Tuesday, 23 July 2013

शोषित के साथ लेखक की सिम्पैथी जरूरी है-शिवमूर्ति

कथाकार शिवमूर्ति से प्रभात रंजन की बातचीत

प्रभात : नया ज्ञानोदय में आपका उपन्यास आखिरी छलांग प्रकाशित हुआ. उसको पढ़ते हुए लगता है जैसे गांव का जो स्वप्न है वह टूट गया है. पूंजीवादी यथार्थ के सामने उसने सरेंडर कर दिया है. आज गांव का एक खाता-पीता किसान भी खेती के बूते अपने बच्चों को चाहे भी तो बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा सकता क्योंकि खेती के बल पर पर बेहतर शिक्षा संस्थानों की फीस के पैसे नहीं जुटाए जा सकते. यानी बेहतर शिक्षा के विकल्प उसके लिए नहीं बचा?
शिवमूर्ति : कैसे? मान लिजिए किसी किसान के पास बीस बीघे जमीन है लेकिन वह उससे अपने लड़के को नहीं पढ़ा सकता. इसी उपन्यास में पहलवान का चरित्र है. इसका मतलब क्या हुआ कि जो अस्सी प्रतिशत आबादी है उसको डिबार कर दिया गया. चाहे वह जिस बिरादरी का हो. खेती उसके पास उतनी ही है, उतनी ही उसकी उपज है, उतना ही पैसा उसको मंडी में मिलेगा. पूंजी के इस युग में पैदावार अगर उसकी उतनी ही है तो वह पचास हजार-एक लाख की फीस कैसे देगा? एकदम से फीस १७ हजार से बढ़कर ५० हजार हो गया था उस साल जिस साल की आखिरी छलांग में कहानी है. इसका सीधा सा मतलब हुआ कि जो गांव में रह रहे हैं, चाहे कोई भी हों, अगर उनकी बाहरी आमदनी नहीं है, अगर वे नौकरीपेशा नहीं हैं तो उनके बच्चों को एक तरह से इस नए चमकते बनते देश से डिबार कर दिया गया है… तुम घुस ही नहीं सकते इस देश के अंदर. यह कोई छोटी बात नहीं है लेकिन लोग अभी महसूस नहीं कर रहे हैं.
प्रभात : आपकी लगभग सारी कहानियां, तीनों उपन्यासों का परिवेश ग्रामीण है. हिन्दी में कौन लेखक आपको दिखाई देते हैं जिनके लेखन में गांव का यह परिवेश विश्वसनीय तरीके से आया है? किनको आप अपना पूर्वज मानते हों?
शिवमूर्ति : उस रूप में तो प्रेमचंद और रेणु ही दिखाई देते हैं. रेणु का कहने का तरीका बहुत आकर्षित करता है. मैला आंचल को अगर आप देखें तो उसके सारे अध्याय चार-साढ़े चार पेज के हैं और अपने आपमें पूर्ण हैं. ऐसा नहीं है कि कोई अध्याय ५ पेज का है और कोई दस पेज का. उसीमें जो कहना है पूरा कह देते हैं. एक डायलॉग में बहुत सारी चीजें कह देते थे. अब आप समझते रहिए. उनमें जो कौशल है जो लाघव है वह एक लेखक के तौर पर उनसे सीखा जा सकता है.
प्रभात : रेणु के बारे में कहा जाता रहा है कि उनमें राजनीतिक चेतना का अभाव था. गांव का जीवन तो उनकी रचनाओं में है लेकिन उसका तनाव उनकी रचनाओं में दिखाई नहीं देता. एक प्रकार का भोलापन दिखाई देता है…
शिवमूर्ति : देखिए, रेणु ने जीवन उस तरह से नहीं जिया. जाति के हिसाब से वे बड़े परिवार से न आते रहे हों लेकिन जमीन-वमीन के हिसाब से वे जमीनवाले परिवार से आते थे. ऑटोमेटिक रूप से आप जहां पैदा हुए हैं वह आपके सोच को प्रभावित तो करता ही है. समाज की संरचना भी जटिल होती है. शोषक और शोषित की परिभाषा भी बदलती रहती है. जो जाति जहां प्रमुख हो जाएगी वही शोषक बन जाएगी. शोषक और शोषित के लिए अलग-अलग जातियों का होना भी जरूरी नहीं है. दुनिया के सारे हरिजन शोषक हों ऐसा तो नहीं है न. इसी नजरिए से देखना चाहिए. जो लोग वर्गीकरण कर देते हैं और उसी नजरिए से देखते हैं चीजों को तो मेरे खयाल से वे हकीकत से दूर हो जाते हैं.
रेणु शौकीन आदमी थे और बिना किसी चश्मे के दुनिया जैसी दिखाई देती थी वैसे देखते थे. उनके उस देखे जाने में मुझे तो कोई दिक्कत नहीं नजर आती है. थोड़ा सा जो दबाया जा रहा है, शोषित है उसके प्रति लेखक की सिम्पैथी जैसी होनी चाहिए वैसी होती तो बेहतर होता. लेकिन रेणु के यहां ऐसा नहीं है कि वे किसी शोषक का समर्थन कर रहे हों या मजा ले रहे हों किसी के शोषण में. यह भी ध्यान देने की बात है. ऐसा होता तब आप उनके ऊपर उंगली उठा सकते थे. मेरे हिसाब से. जैसे परती परिकथा में जितेन्द्र-ताजमणि का रिश्ता है. कहीं से वे यह नहीं दिखाते कि ताजमणि नटि्‌टन समाज से होने के कारण हेय है. जियन के मन में कभी आता हो कि यह तो छोटी जाति की है. यह अलग बात है कि दूसरों को लगता हो कि ताजमणि नटि्‌टन परिवार की थी और उसको उसने अपनी रखैल बनाकर रखा था. न ताजमणि में नटि्‌टन होने को लेकर कोई हीनभावना है न ही जियन में इस बात का गर्व है कि हम बड़े खानदान के हैं. यह तो अच्छी बात है.
प्रभात : गांव के जीवन का यथार्थ…
शिवमूर्ति : देखिए, गांव का असली परिवेश, पार्टीबंदी परती परिकथा में ही उभरकर आया है. मैला आंचल में तो एक आवरण-सा है. मुझे लगता है कि परती परिकथा को ठीक से देखा नहीं गया है, उसे सही संदर्भ में पढ़ा नहीं गया है. रेणु प्रेमचंद के आगे की परंपरा के लेखक हैं. प्रेमचंद बड़े व्यावहारिक थे. उनको कहीं रंग नहीं दिखाई देता था, राग नहीं दिखाई देता था. जीवन में उनके था. लेकिन वे मर्यादा के हिसाब से रहना चाहते थे जैसे बड़े-बुजुर्ग रहते हैं. उस जमाने में जैसा प्रचलन था. लेकिन रेणु तो रसिक हैं, जिन्दादिल भी हैं, जो देखते हैं उसको वैसा लिखते हैं. रेणु के बाद वैसा कलम का धनी मुझको दिखाई नहीं देता. दृष्टि को लेकर उनको जो अतिवाद है वह भी धीरे-धीरे घट जाएगा.
प्रभात : आपने मैं और मेरा समय में लिखा है कि आपको आरंभ में प्रेम वाजपेयी, कुशवाहा कांत, प्यारेलाल आवारा जैसे लोकप्रिय लेखकों के उपन्यास पढ़ा करते थे और वे आपको पसंद भी आती थीं. क्या-क्या पढ़ा उस दौर में… कुछ याद आता है?
शिवमूर्ति : एक तो प्रेम वाजपेयी का उपन्यास था. नाम तो याद नहीं. हां, उसका एक कैरेक्टर था मंगला डाकू. मुझे आज तक याद है वह रात के अंधेरे में निकलता था. उनके उपन्यासों में भी गरीबी-अमीरी की खाई उसी तरह होती थी जैसे हम लोग लिखते हैं. उनमें हल्कापन होता था, औदात्य नहीं होता था, उनकी कथाओं में किसी तरह की गहराई नहीं होती थी. लेकिन उनका उस उम्र में आकर्षण तो था ही. मैं तो इतना प्रभावित था कि प्रेम वाजपेयी से मिलने दिल्ली आ गया. पटपड़गंज तब नया-नया बस रहा था. वे वहीं रहते थे. उनके घर के सामने कच्ची सड़क थी. मुझे आज तक याद है कि उनकी पत्नी कद्‌दू काट रही थीं. उनसे जब प्रेम वाजपेयी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया ऑफिस गए हैं. हाईस्कूल में पढ़ता था तब. बेटिकट दिल्ली आ गया था. रहने का कोई ठिकाना तो था नहीं. मैं शाम की गाड़ी से वापस लौट गया. प्रेम वाजपेयी से भेंट नहीं हो पाई थी.
प्रभात : इस तरह के उपन्यास गांव में आपको कैसे मिलते थे?
शिवमूर्ति : पांडेजी का हमने उल्लेख किया है पहले भी. उनके यहां तो साहित्यिक किताबें मिला करती थीं. उनके घर के बगल में हमारे एक मित्र रहा करते थे सूर्यनारायण दुबे. थे तो हमसे दो साल सीनियर. फेल होते-होते हमारे साथ आ गए थे. सामने वाले गांव में रहते थे. उनके यहां मैं रात में पढ़ने जाया करता था. उनके एक बड़े भाई थे जो विदेश में रहा करते थे. जब आते थे तो खूब सारे उपन्यास लेकर आया करते थे… इब्ने सफी, प्रेम वाजपेयी, कुशवाहा कांत आदि…
प्रभात : संजीवजी ने लिखा है कि जिन दिनों आप रेलवे में नौकरी किया करते थे तब आपने भी कुछ इस तरह का उपन्यास लिखा था?
शिवमूर्ति : हां, इस नौकरी में आने से पहले मैं पंजाब में रेलवे में नौकरी किया करता था. वहीं मेरा एक उपन्यास आया था पतंगा. पंजाब केसरी में धारावाहिक छपा था- बीस-बाइस किस्तों में. उस पर मेरे पास एक बोरा चिट्‌ठी आई थी. कहीं घर में रखी हुई है.
प्रभात : उसको पुस्तक के रूप में आपने नहीं छपवाया?
शिवमूर्ति : नहीं. वह वैसा ही था जैसा प्रेम वाजपेयी लिखा करते थे. लेकिन बड़ा अपीलिंग था. पंजाब केसरी के पाठकों को खूब पसंद आई थी. दो प्रेमियों की कहानी थी. उनकी शादी नहीं हो पाती है तो वे जान दे देते हैं. जहां वे मरते हैं वहां दो पेड़ पैदा होते हैं- एक पीपल का, एक पाकड़ का. दोनों नदी के किनारे एक दूसरे से लिपटे हुए रहते हैं. ऐसी ही कहानी थी.
प्रभात : साहित्यिक उपन्यासों की ओर आपका रुझान कब हुआ?
शिवमूर्ति : साहित्य पढ़ने का यह है कि समझिए प्रेमचंद से हमारा परिचय दर्जा आठ के आसपास हो गया था. पांडे बाबा का मैंने जिक्र किया था. हम जानवर चराने जाया करते थे तब वे पढ़ते रहते थे. उनके पास दो आल्मारियां थीं जो किताबों से भरी हुई थीं. अद्‌भुत आदमी थे. उनके यहां मैंने पहले पहल मानसरोवर पढ़ी. फिर रंगभूमि पढ़ा. वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास पढ़े- विराट की पदि्‌मनी, मृगनयनी. फिर स्कूल में पत्रिकाएं आती थीं. नवनीत आती थी, धर्मयुग आती थी… मैं जब दर्जा सात में था उसमें हिरोशिमा और नागासाकी पर जिसने बम गिराया था उसके अनुभवों पर लेख छपा था दो किस्तों में. उसका प्रभाव बहुत दिनों तक रहा.
प्रभात : आपको साहित्य पढ़ना अच्छा लगता था? पहले आप लोकप्रिय उपन्यास पढ़ा करते थे. उसके दीवाने थे…
शिवमूर्ति : स्वतः अच्छे लगने लगे. जब मैं दर्जा तीन में गया तो हमारी किताब में एक चैप्टर था काठ का घोड़ा जो ट्रॉय के युद्ध पर था. जब लकड़ी के घोड़े के अंदर छिपकर सैनिक बैठ गए थे. मुझे अभी तक याद है कि मैं अक्सर सोचता था कि आखिर उस लकड़ी के घोड़े में सैनिक इतनी देर तक बंद रहे तो पेशाब-वेशाब कहां किए किए होंगे. मेरा यह अनुभव है कि किसी का संगीत के प्रति, किसी का किसी और आर्ट के प्रति स्वाभाविक रुझान होता है, मैं भी जब पढ़ता था तो कुछ ऐसा ही रुझान हो जाता था. डेविएशन हर आदमी में कला के प्रति होता है. अगर मौका मिल गया तो आप एक्सेल कर जाते हैं. दब गया तो दब गया.
प्रभात : पहली कहानी कब लिखी?
शिवमूर्ति : पहली कहानी जब छपी मेरी तो मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था. आगरा से निकलनेवाली पत्रिका युवक में छपी थी- मुझे जीना है. उसी साल एक और कहानी छपी पान-फूल, जो बीकानेर से निकलनेवाली एक पत्रिका में छपी जो हरीश भादानी जी निकाला करते थे. हाल में ही उनका निधन हुआ है. उसके बाद लखनऊ से निकलनेवाली पत्रिका कात्यायनी में मेरी कहानी उड़ जा पंछी को फर्स्ट प्राईज मिला. बाद में इन कहानियों में मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा इसलिए मैंने उनको अपने संग्रहों में शामिल नहीं किया.
प्रभात : आप जिन साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ते थे उनमें आपने कहानियां छपने के लिए नहीं भेजीं?
शिवमूर्ति : कात्यायनी साहित्यिक पत्रिका थी. पंजाब में रहते हुए दिनमान में मैंने एक लेख भी लिखा था. दिनमान ने अपढ़ संवाद प्रतियोगिता की थी. यानी न पढ़ने-लिखने से कितनी मुश्किलें होती हैं, हो सकती हैं उस पर एक राइटअप बनाइए. जो एक पेज से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. उसमें मैंने भेजा. मुझे फर्स्ट प्राइज मिला. काफी लोगों ने उसमें हिस्सा लिया था. पांच सौ रुपए का ईनाम भी मिला.
प्रभात : वह पहली कहानी जिससे आप अपनी साहित्यिक यात्रा का आरंभ मानते हों?
शिवमूर्ति : कसाईबाड़ा. १९८० के जनवरी में धर्मयुग में छपी थी. लिखी तो मैंने सबसे पहले थी भरतनाट्‌यम. १९७५ में लिखी थी. कसाईबाड़ा १९७६ में लिखी. लिख तो लिया लेकिन भूल गए. दोनों कहानियों को छपने के लिए कहीं नहीं भेजा. तब मैं पंजाब में रहता था. बाद में जब मैं इस नौकरी में आया तो ट्रेनिंग के लिए कानपुर आया. कानपुर में बलराम मिल गए. उस समय कानपुर में संतोष तिवारी थे, कामतानाथ थे, राजेन्द्र राव थे. सब लोग कानपुर के मोतीझील में शाम को बैठते थे. उसमें मैंने अपनी वह कहानी दिखाई. बहुत लंबी थी इसलिए उस दिन उसको पढ़ा नहीं. मैंने बलराम को दे दिया. बलराम ने कहा कि मुझे एक छोटी कहानी दीजिए. मैं खुद एक पत्रिका निकाल रहा हूं. तो मैंने तीन पेज की एक कहानी आकलदंड लिखी और उसको दे दी. ७७ में उसने उसको छापा. कसाईबाड़ा और भरतनाट्‌यम उसको दे दी और फिर मैं ट्रेनिंग के लिए नैनीताल चला गया.
कसाईबाड़ा के बारे में उसने कहा कि यह बहुत लंबी है इसको रीराइट करो तो मैंने ७७ में ही उसको रीराइट किया. छोटी करके उसको दे दी. बलराम तब सारिका में आ गया था. कहानी फिर भी बड़ी थी. तो उसको १९७८ में धर्मयुग में भेज दी. वहां पड़ी रही. जनवरी १९८० में धर्मयुग का ग्राम विशेषांक निकला. उसमें वह कहानी आई. उन्होंने उसको संपूर्ण लघु उपन्यास कहकर छापा था.
प्रभात : आपकी वह एक तरह से पहली ही कहानी गांव के बारे में एक नया सच सामने रखती है जो भयानक खबर की तरह है. कहानी में पंक्ति आती है- यह पूरा गांव ही कसाईबाड़ा है. पाठकों-लेखकों की कैसी प्रतिक्रिया रही?
शिवमूर्ति : एक साल तक धर्मयुग में चिटि्‌ठयां छपती रहीं. भारती जी ने संपादकीय में उस कहानी का उल्लेख किया था. फिर सारिका में छपा कि मनहर चौहान कसाईबाड़ा का मंचन कर रहे हैं. उन्होंने ७५ लोगों की एक टीम बनाई और डेढ़ सौ जगहों पर देशभर में उसका मंचन किया. आज तक कसाईबाड़ा का नाटक के रूप में मंचल होता रहता है. इसी को एक तरह से मैं अपनी पहली कहानी मानता हूं. इसके पहले का लेखन तो प्रैक्टिस था. उसके बाद बलराम ने सारिका में भरतनाट्‌यम छापी.
प्रभात : गांव का बदलता हुआ यथार्थ आपकी कहानियों-उपन्यासों के केन्द्र में रहा है. कसाईबाड़ा में दिखता है कि सारा गांव शोषण तंत्र में शामिल हो गया है, त्रिशूल में गांव का खराब होता धार्मिक माहौल है, तर्पण में एक दूसरे तरह का जातीय उभार है. आखिरी छलांग तक आते-आते लगता है कि शहरी संस्कृति के सामने गांव ने सरेंडर कर दिया है?
शिवमूर्ति : अब जब हम रीराइट कर रहे हैं आखिरी छलांग को तो इसमें बहुत कुछ आ रहा है. एक तरफ समस्याएं बढ़ रही हैं तो चेतना भी आ रही है गांव में, भ्रष्टाचार भी आ रहा है. पढ़नेवाले भी पैदा हो रहे हैं. एक लड़का था ठाकुर का मेरे गांव से चार-पांच किलोमीटर दूर. दीपक नाम है उसका. सेवेंथ में मैं उसको पढ़ा रहा था. मेरे प्रभाव से उसने कहा कोई नौकरी नहीं करेंगे. बड़े घर का लड़का है. अखबार निकालने लगा. पहले साप्ताहिक निकालता था अब दैनिक कर दिया है. बड़ा जुझारु है. गरीबों के लिए, दलितों के लिए कितनी बार मार खाया है, मर्डर होते-होते बचा. ठाकुर है लेकिन ठाकुर कहते हैं कि वह जातिद्रोही है. अपनी ही जाति की मुखालफत करता है. तो ऐसे भी लोग हैं इक्का-दुक्का जो संधर्ष कर रहे हैं. आप उनके संघर्ष को होलटाइम नक्सलवाद के संघर्ष से कम करके नहीं आंक सकते. उसी में सर्वाइव करके लड़ रहे हैं सबके साथ और जो केवल कागज पर लड़ते हैं उनसे तो सौ गुना अच्छे हैं.
प्रभात : कोई विदेशी लेखक भी है जिसने आपको प्रभावित किया हो?
शिवमूर्ति : जैक लंडन. उाकी वर्णन क्षमता का कोई जवाब नहीं है. उसका जीवन भी विचित्र था. वह समुद्री डाकू था. तेरह साल की उम्र में उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी समुद्री डाकू को हराया और उसकी बेटी से शादी कर लिया. तेरह साल की उम्र में. अद्‌भुत है. ३९ की उम्र में मर भी गया. जेल में जब बंद हुआ तो उसने पढ़ना शुरु किया. उसके बाद जब उसने लिखा तो सबने उसका लोहा माना. द कॉल ऑफ ए वाइल्ड पढ़िए. भेड़िए की कहानी है. भुवनेश्वर की जो कहानी है भेड़िए. उसको पढ़िए तो लगता है जैसे इसी उपन्यास की नकल है. उसकी कलम में बड़ा दम था. उसने आत्महत्या कर ली. बाद में उसको लगा अब मैं कुछ नहीं लिख सकता. जब उसने खूब पैसा कमा लिया तो एक घर बनाया एक टापू पर. वहां पर एक टेढ़ा पत्थर रखा था उसने उसको फिंकवा दिया था अपना घर बनवाने के लिए. जिस दिन उसके घर का गृहप्रवेश था उसी दिन उसके किसी दुश्मन ने उसमें आग लगवा दिया. तब वह उस टेढ़े पत्थर को उठा लाया और कहा कि यही मेरा घर है. यही मेरे कब्र पर लगेगा. उसने अपने कब्र पर लिखवाया- यहां सोया है वह आदमी जिसका घर जलाया गया न कि जिसने घर जलाया.
प्रभात : आपने मैं और मेरा समय में जंगू के बारे में लिखा है. उसके बारे में बताइए. उसके संघर्ष को आप किस तरह से देखते हैं?
शिवमूर्ति : जंगू का एनकाउंटर हो गया हम कुछ नहीं कर पाए. १९९५ में मैंने जनमत में लिखा था कि एक दिन आप लोग सुनेंगे कि इसका एनकाउंटर हो गया. और हो गया… उसका काम यह था कि जो भी आसपास के लोग ज्यादती करते या किसी का हड़प लेते तो वह उनको रात में पकड़ता और टांग तोड़ देता था. कितने लोग उसके डर से एरिया छोड़कर भाग गए. एक बार ९५ में पकड़ा गया. उसका एनकाउंटर होने वाला था. हमारे एक समधी उस समय यू.पी. में बसपा के अध्यक्ष थे तो उनसे कहकर मैंने बचवा दिया था. दो साल पहले उसका एनकाउंटर कर दिया गया. बाद में उसने यह सब छोड़ दिया था. तब उन लोगों ने उसको फंसाया जिनकी उसने टांगें तोड़ी थीं. गलत केस में फंसाकर उसका फर्जी एनकाउंटर हो गया. हम लोग जंगू के यहां गए थे उसके एनकाउंटर के बाद. एक छोटी सी बछिया बंधी थी, अलाव जल रहा था, खाली धुआं निकल रहा था. सारे दरवाजे खुले हुए थे. पुलिस आई थी वहां सब तोड़ताड़ कर गई थी. हमने पाया कि जंगू के घर की सारी प्रॉपर्टी हजार पांच सौ से अधिक की नहीं रही होगी. उसने इलाके करीब दो दर्जन लोगों की टांगें इसलिए तोड़ दीं क्योंकि उन लोगों ने दूसरों के साथ ज्यादती की थी. उसने कोई लूटपाट करके अपना घर नहीं भरा था. एक डाकू था नरेश. मेरा बड़ा नजदीकी मित्र था. उसका भी एनकाउंटर हो गया था…
प्रभात : इस तरह के चरित्रों को लेकर कभी आपने कुछ लिखने की योजना नहीं बनाई?
शिवमूर्ति : आखिरी छलांग रीराइट करने के बाद नरेश डाकू को लेकर ही लिखने की योजना बना रहा हूं. उसी के बहाने उस समय के हालात पर- कुछ अपने जीवन से लेकर कुछ उसके जीवन से लेकर लिखने की योजना है कि किस तरह गांव में इस दौरान परिवर्तन हुए. कभी-कभी सोचता हूं कि इस पर लिखूं कि ऐसे लोगों का किस तरह मानसिक रूप से डेविएशन हुआ? कैसे उनकी तैयारी हुई? इस स्तर तक वे कैसे पहुंचे आखिर? जरा सोचिए, आखिर वह कैसा पवित्र दिमाग रहा होगा, कितना निद्गकलंक रहा होगा जो दूसरों के लिए अपनी जान जोखिम में डालता होगा, जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं. उसने सोच लिया कि एरिया में किसी को ज्यादती नहीं करने देंगे और उसके बाद जो कोई भी ज्यादती करता उसकी टांगें तोड़ देना. आप सोचिए कि क्या मामूली विचार हैं ये? किसके होते हैं ऐसे विचार? सब डेविएट हो जाते हैं, सब बदल जाते हैं. सब अपना स्वार्थ देखने लगते हैं, सब खतरे से डरने लगते हैं.
हम यह कह रहे हैं कि कुछ और उनके अंदर होता है जो हम लोगों के अंदर नहीं होता है. वह जो और होता है उसको महसूस कीजिए और फिर उनको द्राब्द भी दीजिए. इस तरह से कि उनके साथ अन्याय भी नहीं हो और लोगों को कन्वे भी हो जाए. देखिए किस तरह से ऐसा कर पाता हूं. देखिए, इस तरह के लोगों को समाज का ओपन समर्थन नहीं मिलता है. क्योंकि जंगू ही है तो वह जिस तरह के लोगों से लड़ रहा था, जिनकी टांगें तोड़ रहा था वे तो ज्यादा मजबूत थे न. जो मजबूत होगा, आतातायी होगा वही दूसरों को सताएगा न. तो ऐसे लोगों के खिलाफ कोई सामने नहीं आता है. ऐसे लोग अक्सर अपनी लड़ाई में अकेले पड़ जाते हैं. तो ऐसे लोगों के बारे में लिखा जाना चाहिए. संयोग से ऐसे कई लोगों को मैंने करीब से देखा था. तो मुझे लगता है कि लिखना चाहिए.
प्रभात : राजनीति आपके लेखन में प्रबल रहा है. बदलती हुई राजनीति से ग्रामीण समाज किस तरह प्रभावित हो रहा है, उसमें क्या बदलाव आ रहे हैं?
शिवमूर्ति : देखिए बहुत कुछ बदल रहा है. बहुत कुछ अच्छाई के लिए बदल रहा है. आप इससे इंकार नहीं कर सकते. लेकिन कुछ चीजें हैं जो अलार्मिंग हैं. यद्यपि हमारे लेखन का वे सीधे-सीधे विद्गाय नहीं बन सकतीं. जैसे कि यह जो माओवादियों का उभार है इसे केवल राजनीतिक उभार मत मानिए. जिस तरह की ज्यादतियां हो रही हैं छतीससगढ़ या झारखंड के आदिवासियों के साथ. यह गृहयुद्ध के नजदीक जानेवाली बात है. अभी तक तो केवल असम, मणिपुर, कच्च्मीर जैसे सीमांत के इलाकों में हो रहा था. लेकिन देश के अंदरुनी इलाकों में भी अगर इस तरह का विभाजन हो जाएगा तो बाकी हिन्दुस्तान का कौन सा सेंटर बचेगा? लगता है कि यह बढ़ता जाएगा क्योंकि लोग ध्यान नहीं दे रहे हैं कि ऐसी व्यवस्था बने जिसमें ऐसे सारे लोग गायब न हों जाएं, विलुप्त न हो जाएं. वे किसान, मजदूर, आदिवासी जिनकी रोजी-रोटी कुछ नहीं है वे तो विलुप्त हो ही जाएंगे.
प्रभात : ऐसे में लेखकों की जिम्मेदारी को आप किस तरह से देखते हैं?
शिवमूर्ति : लेखकों की जिम्मेदारी खाली… अगर आप लिखने तक ही अपने आपको सीमित रखेंगे तो मुझे नहीं लगता कि यह उचित है. अगर आप सरोकार से जुड़े हैं तो आपको इसमें इन्वॉल्व होना ही पड़ेगा. मेरा यह मानना है. कुछ सक्रियता होनी चाहिए. मुझे लगता है कि जो इन्वॉल्व हैं वे सौ गुना बेहतर काम कर रहे हैं. लेखक उनके मुकाबले कुछ नहीं कर रहे हैं. देखिए यह मेरी एक पुरानी डायरी है जिसमें लिखा है- मेरी नजर में सामाजिक कार्यकर्ता या एक्टिविस्ट की भूमिका समाज में बहुत सारे मायनों में लेखकों की भूमिका से बड़ी है. प्रचारक-विचारक ओझल हो जाते हैं, दिखाई नहीं देते हैं, नींव के पत्थर की तरह. जब इमारत खड़ी हो जाती है तो उनके बारे में लोग नहीं जानते हैं. जब आंख के सामने शोषण-दमन जारी हो तो उसके प्रतिकार के लिए लोगों को जगाने, खड़ा करने का काम एक किनारे निष्क्रिय बैठकर उस शोषण या अन्याय का चित्रण करने या उसमें प्रतिरोध का स्वर फूंकने का प्रयास करने से ज्यादा जरूरी हो जाता है. अगर सामने-सामने हो रहा हो तो उसमें इन्वॉल्व होकर उसका प्रतिरोध करने की बजाय आप कहें कि घर चलकर उसके ऊपर कहानी लिखेंगे तो मुझे लगता है कि यह उचित नहीं है.
तात्कालिक प्रतिरोध करने और उसके लिए राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए बहुत ईंधन चाहिए. इतना ईंधन जो प्रज्ज्वलित होकर प्रकाश दे सके या रास्ता दिखा सके. लेकिन जब तक ऐसा ईंधन आपके पास नहीं है तब भूसी ही आपके आग को लंबे समय तक बुझने से बचा सकती है. भूसी की आग जानते हैं? धान की भूसी जो होती है वह बहुत धीरे-धीरे सुलगती है. अगर भूसी डाल दीजिए आग पर तो वह बहुत धीरे-धीरे सुलगेगी. गांव में जब पहले माचिस वगैरह नहीं होती थी या उसकी कमी होती थी तो इसी तरह से आग को जलाए और बचाए रखते थे. तो इसी भूसी की आग की तरह अपने अंदर प्रतिरोध को बचाए रखने के लिए लेखन काम आता है. आप उस आग से लोगों को अवगत करा दीजिए ताकि वह विचार को सुरक्षित रख सके. लांग रन में साहित्य की भूमिका, उसके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है.

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