अपने प्राचीन
साहित्य से मेरा अभिप्राय अपने उस साहित्य से है जो कि प्राचीन है। हमारा प्राचीन
साहित्य मुख्यत: संस्कृत में है और उसे वैदिक व लौकिक-इन दो खण्डों में विभाजित
किया जाता है। संस्कृत के अतिरिक्त और भी भाषाएँ हमारे यहाँ प्रचलित रहीं-जैसे प्राकृत, पालि, अपभ्रंश
इत्यादि-मगर उनमें उतना साहित्य नहीं रचा गया। वे जनता की भाषा थीं या फिर स्त्रियों
की भाषा थीं। स्त्री को हमेशा जनता ही माना गया और इसी कारण आजादी के बाद भी नयी दिल्ली
में (जहाँ 'किंग्स वे' को 'राजपथ' नाम
से पुकारा गया) 'क्वींस वे' को 'जनपथ' ही
कहकर पुकारा गया। कालिदास की नायिकाएँ भी सारी बातचीत प्राकृत भाषा में ही करती थीं, संस्कृत
में नहीं हालाँकि जैसा कि हम जानते हैं, उनमें से शकुन्तला
जैसी जो कन्या थीं वे ऋषियों के आश्रमों में नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त करती थीं।
इसके अतिरिक्त वे नायक की-जो सदा शुद्ध संस्कृत में ही बोलता था-सारी बातें समझती
थीं पर फिर भी बतौर शिष्टाचार के, उत्तर वे प्राकृत
में ही देती थीं। संस्कृत बोलने का अधिकार उन्हें नहीं था। स्त्री को हर प्रकार
से निचला स्थान देने के बाद, हमारे शास्त्रकार
कहा करते थे कि जहाँ-जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ-वहाँ
देवता निवास करते हैं। नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते, रमन्ते
तत्र देवता:। जहाँ तक प्राकृत या पालि भाषा का प्रश्न है, वे
तो मात्र शिलालेखों पर उत्कीर्ण करने के लिए ही प्रयुक्त होती हैं, वैसे
कभी नहीं। मेरा विचार है कि पुराने जमाने में यदि कोई व्यक्ति पालि या प्राकृत में
बात करना चाहता था तो आचार्य उससे यही कहते थे कि 'जाओ, एक
अदद शिला या स्तूप ले आओ,
बाकी बात बाद में
करेंगे।'
अपने इस प्राचीन
साहित्य में जो बात मुझे सबसे पहले आकृष्ट करती है वह यह है कि जो भी प्रसंग आपके
मतानुसार न हो,
उसे आप 'क्षेपक' कहकर
आसानी से टाल सकते हैं। इस पुराने साहित्य में 'क्षेपक
साहित्य' जो है वह 'मूल साहित्य' से
कहीं ज्यादा है। हमारे एक संस्कृत के प्रोफेसर थे जो जरूरत से ज्यादा चतुर थे। उन्हें
जो भी स्थल ऐसा मिलता था जिसका कि वे अर्थ नहीं जानते थे, उसे
वे हमेशा यह कहकर टाल जाते थे कि यह 'अश्लील' है, लड़कियों
के सामने इसका अर्थ नहीं बताया जा सकता। उनकी क्लास समाप्त होने के बाद, सबसे
पहले हम उन्हीं स्थलों का अनुवाद खोजते थे और इस दिशा में लड़कियाँ जो थीं, वे
भी कम उत्सुक नहीं रहती थीं। हम लोग प्राय: निराश ही होते थे क्योंकि उस तथाकथित
अश्लील प्रसंग में हमें ऐसा कोई भाग पढ़ने को कभी नहीं मिला जिसे हम पहले से ही न
जानते हों। इस सबके अतिरिक्त एक और बात जो परेशान करती थी वह यह थी कि यदि वह प्रसंग
इतना अशोभनीय था तो फिर पाठ्यक्रम में रखा ही क्यों गया था?
प्राचीन साहित्य
की एक और उपयोगिता सदा से यह रही कि उस पर डॉक्टरेट लेना जो था वह सदा से सरल रहा।
पहले तो 'पाठ' ही इतने प्रकार
के हैं कि यह निश्चित करना कि कौन-सा 'पाठ' सही
है, स्वयं में एक बड़ा काम है। दूसरी बात यह है कि प्राचीन साहित्यकारों
ने अपने बारे में इतना कम लिखा है कि उन पर खोज करने की जो सुविधा है वह अनन्त है।
एक विदेशी विद्वान का कहना है कि महाकवि कालिदास जो थे वे कश्मीर के निवासी थे क्योंकि
उन्होंने हाथी की चर्चा अत्यन्त कम की है और कश्मीर ही एक ऐसा देश है जहाँ हाथी
उतनी बहुतायत के साथ नहीं पाया जाता। भारवि जरूर समुद्रतट के निवासी थे क्योंकि वे
संस्कृत के अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने समुद्र में सूरज डूबने का चित्र खींचा है।
इतनी दूर की कौड़ी लाते देख, पाठक को सूरज
के साथ-साथ खुद भी समुद्र में डूब जाने की प्रबल इच्छा होती है। मेरे विचार में दण्डी
जो था वह जरूर किसी निचली जाति का लेखक था या सरकार का 'घोषित' अपराधी
था, नहीं तो कोई ऐसा कारण नजर नहीं आता कि वह 'दशकुमारचरित' तो
लिखता पर अपना
'चरित' न
लिखता। उपेन्द्रनाथ अश्क हैं जो बेचारे भविष्य की पीढ़ियों की कठिनाई दूर करने के
लिए दो पेज 'चेतन' पर लिखते हैं
और तीन पेज अपने ऊपर लिखते हैं। इतने त्याग की भावना कितने लेखकों में होती है!
प्राचीन साहित्य
के संदर्भ में हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उस समय में राजा लोग तक साहित्य की
रचना करते थे।
'नागानन्द' नाटक
के लेखक वे ही सम्राट हर्ष थे जो सम्पत्ति-कर से बचने के लिए हर पाँच वर्ष बाद अपनी
सारी सम्पत्ति प्रयाग के पण्डितों को बाँट देते थे। 'मृच्छकटिक' के
लेखक वे ही राजा शूद्रक थे जिनके अस्तित्व के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है
जिसका मुख्य कारण यह है कि उन्होंने नाटक की प्रस्तावना में अपनी मृत्यु का भी
आँखों-देखा उल्लेख किया है जो कि किसी भी लेखक के लिए कठिन काम है। लेखक जो है वह
पाठक (या आलोचक) की मृत्यु का तो उल्लेख कर सकता है पर अपनी मृत्यु का नहीं। और
हाँ, तीनों शतकों के रचयिता वही राजा भर्तृहरि थे जिनकी पत्नी
सुन्दर होने के साथ-साथ चरित्रहीन भी थी। बात भी ठीक थी, यदि
सुन्दर नहीं होती तो चरित्रहीन कैसे होती? क्या
आपने कभी कोई बदसूरत स्त्री भी चरित्रहीन देखी है? कम-से-कम, मेरे
साथ तो ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं तो जब भी किसी बदसूरत स्त्री के साथ समय गुजारने का
अवसर पाता हूँ,
तभी पता नहीं कैसे
मेरा चरित्र अपने-आप ऊँचा हो जाता है। मैं तो जानबूझ कर ऐसी स्त्रियों के साथ ज्यादा
समय नहीं गुजारता क्योंकि कहीं चरित्र जरूरत से ज्यादा ऊँचा हो गया तो फिर वह नीचे
कैसे आएगा?
हमारे प्राचीन
साहित्य में एक विशेष बात यह है कि उसमें संसार की सारी चीजों का वर्णन है। यत् ब्रह्माण्डे, तत्
पिण्डे। प्रलय,
विषकन्या, युद्ध, बाढ़, भूकम्प, भ्रष्टाचार, बलात्कार, कायस्थ-मुन्शियों
की चतुराई, अदालतों का अन्धेर, वेश्या, नगर, नगरवधू, देवता, देवदासियाँ, कंचुकी, ब्राह्मण, शाप, हरिजनों
की हत्या, विश्वासघात, जालसाजी, नरबलि, गरीबी, उड़नखटोला-क्या
है जो वहाँ नहीं है?
और अगर वहाँ नहीं है
तो फिर कहीं नहीं है। अगर हमारे यहाँ गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' व
विष्णुशर्मा का
'पंचतन्त्र' न
होता तो संसार के कथा-साहित्य के स्थान पर हमें मात्र वह शून्य ही देखने को मिलता
जिसका कि आविष्कार भी हमने ही किया था।
अपने इस महान
प्राचीन साहित्य की जो विशेषता आपके इस सेवक को सबसे ज्यादा आकृष्ट करती है वह है
उसकी श्रृंगारप्रधानता,
उसका पद-लालित्य और
उसकी विशुद्ध अश्लीलता। मुझे धिक्कार देने से पहले आप उन 'काम' की
चीजों को पढ़ें। यदि आपने
'श्रृंगार शतक', 'भामिनीविलास'
और 'अमरुकशतक' नहीं
पढ़े तो आपका यह जीवन व्यर्थ ही गया। यदि इस जीवन के बाद भी कोई और जीवन होता है तो
वह भी व्यर्थ गया। आप शंकराचार्य द्वारा प्रणीत 'विवेकचूड़ामणि' पढ़ें
और 'मूर्ख शिरोमणि' की भाँति जीवन
बितायें। मैं क्या,
हरिमोहन झा तक आपकी
कोई मदद नहीं कर सकता। पिछले पैंतीस वर्षों से मैं अपना प्राचीन साहित्य बराबर पढ़ता
आ रहा हूँ और कम-से-कम मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जो साहित्य श्रृंगार-प्रधान
नहीं है वह साहित्य ही नहीं है और यदि साहित्य है भी तो प्राचीन तो किसी भी स्थिति
में नहीं है। आप फिर भी सन्त बनना चाहते हों तो बनें। खाकसार तो इन्सान होकर ही बहुत
खुश है और हाँ,
कभी मुझे देवता बनने
की विवशता आयी भी तो मैं तो सिर्फ 'गुनाहों का देवता' ही
बनूँगा, किसी और किस्म का नहीं।
'गुनाहों का देवता' हिन्दी
की उन विरल पुस्तकों में से है जिनका एक के बाद एक संस्करण लगातार हुआ है। आधुनिक
हिन्दी की जो चार सबसे ज्यादा बिकनेवाली पुस्तकें हैं, 'गुनाहों का देवता'
उनमें से एक है। शेष
तीन पुस्तकें हैं- 'गोदान', 'चित्रलेखा' तथा 'मधुशाला'। 'साकेत' और 'कामायनी' कैसे
पीछे छूट गयीं,
इसका मुझे पता नहीं।
कालिदास खैर इतने तो प्रसिद्ध नहीं हुए जितने कि बच्चन, धर्मवीर
भारती, भगवतीचरण वर्मा व प्रेमचन्द हुए (जिनकी पुस्तकों की चर्चा
ऊपर की गयी है) पर फिर भी उन्होंने काफी नाम पाया। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि
कालिदास एक नहीं,
कम-से-कम तीन थे और
उन्होंने चालीस पुस्तकें लिखी थीं। भारती जी स्वयं कभी कालिदास से बहुत ईर्ष्या
करते थे और कहा करते थे कि 'मेघदूत के छन्द-छन्द
में मैं खुद आग लगाता'
मगर वैसा उन्होंने
किया नहीं। लोहा ठण्डा ही रहा, उतना गरम कभी
नहीं हुआ। विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि भारती जी ने अपनी योजना को तब खलास किया
जब उन्हें पता चला कि कालिदास (वल्द : मालूम नहीं) एक नहीं बल्कि तीन थे। सबूत के
तौर पर सैकड़ों वर्ष पहले लिखा यह श्लोक प्रस्तुत करता हूँ :
एकोपि जीयते हन्त
कालिदासो न केनचित्।
श्रृंगारे ललितोद्गारे
कालिदासत्रयी किमु।
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