कुछ अपूर्ण ही रह जाता है। कहने-सुनने
वाले असंतुष्ट ही रह जाते हैं। इस अपूर्णता और असंतुष्टि का चित्र जब एक महान
दार्शनिक का अपने अंतिम वर्षों में उभरता है तो लगता है कि वे पूरी तरह समाजवादी
होकर भी अपने गहनतम अलक्षित अंतस में मूलतः अस्तित्ववादी ही बने रहे। अपनी
अपूर्णताओं की रिक्तता को विचारों से नहीं भरा जा सकता। वास्तविकताओं और दर्शन को
परस्पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। यह गहन एकांत व्यक्तिवादिता उन्हें
उद्वेलित करती ही रहती थी। अपने उद्देश्य निर्धारित करने में और उन्हें पूरा करने
में जिस अस्तित्ववादी स्वतंत्रता की आवश्यकता होती है वह मिल जाने पर भी
उद्देश्यों की पूर्ति अकेले इंसान की स्वतन्त्रता से नहीं हो सकती, इस
बात का अहसास जितना गहरा होता गया, उतनी ही
निराशा उन्हें इसके विपरीत और अपने पक्ष में खड़े दर्शन को कार्यान्वित करने वाली
कम्यूनिस्ट पार्टी से हुई और वे दोनों विचार-पद्धतियों के बीच समन्वय का रास्ता
ढूंढते रहे।
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1960-80 के बीच विश्वस्तर पर सार्त्र की अपनी लेखकीय और सामाजिक
मान्यताओं के स्तर पर बहुत कुछ महत्वपूर्ण घटा। फ्रांस और अल्जीरिया के बीच संघर्ष
अपनी निर्णायक स्थिति में था। अल्जीरिया के लिए यह अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई थी और
फ्रांस के लिए अपना साम्राज्य बनाए रखने का संघर्ष था। सार्त्र ने अपनी सरकार का
घोर विरोध किया। अल्जीरिया के युवकों का साथ दिया, फ्रांस
में भी एक जनआंदोलन अल्जीरिया के पक्ष में उभरा जिसके प्रणेताओं में सार्त्र रहे।
कुछ राष्ट्रवादी फ्रांसीसी युवकों ने दो बार सार्त्र के निवास पर बम फेंके, उन्हें
रास्ते से हटा देने के लिए। उधर अमेरिका में सिविल लिबर्टीज़ का आंदोलन मार्टिन
लूथर किंग चला रहे थे। छोटे छोटे और बड़े जनसमूहों को साथ लेकर। सार्त्र की पुस्तक
Critique में जिन छोटे बड़े समूहों ने मिलकर सत्ताधारियों के
लगातार विरोध की बात की थी, इन
अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने उस सिद्धांत की एक क्रियात्मक पूर्ति ही की। ये लड़ाईयाँ
एक ही स्थिति में निर्णायक न होकर अपना प्रभाव समूचे समाज की मानसिकता बदलने में
रखती हैं। इसके विपरीत एक छोटे से समयांश पर फैली हुई हिंसात्मक क्रांति उसी समय
यदि सफ़ल हो भी जाए,
तो क्या मानसिकता
को लंबे समय तक बदल सकती है? स्वतन्त्र
मानव समूहों के अलग-अलग समयों और स्थानों पर चलने वाले आंदोलनों और विरोधों को
सार्त्र पारंपरिक मार्क्सवादी विशाल जनसमूहों के उभार और छोटे से समय में सब कुछ
बदलने वाली निर्णायक स्थितियों के विरोध में खड़ा देखते थे।
अमेरिका
उन्हीं दिनों बड़े पैमाने पर वियतनाम पर अपनी घोर साम्राज्यवादी क्रूरता थोपने में
लगा हुआ था। सार्त्र ने इसका भी ज़ोरदार विरोध किया। इंग्लैण्ड के महान दार्शनिक
बरट्रेंड रसल द्वारा वियतनाम युद्ध की जाँच समिति जब गठित की गई तो सार्त्र को उस
समिति का अध्यक्ष बनने को कहा गया। उस समिति ने अमेरिका को मासूम जनसमूहों पर
अत्याचार करने और दूसरे देश पर अपना आधिपत्य थोपने के अपराध का स्पष्ट शब्दों में
दोषी ठहराया और साम्राज्यवाद की भर्त्सना की। इस जांच समिति की दूसरी बैठक फ्रांस
में करने का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन 'दिगाल' की
सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। इसी दशक में रूस ने चैकोस्लोवाकिया के सुधार आंदोलन
को बुरी तरह कुचला। सभी को रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी से बहुत निराशा हुई। 1968 में
पेरिस में प्रमुख रूप से युवकों के जनआंदोलन को 'दिगाल' की
सरकार ने अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों की पूर्ति में असफ़ल कर दिया। उसका कारण काफ़ी
हद तक यही रहा कि फ्रांस की शक्तिशाली कम्यूनिस्ट पार्टी ने उन युवकों को बिल्कुल
समर्थन नहीं दिया। वह सत्ता में आने की या शासन पलट देने की लड़ाई नहीं थी जिसके
लिए कोई बड़ी क्रांति दरकार थी। फिर भी पार्टी की चुप्पी ने सार्त्र को बहुत निराश
किया। उधर क्यूबा में फिदैल कास्त्रो की ज्वलन्त क्रांतिकारिता ने सबको आशान्वित
किया था। सार्त्र फ़िदैल से क्यूबा जाकर मिले भी थे। लेकिन रूस के प्रभाव में आकर
उस क्रांति का स्वरूप एक दमनकारी राज्य में बदल गया। सार्त्र ने उसका विरोध किया
जिसके लिए फ़िदैल ने खुले तौर पर सार्त्र की निंदा की थी।
समाजवाद और
स्वतन्त्रता के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले छोटे-छोटे जनसमूहों से सार्त्र
का मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गया। ये समूह अपने आपको माओज़ (Maos) कहलाते थे।
ये वामपन्थी थे,
लेकिन कम्यूनिस्ट
पार्टी से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इन्होंने एक पत्र La Cause Du Peuple नाम
से प्रकाशित करना शुरू किया। इस प्रकाशन का कोई मालिक नहीं था। इस में सरकार की
नीतियों के विरुद्ध कोई भी आम आदमी लिख सकता था। एक तरह के उग्रवादी कर्मियों
द्वारा ही यह पत्र गलियों,
चौराहों पर बेचा
जाता था। सरकार के आदमी प्रेस में जाकर इसकी प्रतियाँ ज़ब्त कर लेते थे। दो
सम्पादकों को गिरफ्तार भी कर लिया गया। सबने कहा कि सार्त्र को स्वयं सम्पादक के
रूप में इसे शहर की गलियों में बेचना चाहिए। मई एक, 1970
को सार्त्र अपने वामपंथी साथियों के साथ चौराहों पर यह पत्र बेचते रहे। उनकी शक्ति
और ख्याति को देखकर उन्हें तो गिरफ़्तार नहीं किया गया, लेकिन
दूसरे विक्रेताओं को पकड़ कर उन पर मुकद्दमा चलाया गया। जून, 1970
में सार्त्र ने प्रमुख वामपन्थी संगठनों के साथ मिल कर Secours-Rouge की
स्थापना की। इस संस्था का घोषणापत्र सार्त्र ने लिखा जिस में कहा गया था कि सरकारी
नीतियों से प्रताड़ित व्यक्तियों और उनके परिवारों की मदद के लिए संस्था काम करेगी, उनकी
नैतिक आर्थिक सहायता करेगी। उन के संघर्ष में उनका साथ देगी। हज़ारों की संख्या
में फ्रांस के लोग इस संस्था के सदस्य बने।
अपने लेखन
में भी सार्त्र ने अपने समय में फैले हुए राजनैतिक, औपनिवेशिक
और साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। तीसरी दुनिया में राजनैतिक आज़ादी
आने पर भी तरह-तरह की साम्राज्यवादी ताकतें उन्हें उपनिवेश बनाए रखना चाहती थीं।
फ्रांज़ फ़ैनन की The Wretched of the World
पुस्तक का
पूर्वकथन सार्त्र ने उन दिनों लिखा जब अल्जीरिया अपनी स्वतन्त्रता संघर्ष के अंतिम
चरण में था। साम्राज्यवादी ताकतें किस तरह अपने उपनिवेशों का शोषण करती हैं और
उन्हें राजनैतिक आज़ादी देने के बाद भी किसी न किसी तरह उनकी औपनिवेशिक स्थिति
बनाए रखना चाहती हैं,
इस बात का चित्रण
एक साहसिक दस्तावेज़ है। फ़ैनन अल्जीरिया की अंतरिम सरकार के अधिकारी थे। इन्हीं
दिनों कांगो के नेता पैट्रिक लुमुम्बा के प्रसिद्ध भाषणों की पुस्तक का प्राक्कथन
भी सार्त्र ने लिखा। इसमें स्पष्ट रूप से उन्होंने कहा कि यूरोप दुनिया का केंद्र
कभी नहीं बन सकता। उसका साम्राज्यवादी सपना कभी पूरा नहीं हो सकता। लुमुम्बा की
हत्या के पीछे कुछ बाहर की पूंजीवादी ताकतें थीं और कुछ कांगो के ही बुर्जुवा कोयला
खानों के मालिक थे।
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सिर्फ़ लेखन
ही नहीं, सार्त्र अपने व्यक्तिगत दैनिक जीवन में भी सिर्फ़ गुम्बद
में बैठकर सोचने वाले बौद्धिक नहीं रह गए थे। कैफ़े में बैठे हुए, चुरूट
पीते हुए, दूसरे बौद्धिकों के धुएं को अपने धुएं से गहराते हुए
आत्मलिप्त सार्त्र नहीं रह गए थे। रातों को शराब और दिन में Corydrane, Metamethane खाने वाले सार्त्र अब अपने अंतिम दिनों में एक आम मज़दूर कार्यकर्ता के साथ, जुलूस
निकालने वाले जनसमूहों के साथ, विद्रोही
विद्यार्थियों की टोली के साथ, शहर की
गलियों, चौराहों पर उन्हीं में से एक बन कर, कभी
इन के अगुआ बन कर,
उन्हें भाषण देते
हुए, कभी कुछ भी न होकर एक आम आदमी की तरह उन में शामिल होकर
अपने समय की जीवन्त शक्ति बन गए थे। Being and
Nothingness की एकान्तिक
स्वतन्त्र यात्रा,
उद्देश्यहीन, अन्ततः
कुछ न हो सकने का अपने ही अनिश्चयों का फैलाव अब एक निश्चित रूप से अस्तित्ववादी
और समाजवादी चिन्तन के आधार का कार्यान्वित उदाहरण बन गया था। इस अन्तर की
प्रामाणिकता के लिए उन के आरंभिक दिनों में लिखे हुए उपन्यास Nausea के
मुख्यपात्र रौक्वैन्टिन की मनस्थिति का एक चित्र काफ़ी है। यह उपन्यास सार्त्र की
अस्तित्ववादी कृति Being and Nothingness के दर्शन का ही कथात्मक अंकन है। अपनी आत्कथात्मक
अभिव्यक्ति Word में सार्त्र ने कहा था, ''तीस वर्ष की
उम्र में मैंने अपनी पूर्ण लेखन शक्ति के साथ Nausea में कहा था, विश्वास
करो, मैंने पूरी ईमानदारी के साथ कहा था कि हम सब का जीवन एक
कड़वाहट है, एक अनाधिकार चेष्टा है जीने की। मैंने अपने-आप को ही उस
अनाधिकृत स्थिति से मुक्त करने के लिए ऐसा लिखा था। मैं स्वयं ही रौक्वैन्टिन (Nausea का मुख्यः
पात्र) था। मैंने बिना किसी अनिश्चय के अपने ही जीवन की बुनावट व्यक्त करने की
कोशिश की थी।''
उपन्यास में
रौक्वैन्टिन कहता है - ''इस ज़िंदगी का तानाबाना हास्यास्पद नाटिका है। ये सब लोग
जो यहां बैठे खा-पी रहे हैं, देखने में
गंभीर लग रहे हैं - इन सब की अपनी-अपनी कठिनाईयां हैं जो इन्हें अपने अस्तित्व का
अहसास नहीं होने देतीं। इन में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वयं को किसी और
के लिए अत्यावश्यक समझता हो, यह समझता हो
कि उसका होना किसी और के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।... वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं
है, कुछ भी नहीं। जीवित रहने का कोई भी कारण नहीं है। हम एक
दूसरे के अस्तित्व को सीमित कर रहे हैं। यही वह अर्थहीनता है जो चारों तरफ फैली
हुई है। इस अर्थहीनता में मैं आज़ाद हूँ, अकेला हूँ -
लेकिन आज़ाद हूँ।''
और यही वह सार्त्र
हैं जिन्होंने 1964 में एक साक्षात्कार में कहा था, ''एक मरते हुए बच्चे के बराबर रखकर देखने से Nausea का कोई अर्थ
नहीं रह जाता।''
इस तरह की
आंतरिकता का बाह्यीकरण सार्त्र के अंतिम वर्षों में हर जगह उनके कार्यों और
मान्यताओं में देखने को मिलता है। उसी दृष्टि से सार्त्र ने 1965 में कहा था - कि ''मेरे लिए व्यक्तिवाद बाह्य वास्तविकताओं का ही अन्तरीकरण है।'' करीब करीब यही उनका आधारभूत विश्वास बना रहा कि एक ही व्यक्तित्व में
वैश्विक वास्तविकताएं समाहित हैं और यही तथ्य व्यक्ति के संसार में उत्तरदायित्व
पूर्ण ढंग से जीने का तर्क भी है। इसी तर्क को सार्त्र ने हमेशा प्रयोग किया, और
वे हमेशा शुद्ध व्यक्तिवादियों की अवांछनीयता से बचते रहे जो पाश्चात्य दर्शन
पद्धतियों में भरी पड़ी हैं। उन्होंने अपने इस Singular Universal वाले
तर्क को केवल कवच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया। वरना The Critique of Dialectical Reason से आगे का विकास एक लगातार बहती हुई विचार प्रक्रिया के
रूप में देखना आसान नहीं होता। उनका कोई भी विचार अपनी पूर्णता प्राप्त करने के
पश्चात एक बिंदु पर आकर समाप्त नहीं हो जाता। उसके आगे हमेशा कुछ और संभावनायें, एक
खुलापन बचा रहता है। इसीलिए विचार अपनी अन्तरिम स्थिति में ही रहते हैं। सभी
दर्शनों के Absolutism के सार्त्र विरोधी थे। एक Open Endedness जीवन
का मूलभूत सिद्धांत है। जिस तरह कोई भी क्षण निश्चित नहीं है, सिर्फ़
उस का अहसास निश्चित है,
उस की संभावना
निश्चित है। विकास एक गतिमान और अस्थायी स्थिति है चाहे वह विचारों की हो या
स्थितियों की। यही कारण था कि पार्टी की कट्टरपंथी प्रणालियों से मोहभंग होने पर
भी सार्त्र समाजवाद में विश्वास रखते रहे। लेकिन उसके साथ ही मार्क्सवाद के आगे भी
कुछ संभावनाएं हैं,
इस के आधारभूत
उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए और उपाय भी इस में जोड़े जा सकते है, ऐसा
विश्वास उन्हें हमेशा रहा। 70 वर्ष की आयु में Michel Contac के
साथ एक लंबे साक्षात्कार में (जून 23-जुलाई 7,1975)
जब सार्त्र से पूछा गया कि ''आप अब
मार्क्सवादी दर्शन में विश्वास रखते हैं लेकिन आपको तो लोग अस्तित्वादी दार्शनिक
के रूप में ही जानते हैं। अगर आप को दोनों में से एक लेबल चुनना पड़े तो कौन सा
लेबल आप अपने लिए चुनेंगे?
आप अपने को
मार्क्सवादी कहलाना पसंद करेंगे या अस्तित्वादी?'' सार्त्र का उत्तर था कि वे अस्तित्वादी कहलाना पंसद करेंगे। क्योंकि उसमें
विकास की स्थिति मौजूद है।
अपने
समाजवादी दृष्टिकोण और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक प्रकार से नैतिक आधार पर
समन्वित करते हुए सार्त्र Benny Levy द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हैं। Levy का प्रश्न था
कि ''स्वतन्त्रता को आप किस प्रकार सामाजिक उद्देश्य के लिए
प्रयोग करेंगे?
जिन लोगों के पास
शक्ति है, वे स्वतन्त्र होकर दूसरों पर उसे थोपते हैं। इन दोनों
तरह की स्वतंत्रताओं को आप किस तरह अलग करेंगे?'' इस का उत्तर देते हुए सार्त्र ने कहा था कि ''वे सब लोग जो समाजवाद चाहते हैं, चाहे वे इस
बात को कहें या न कहें,
एक स्वतन्त्रता की
स्थिति की खोज में हैं। और जिस क्रांतिकारी व्यक्ति की बात हम करते हैं, वह
ऐसे ही समाज/व्यवस्था की कल्पना करता है जहां स्वतन्त्रता भविष्य की एक सच्ची
वास्तविकता होगी।''
समाजवाद और
स्वतंत्रता उन के चिंतन के केन्द्र में रहे।
Flaubert के जीवन पर लिखे गए अपने अंतिम महाख्यान Family Idiot के
विषय में वे कहते हैं कि वह एक समाजवादी कृति है। अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले
अपनी उम्र भर की साथी सिमोन द बोआ के साथ 'डायलाग' में
सार्त्र लगभग घोषणा करते हैं - ''बीस वर्ष की
उम्र में मेरे कोई राजनैतिक विचार नहीं थे, यह
कहना भी अपने आप में एक राजनैतिक मुद्दा है। अब मेरा अंत हो रहा है -
सोशलिस्ट-कम्यूनिस्ट के रूप में और मैं मानवमात्र के लिए एक राजनैतिक भविष्य की
अपेक्षा रखता हूँ।''
सिमोन को शायद
ज़रूर याद आया होगा 1939 का वह सार्त्र जिसने अपनी तीन डायरियां - सिमोन को
मिलिट्री बेस से भेजी थीं। एक Nothingness के बारे में, दूसरी Violence पर
और तीसरी Bad Faith पर जो तीनों मिलकर Being and Nothingness का आधार बनी थीं।
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विश्व के जिस
राजनैतिक भविष्य की बात अपने अंतिम दिनों में सार्त्र सोचते रहे, उसके
कई आयाम थे। तीसरी दुनिया का अस्तित्ववाद, नवउपनिवेशवाद, समाजवाद
और उस के अन्तर्गत व्यक्ति की स्वतन्त्रता और मध्यपूर्व में नई राजनैतिक इकाईयों
का उदय ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दे थे। अरब-इसराइली संघर्ष को सार्त्र काफी गंभीर
रूप से लेते थे। 1979 में उन्होंने अपने पत्र Les Modernes के
तत्वाधान में बौद्धिकों की एक बैठक पेरिस में बुलाई। इस में अमेरिका से एडवर्ड सईद
भी आमंत्रित थे। यह सिर्फ़ बौद्धिकों का सम्मेलन था। इस के पास कोई निर्णायक
राजनैतिक शक्ति नहीं थी,
केवल लोकमत बनाना
ही इस का उद्देश्य था। लेकिन अपने बुरे स्वास्थ्य के कारण सार्त्र अपने साथी
विक्टर पर अधिक आश्रित हो गए थे। इसलिए इस सम्मेलन का स्वरूप किसी भी प्रकार
व्यवस्थित या संतोषजनक नहीं हुआ। एडवर्ड सईद नाराज़ होकर पेरिस से अमेरिका लौटे।
इन बातों का ब्यौरा देते हुए सिमोन विक्टर को दोषी मानती हैं जिन्होंने उन दिनों
सार्त्र की मानसिकता को हड़प रखा था।
विचार-स्थापना
के लिए हो या हितों की रक्षा के लिए, शक्तिप्रयोग
को सार्त्र इतिहास विरोधी हथकंडा मानते थे। शक्तिप्रयोग मानव विकास की अवधारणा में
अन्तरिम (Interim) रूप से भी नहीं आता, अस्थाई
उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी उसे मान्यता नहीं दी जा सकती, सार्त्र
ऐसा मान कर अपने उत्तरदायित्व का लेखा-जोखा करते रहे। जनवरी 1980 में इसी शक्ति
प्रयोग का विरोध उन्होंने किया जब Andrei (आन्द्र) सख़ारोव को गृहबंदी बनाया गया। उन्होंने
मास्को-ओलम्पिक्स के बायकाट का समर्थन भी किया। उन के प्रयासों में अन्तर्विरोध
उन्हें एक ऐसी मानवीय ऊँचाई पर स्थापित करते हैं जो राजनैतिक सामयिक मुदों और
अस्थाई उद्देश्यों से उन्हें बहुत ऊपर बना रहने देती है। सिर्फ़ एक पक्ष का विचारक
उन्हें आसानी से खारिज करके आगे बढ़ सकता है, लेकिन
ऐतिहासिक समग्रता उन के दायें-बायें खड़ी दिखाई देती है।
जब नाज़ियों
ने फ्राँस पर कब्ज़ा कर रखा था तो सार्त्र ड्राफ्ट होकर सैनिक बन गए थे, उसके
बाद वे फ्रांसीसी लेखकों के साथ मिलकर युद्ध के विरोध में सक्रिय थे। इस युद्ध ने
उनका अकादमिक और सैद्धांतिक स्तर पर जीने वाले बौद्धिक का स्वरूप बदल दिया था। वे
खुली सड़कों पर सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपने आप को देखने लगे थे। यह
परिवर्तन अनुशासित या नियंत्रित नहीं था। यह बाह्यीकरण एक स्वतःस्फूर्त विरोध
स्थिति थी जो सिर्फ़ इसी बिंदु पर आकर ठहर नहीं गई। एक सोशेलिस्ट दृष्टि की पहली
स्वीकृति और विश्वस्तता यहीं से शुरू हुई जो अंत तक बनी रही। सार्त्र के लिए
मार्क्सवाद एक
'वाद' के
रूप में या संपूर्ण जीवन-पद्धति के रूप में कम प्रासंगिक रहा। लेकिन मनुष्य के
सामूहिक विघटन के विरोध में एक संयत सामूहिक कार्यविधि के चिन्तन स्वरूप वे हमेशा
के लिए इस विचार से जुड़ गये थे। मनुष्य की एकल स्वतंत्रता और नियन्ता होने की
अभिशप्त स्थिति से यह कितनी भिन्न स्थिति है, इसका
जायज़ा लेने के लिए सार्त्र के उपन्यास Age of Reason के एक पात्र का आर्तनाद काफ़ी है, ''वह स्वतंत्र था,
हर बात के लिए
स्वतंत्र, एक जानवर की तरह व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र, या
किसी मशीन की तरह.......। वह जो कुछ भी चाहे कर सकता था, किसी
को उसे कुछ भी सुझाने का अधिकार नहीं था। वह एक राक्षसी मौन में अकेला है, किसी
कारणवश नहीं। किसी भी संभावित उद्देश्य के बिना वह अपने निर्णय लेने के लिए
अभिशप्त है अबाध रूप में स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त।''
विडंबना इतनी
सघन और वास्तविक हो सकती है, इसकी
प्रमाणिकता उस विकास में लक्षित होती है, जो हम
सार्त्र की अपनी कृतियों और जीवन में देखते हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने
बहुत कुछ बोल कर व्यक्त किया। 72 वर्ष तक आते-आते उनकी दूसरी आँख भी हेमरेज से
खराब हो गई थी। वह बिल्कुल पढ़ नहीं सकते थे, सिमोन
उन्हें किताबें पढ़ कर सुनाती थी। 70 वर्ष की आयु में जो सार्त्र हमारे सामने आते
हैं, उससे एक लोमहर्षक एहसास उभरता है। उनकी पूरी जीवित
मरणासन्नता में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, वह
जिंदगी के तमाम ऊसरों बंजरों, पर्वतों, जंगलों, नदियों
से होते हुए मनुष्य के उच्छवासों, प्रेरणाओं, वासनाओं, प्रणयस्थितियों, अनगिनत
धूप-छांह, उजालों-अंधेरों के बीच से गुजरते हुए अपने शारीरिक अंत
में विलय होने की सौम्य और निर्विकार स्थितियाँ हैं। ऐसी स्थितियाँ जिनसे सांझा
करने के बाद हम सार्त्र से प्यार कर उठते हैं। हालांकि प्यार सार्त्र के लिए एक
बुर्जुआ स्थिति थी जिसमें एक व्यक्ति अपने-आप को दूसरे पर सिर्फ़ थोपता है।
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उनके इन
अंतिम वार्तालापों,
परिवर्तनों और
शारीरिक स्थितियों तक आने से पहले उन की बौद्धिक यात्रा चरमस्थल The Critique of Dialectical Reason को देखना ज़रूरी है जो उन्होंने काफ़ी हद तक मार्क्सवाद
के प्रतिदर्शन के रूप में लिखा। The Critique of
Dialectical Reason के
भाग दो में उनकी निराशा-स्वीकृति दर्ज़ है कि बीसवीं सदी की घटनाओं की विभीषिका के
उपरांत यदि भविष्य के प्रति आशावान होना संभव न भी हो, कम
से कम इन प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।
मानव जाति का
विनाश किसी प्राकृतिक दुर्घटना से भी हो सकता है और परमाणु बम से भी। मनुष्य अगर
अपनी नियन्ता स्थिति तक पहुँच कर प्राकृतिक दुर्घटनाओं को नियंत्रित कर पाने में
सफल हो भी जाए,
फिर भी
भिन्न-भिन्न संहारक शक्तियों के प्रयोग की स्थितियों पर नियंत्रण की संभावना अभी न
है, और न ही अभी उसकी कल्पना की जा सकती है। इस कारण
अस्तित्व किसी उद्देश्य की कल्पना मात्र को ही हास्यास्पद बना देता है। क्रमों में
घटती हुई स्थितियों का जोड़ एक लंबी स्थिति की परिकल्पना नहीं करता। प्रत्येक क्षण
अपने आप में एक निश्चित और सामायिक स्थिति है। इन्हें जोड़ कर देखना किसी घटना का
प्रतिफलन नहीं हो सकता। स्थितियों का क्रमिक संघर्ष एक इतिहास के रूप में नज़र आता
है। पर, वास्तविकता यही है कि वे अर्न्तविरोधों की अलग-अलग
कड़ियां है। उन्हें जोड़ कर देखने से एक कथा नहीं बुनी जा सकती, न
ही उनके घटने के मूल कारणों को पकड़ा जा सकता है। The Critique of Dialectical Reason भाग दो, में सार्त्र
कहते हैं ''यदि प्रकृति का कोई तार्किक सिद्धांत हो तब भी इन
स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होगा। दूसरी ओर, इसमें
भी संदेह नहीं कि विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र का विकास इस सीमा तक हो सकता है कि वे
प्रकृति की संहारक घटनाओं को कुछ समय के लिए टाल कर रख सकें। यह भी संभव हो सकता
है कि मानव नक्षत्रीय महाकाश के पार जाकर भी अपने अस्तित्व को हमेशा बचाये रखने के
उपाय ढूँढ निकाले। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति की संहारक
घटनाओं को ऐसी उपलब्धियां प्राप्त होने तक रोका जा सके। इस का कोई प्रमाण हो भी
नहीं सकता क्योंकि हम दो भिन्न प्रकार के घटना-क्रमों का सामना कर रहे हैं।''
इसी तरह
सार्त्र का विश्वास था कि मानवमात्र के क्रियाकलापों का जोड़ मिला कर कुछ सांझे
तत्व नहीं निकाले जा सकते जो सभी मनुष्यों पर लागू हों। मानव स्वभाव को एक परिभाषा
के अर्न्तगत रखकर उनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। Critique के
Volume 1 में सार्त्र कहते हैं ''मित्रता का अर्थ या कार्यकारी स्वरूप Socrates के
ज़माने में वही नहीं था जो हमारे ज़माने में है। इस अन्तरीकरण के आधार पर
मानव-प्रकृति के सिद्धांत को पूरी तरह खारिज किया जा सकता है। केवल आदान-प्रदान और
परस्परता का सम्बंध ही उजागर होता है जिसे हम वैश्विक व्यक्तिकरण कह सकते है, और
वही सारे मानव-संबंधों का आधार बनता है।'' इस तरह के
एकल व्यक्तित्ववादी,
प्रकृति और मानव
अस्तित्व में क्रमों की क्षणिक निश्चितता, असम्बद्धता
और अपूर्णता की एक सैद्धांतिकी निर्मित करने वाले दार्शनिक अपने अनुभवों, क्रियात्मक
अनिवार्यताओं और घटनाओं की तर्क-सम्बद्धता में एक अस्तित्ववादी संयोग ढूँढते
ढूँढते समाजवादी सामूहिकता तक पहुँचते हैं। लेकिन उन सामूहिक प्रयासों की परिणिति
को वे फिर भी व्यक्ति की स्वतंत्रता में ही समान्वित होते हुए देखते हैं।
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अपने बिल्कुल
अंतिम वर्षों में सार्त्र की सिमोन के साथ हुई एक लम्बी बातचीत सिमोन की पुस्तक Adieux में सम्मिलित
है। एक वर्ष युद्धबंदी रहने के बाद के अनुभवों की बात करते हुए सार्त्र कहते हैं
कि वे सत्ता के शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने की उपयोगिता और शक्ति को जेल से आने
के बाद ही समझने लगे। अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए कानूनों और सरकारी आज्ञायों
की वे अवज्ञा करते थे और इस में ही अपनी स्वायत्ता देखने लगे थे। 1940 से नवम्बर
1942 तक फ्रांस का दक्षिणी भाग नाज़ियों का गुलाम नहीं था। उस स्वतंत्र प्रदेश में
दूसरी तरफ के लोगों को जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन सार्त्र अपने साथियों के साथ
गैरकानूनी ढंग से वहां जाते थे। पहिले वे सत्ताधारियों को सिर्फ़ नफ़रत करते थे, उनका
विरोध नहीं। लेकिन अब इस विरोध में ही वे अपनी स्वतन्त्रता देखते थे। नाज़ियों के
फ्रांस से बाहर चले जाने पर ही वे अपने उपन्यासों को अर्थ प्राप्त करते हुए देखते
थे। सिमोन को वे बताते हैं, जब मैं Being and Nothingness पर काम कर रहा था,
तो मानता था कि
व्यक्ति मृत्यु के निकट ले जाने वाले भीषण क्षणों में भी अपनी स्वतन्त्रता बनाए रख
सकता है। पर अब मेरी मान्यता बदल गई है। Devil and the Good Lord का ज़िक्र करते हुए वे पादरी हैनरिक की नियति की चर्चा करते हैं। उस पादरी
की धार्मिक मान्यता केवल उसके चर्च के भीतर ही सुरक्षित और स्वतंत्र थी। बाहर के
लोगों से भी पादरी के सम्बन्ध थे जो उसके चर्च में विश्वास नहीं करते थे। जब भी वह
उन से मिलता था,
तो एक विरोध की
स्थिति पैदा होती थी। ये सारी स्थितियाँ उसके भीतर के विरोध की स्थितियाँ भी थीं, सिर्फ़
बाहर की ही नहीं। वह अपनी सामाजिक स्थापनाओं में स्वतन्त्र नहीं था।
अपनी 71 वर्ष
की आयु में सार्त्र बड़े रोचक ढंग से सिमोन को वह किस्सा बताते हैं जब अचानक
उन्हें बोध हुआ कि
'ईश्वर नहीं है।' अपनी
पुस्तक The Words में सार्त्र ने बताया है कि जब वह बारह वर्ष के थे तो वह
अपने पास माचिस की डिब्बियां रखा करते थे और छोटी-छोटी आग लगा दिया करते थे। तब
उनका ईश्वर के साथ एक पड़ोसी जैसा सम्बन्ध था। उन्हें आभास होता था जैसे वह उन्हें
आग लगाते हुए देख रहा है। लेकिन एक दिन वह अपने अपार्टमेण्ट में सुबह स्कूल जाने
के लिए निकले और उन तीन ब्राज़ीलियन लड़कियों की प्रतीक्षा करने लगे जो उनके साथ
स्कूल जाती थीं और अभी तक तैयार होकर बाहर नहीं आई थीं - तो उन्हें अचानक जैसे एक
अन्तर्नाद हुआ कि
''ईश्वर तो है ही
नहीं। ईश्वर होता ही नहीं।'' उस क्षण के
बाद वे हमेशा के लिए निश्चिन्त हो गए कि ईश्वर नहीं है, फिर
कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। यह घटना वही 'तूर
पर जलवा' जैसी लगती है, अविश्वसनीय
भी, ईश्वरीय भी - जो अनीश्वरता को उस किशोर मन में स्थापित
कर गई। सार्त्र के दर्शन को देखते हुए यह कहानी बेतुकी लगती है। लेकिन यह भी सही
है कि बड़े-बड़े परिवर्तनों की झलक कई चमकीले क्षणों में आकस्मिक रूप से ही मिल
जाती है, तर्क उसे चाहे जितना ही खारिज करे।
Roland Barthes का कहना था कि सार्त्र को इक्कीसवीं सदी में दोबारा खोजा
जाएगा। सार्त्र से इस विषय में जब Contac ने पूछा कि उनकी कौन सी कृतियां वे चाहते हैं कि भविष्य
में लोग पढ़ें,
तो सार्त्र ने Sations, Saint Genet, The Critique of Dialectical Reason और Good Lord का ज़िक्र किया। Nausea को वे अपनी
सर्वोत्तम साहित्यिक कृति मानते थे। कई लोगों ने कहा कि वे 21 वीं सदी के मार्क्स
के रूप में जाने जायेंगे। इस के उत्तर में सार्त्र कहते थे कि वे सिर्फ़ यही
उम्मीद करते हैं कि आने वाले लोग उन्हें पढ़ें, उनके
काम से परिचित रहें,
इससे अधिक कुछ
नहीं। एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुरक्षित रखने वाले समाजवादी के रूप में वे स्वयं
को देखते हैं। एक शून्य अराजकता और शक्तिविरोध का अन्तर जानना ज़रूरी है।
बहुत से
अजाने पक्ष हैं सार्त्र के जीवन के। वे अपने एकान्त क्षणों में घंटों संगीत सुना
करते थे। बेथावन,
शापिन, शूमन
के अलावा वे शोनवर्ग और वेबर्न को भी पसंद करते थे। सिमोन जब अपने-आप में व्यस्त
होती थी तो सार्त्र कई बार सिर्फ़ संगीत सुनते थे। सार्त्र के दादा, दादी
और माँ बहुत अच्छे संगीतकार थे। उन्हीं से सार्त्र ने भी संगीत सीखा। कभी कभी
पियानो पर बैठकर कुछ धुनें वे खुद भी बनाया करते थे। वे शराब भी बहुत पीते थे।
अपने अंतिम दिनों तक अपनी नारी मित्रों के साथ बैठकर देर रात तक पीते रहते थे।
सिमोन और आर्लेट (Arlette) को उनकी बोतलें छिपा कर रखनी पड़ती थीं। बेशुमार
स्त्रियों से उनकी मित्रता या सतही सम्बन्ध रहे। लेकिन किसी भी तरह वे अपने
भावनात्मक क्षणों को इन सम्बन्धों से नहीं भरना चाहते थे। सिर्फ़ सिमोन ही 1929 के
बाद से उनके मन और काम की साथी रही। उन्हें हमेशा लगता था कि उन के पास काम
ज़्यादा है और वक्त कम। मानसिक उत्तेजना बढ़ाने वाली नशे की गोलियां खाकर उन्होंने
अपनी प्रख्यात कृति (The Critique of
Dialectical Reason - 1960) लिखी
थी। कई दफ़ा वे कोरीड्रेन की बीस-बीस गोलियां दिन भर में प्रयोग कर लेते थे।
अपने काम के
बारे में वे सन्तुष्टि के साथ स्वीकारते हैं कि जो उन्हें कहना था, वे
कह चुके, उन्हें कोई आश्चर्य या पछतावा नहीं है। अपने पत्र Les Temps Moderens के
लिए वे बिल्कुल अन्तिम दिन तक काम करते रहे। सार्त्र की अन्तिम स्थिति का चित्रण
सिमोन ने मार्मिक ढंग से किया है। बुधवार, मार्च
19,1980 की शाम उन्होंने बड़ी अच्छी तरह गुज़ारी। लेकिन रात
को ही उनका सांस उखड़ गया। उन्हें ब्रोसाई के हस्पताल ले जाया गया। उसके बाद वे घर
वापिस नहीं आ सके। उन्हें यूरीमिया हो गया था क्योंकि उनके गुर्दे काम करना बन्द
हो गये थे।शरीर के और हिस्से भी शिथिल पड़ते गये। सिमोन और Arlette (उनकी
मुँह बोली बेटी आर्लेट) बारी-बारी उनके पास बने रहते थे। मृत्यु से दो दिन पहिले
सिमोन ने बहुत निराशा में डाक्टर की छाती से लग कर रोते हुए कहा ''वायदा करो,
सार्त्र को पता
नहीं लगने दोगे कि वे मर रहे हैं। उन्हें मानसिक यातना से बचा कर रखोगे और उन्हें
कोई दर्द नहीं होने दोगे।''
मृत्यु से एक दिन
पहिले सार्त्र ने सिमोन का हाथ थाम कर कहा 'मैं
तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ Castor'। वे सिमोन को Castor कह कर बुलाया
करते थे। अपने होठों से इशारा कर के उन्होंने सिमोन को चूमा। 15 अप्रैल रात को नौ
बजे आर्लेट का सिमोन को फोन आया कि सार्त्र नहीं रहे। अगली सुबह सिमोन सार्त्र के
मृत शरीर के साथ चादर हटा कर कुछ देर को लेटी रही। सार्त्र की इच्छा थी कि उन का
दाह संस्कार किया जाए। परन्तु उनके शरीर को पहले मोन्टपारनेस में दफ़नाया गया। कुछ
दिन बाद उनके शरीर को कब्र से निकाल कर दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। पचास
हज़ार से अधिक व्यक्ति उनकी शव यात्रा में शामिल थे। एक दार्शनिक, उपन्यासकार, नाटककार
और एक सामाजिक सक्रिय कर्मी का अन्त उस नाटक के अन्त की तरह था जिस का हर दृश्य एक
रोचक अपेक्षा के साथ खुलता था। रूसो, कान्त, हीगेल
और मार्क्स की अगली कड़ी थे सार्त्र या मार्क्सवाद के विशाल भवन का ही एक छोटा सा
कक्ष या सिर्फ़ शुद्ध अस्तित्ववादी जिन्होंने घटनाओं की आंधियों का सामना करने के
लिए समाजवादी कवच पहन लिया था। इस बात का फैसला वक्त के हाथ में है।
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